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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान - 15

     

आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - प्रेरित: मनुष्य द्वारा नियुक्ति के परिणाम 

  पिछले लेख में हमने मसीही विश्वासियों की मण्डली में 1 कुरिन्थियों 12:28 में उपयोगिता के अनुसार दिए गए वरदानों के क्रम में सर्वप्रथम - प्रेरित होने के वरदान के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल में से देखा था। हमने देखा था कि उस आरंभिक मण्डली के लोगों की दृष्टि में प्रेरित कौन थे, और कैसे नियुक्त किए गए थे, और प्रेरित होने का अर्थ क्या था। हमने उनकी नियुक्ति के विषय देखा था कि सभी प्रथम प्रेरित, प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों में से नियुक्त किए गए थे। उस नियुक्ति के पश्चात, प्रेरित कहे गए उन बारह शिष्यों के अतिरिक्त, प्रभु के तत्कालीन शिष्यों में किसी शिष्य को फिर कभी प्रेरित नहीं कहा गया। और न ही बाद में मण्डली में प्रेरितों को नियुक्त करने के लिए कोई निर्देश दिए गए तथा न ही उनकी नियुक्ति के लिए उनमें विद्यमान होने वाले गुणों की कोई शिक्षा दी गई, जैसे के 1 तिमुथियुस 3:1-7, और तीतुस 1:5-9 में मण्डली के संचालन के लिए मण्डलियों के अगुवों के विषय कहा गया है। परमेश्वर के वचन बाइबल में प्रेरितों की नियुक्ति के लिए उनके परमेश्वर द्वारा नियुक्त किए जाने ही की बात लिखी गई है। केवल एक उदाहरण है जब मनुष्यों ने एक व्यक्ति को प्रेरित नियुक्त करने का प्रयास किया, यहूदा इस्करियोती के स्थान पर किसी अन्य जन को, किन्तु उसका परिणाम संदेहास्पद ही रहा, और उस नियुक्ति में आरंभ से अंत तक जो प्रक्रिया अपनाई गई वह वचन से असंगत ही रही। आज हम मनुष्यों द्वारा की गई इसी नियुक्ति और प्रक्रिया को कुछ विस्तार से देखेंगे, कि जो ऊपरी तौर से तो सही और वचन के अनुसार लगती है, किन्तु वास्तविकता में है नहीं। 

हम प्रेरितों1:15-26 खंड से देखते हैं कि प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के बाद, शिष्य पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिसके बाद वे सुसमाचार प्रचार की सेवकाई पर निकाल सकें। वे अपना समय प्रार्थना करने (प्रेरितों 1:14) और मंदिर में उपस्थित होकर स्तुति करने (लूका 24:53) में बिताते थे। ऐसे में पतरस उनके मध्य में खड़ा होकर कुछ कहने लगा; और उसने अपनी बात को वचन में दी गई भविष्यवाणी को आधार बनाकर व्यक्त किया। पतरस का विषय था यहूदा इस्करियोती के स्थान पर किसी अन्य को प्रेरित होने के लिए नियुक्त करना। पतरस का यह कार्य एक उत्तम उदाहरण है हम मनुष्यों द्वारा, विशेषकर मसीही विश्वासियों, या ईसाई धर्म के मानने वालों के द्वारा, परमेश्वर के वचन और नाम को, अपनी इच्छा पूरी करने के लिए प्रयोग करने का। 

प्रेरितों 1:15-26 में कहीं यह नहीं लिखा गया है कि पतरस ने यह बात प्रभु परमेश्वर के कहने पर की। न ही पतरस अपने लिए कहता है कि उसने इस विषय को परमेश्वर के सामने प्रार्थना में रखा था, और उसे जो परमेश्वर की ओर से मार्गदर्शन मिला, उसके अनुसार वह अब उन लोगों से बात कर रहा है, उन्हें परमेश्वर की इच्छा बता रहा है। पतरस की तुलना में, जब प्रभु ने अपने बारह शिष्यों के प्रेरित होने का चुनाव किया (मत्ती 10:2), तो उससे पहले उसने परमेश्वर पिता के साथ प्रार्थना में सारी रात बिताई, और तब जो लोग उसके साथ रहते थे उनमें से बारह को प्रेरितों कहलाए जाने के लिए चुना (लूका 6:12-13) 

इसकी तुलना में पतरस द्वारा की जाने वाली प्रक्रिया को देखिए:  

प्रेरितों 1:14-15 - प्रभु के अनुयायी प्रार्थना में लगे हुए हैं। उनकी प्रार्थना के विषय तो नहीं दिए गए हैं; किन्तु स्वाभाविक है कि स्वर्गारोहण से पहले जो शिक्षाएं प्रभु ने उन्हें दी थीं, और जिन जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए तैयार होने के लिए कहा था, वे ही बातें उनकी प्रार्थनाओं का विषय रही होंगी। साथ ही ध्यान कीजिए कि प्रभु ने उन्हें सुसमाचार प्रचार पर जाने के लिए तैयार होने के लिए तो कहा था, किन्तु कभी भी, किसी को भी यहूदा इस्करियोती के स्थान पर कोई नियुक्ति करने के लिए नहीं कहा - न पतरस से जब उससे तीन बार भेड़ों और मेमनों की रखवाली करने और उन्हें चराने के लिए कहा (यूहन्ना 21:15-17), न मत्ती 28:18-20 तथा मरकुस 16:15-19 में दी गई स्वर्गारोहण के समय प्रभु की महान आज्ञा के समय, न लूका 24 अध्याय के अंत में दी गई इम्माऊस के मार्ग पर दो शिष्यों के साथ हुई चर्चा में, और न ही लूका 24:45 में उनकी वचन की समझ खोलने के समय पर। प्रभु ने कभी भी किसी से भी यह करने के लिए नहीं कहा था; किन्तु फिर भी पतरस अपने आप ही इस बात को लेकर प्रभु के लोगों के बीच में खड़ा हो गया। उसने सुनने वालों के सामने, आने वाली सेवकाई के कार्य की बात उठाकर, पहले अपनी बात मानने का आधार बनाया कि अब शीघ्र ही शिष्यों को सेवकाई पर निकलना था, और बारह प्रेरितों में से अब एक कम हो गया था (प्रेरितों 1:17), जिसकी नियुक्ति अभी नहीं हुई थी। फिर परमेश्वर के वचन में से भजन संहिता में लिखी भविष्यवाणी का सहारा लेकर अपनी बात को वैध ठहराया (प्रेरितों 1:16, 20) 

साथ ही पतरस अपनी बात को सही ठहराने के लिए मानवीय बुद्धि और तर्क का सहारा लेता है (प्रेरितों 1:21-22)। उसकी कही ये बातें सामान्य समझ और दृष्टिकोण से बहुत उचित और सही लगती हैं, किन्तु इन में कहीं प्रभु की इच्छा का कोई उल्लेख नहीं है। वह तर्क देता है कि पहले प्रेरित भी उन लोगों में से चुने गए थे जो आरंभ से प्रभु यीशु के साथ रहते थे, इसलिए अब भी उन्हीं लोगों में से किसी एक को ही यह आदर मिलना चाहिए। लेकिन उसने इस बात का ध्यान नहीं किया कि बारह प्रेरित चुनने से पहले प्रभु ने पिता परमेश्वर से सारी रात प्रार्थना और परामर्श किया था, उससे अनुमति ली थी, तब कहीं यह निर्णय लिया था। जबकि पतरस उसके साथ एकत्रित शिष्यों से भी परामर्श और अनुमति नहीं ले रहा है, वरन सीधे उन्हें अपनी बात मानने के लिए तैयार कर रहा है। और यह प्रभु द्वारा इस नियुक्ति के लिए स्थापित उदाहरण के कदापि अनुरूप नहीं है। 

परिणामस्वरूप, प्रेरितों 1:23-25 में हम देखते हैं कि वे लोग पतरस की बात से सहमत हो जाते हैं, और अपनी सलाह-मशवरा करने के बाद, किसी ऐसी रीति से जिसका कोई विवरण नहीं दिया गया है, अपने आप में से दो लोगों के नामों पर एकमत हो जाते हैं, और फिर उन्हें परमेश्वर के सम्मुख अंतिम निर्णय के लिए ले कर आते हैं। तुलना में, प्रभु यीशु ने परमेश्वर के सामने किसी का भी नाम नहीं रखा था; जबकि ये लोग पहले अपनी बुद्धि और समझ लगा रहे हैं, और अपनी समझ के अनुसार अपना ही निर्णय कर लेने के बाद, दो नाम तय कर लेने के बाद, फिर उन केवल उन दोनों ही में से एक के लिए निर्णय देने के लिए परमेश्वर से कह रहे हैं। वे परमेश्वर को निर्देश दे रहे हैं कि तू बस इन दोनों में से एक के लिए बता दे - तेरा उत्तर केवल इन दोनों में से एक के लिए ही होना चाहिए; क्योंकि हमने तय कर लिया है। हम यह जानते हैं और निर्णय कर चुके हैं कि हम में से केवल यही दोनों ही इस सेवकाई और प्रेरित नियुक्त होने के योग्य हैं, और परमेश्वर तुझे इसके अनुसार ही करना होगा। 

प्रेरितों 1:26 से हम देखते हैं कि उन्होंने न केवल लोगों के नाम निर्धारित कर लिए, वरन परमेश्वर ने उनमें से एक को कैसे चुनना है यह भी निर्धारित कर लिया, और परमेश्वर पर अपनी कार्य-विधि लागू भी कर दी। उन्होंने परमेश्वर से यह भी जानने का प्रयास नहीं किया कि उनकी बात परमेश्वर की इच्छा के अनुसार है भी कि नहीं, वह अपना उत्तर कैसे देगा, या, वे परमेश्वर के उत्तर को कैसे जानेंगे। फिर अपनी समझ और तरीके से काम करके, और परमेश्वर के नाम में, अपनी बनाई विधि के अनुसार उन्होंने एक को चुन भी लिया, तथा स्वयं ही उसे प्रेरित होने की उपाधि भी दे दी। जो काम पहले प्रभु ने परमेश्वर की इच्छा और परामर्श द्वारा किए थे, वे सभी अब इन लोगों ने अपनी समझ और ज्ञान के अनुसार कर दिए, और वचन के हवालों तथा प्रार्थना करने के द्वारा उसे परमेश्वर की इच्छा में किया गया कार्य जता दिया। 

इस पद का अंतिम वाक्य इस संदर्भ में रोचक है, क्योंकि संकेत देता है कि परमेश्वर ने मत्तियाह को बारहवाँ प्रेरित स्वीकार नहीं किया था। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने लिखवाया, “...सो वह उन ग्यारह प्रेरितों के साथ गिना गयाजबकि अधिक उचित वाक्य, जो उसके बारहवाँ प्रेरित होने की भी पुष्टि करता, यह लिखवाना होताऔर वह बारहवाँ प्रेरित हो गया”, या फिर, “और वह बारहवाँ प्रेरित बन गया  

यूहन्ना 21:2-3 में जब पतरस वापस मछली पकड़ने के लिए निकला, तो उसके साथ छः और शिष्य भी उसका अनुसरण करते हुए इसी काम में चले गए थे। न केवल पतरस प्रभु के प्रति विश्वास में कमज़ोर पड़ा वरन उसके कारण छः और शिष्य भी कमज़ोर पड़कर प्रभु के मार्ग से हट गए; और फिर आगे प्रभु को उन सभी को उसकी सेवकाई के लिए लौटा के लाना पड़ा। यहाँ पर फिर से पतरस वही करता है - एक बार फिर न केवल वह स्वयं प्रभु की बात से हटा, वरन उसके साथ वहाँ एकत्रित अन्य लोग भी बहक गए, उसकी गलती में उसके साथ सम्मिलित हो गए। वे भी पतरस को सुधारने की बजाए, उसके साथ गलती में सम्मिलित हो गए। उन्होंने मिलकर परमेश्वर पर अपनी समझ के अनुसार और अपने द्वारा निर्धारित बातों को लाद दिया - 

  • परमेश्वर तुझे अभी ही, इसी समय बारहवाँ प्रेरित चुनना होगा
  • तुझे उस बारहवें को उन में से ही चुनना होगा जो आरंभ से हमारे साथ रहे हैं;
  • हम जानते हैं कि हम सही हैं क्योंकि हमें इस से संबंधित वचन के हवाले पता हैं;
  • यह बारह की गिनती पूरी करना हमारी आती सेवकाई के लिए बहुत आवश्यक है, और तुझे अभी यह कमी पूरी करनी है;
  • हम ने अपने में से दो सबसे योग्य जन चुन लिए हैं, हमें पता है कि यही सबसे उपयुक्त हैं
  • अब तुझे बस इतना बताना है कि इन दोनों में से कौन सबसे उपयुक्त है;
  • हमारे चिट्ठियाँ डालने के द्वारा तुझे यह निर्णय प्रकट करना होगा। 

पतरस और उसके साथी परमेश्वर को वहाँ अपनी बातों में बांध कर, अपने हाथों की कठपुतली बनाकर, उनकी मर्जी के अनुसार करने के लिए प्रयोग कर रहे थे। इच्छा और निर्णय उनके थे, नाम परमेश्वर का था।  

उनकी प्रक्रिया के अनुसार बारहवाँ प्रेरित चुन लिया गया, उन लोगों के द्वारा उसे वह पद भी दे दिया गया, किन्तु सारे नए नियम में कहीं उसकी सेवकाई का कोई उल्लेख नहीं है। वह पतरस और उसके साथियों के द्वारा ठहराया गया प्रेरित तो था; किन्तु परमेश्वर ने यह पद किसी और, अर्थात पौलुस के लिए रखा हुआ था, जिसे वह बाद में प्रकट करता है - 1 कुरिन्थियों 9:1-2; 15:9। मनुष्यों के चुनाव और नियुक्ति के जन, मत्तियाह, का वचन में कहीं कोई महत्व अथवा उल्लेख नहीं है; जबकि, परमेश्वर की नियुक्ति के जन, पौलुस का कार्य, उसके प्रभु में आते के साथ ही, प्रेरितों 9 अध्याय से ही आरंभ हो जाता है। और यहाँ से आरंभ करके 28 अध्यायों की यह शेष सारी प्रेरितों के काम नामक पुस्तक पौलुस के कार्यों के बारे में ही है; साथ ही नए नियम का लगभग दो तिहाई भाग पवित्र आत्मा ने पौलुस द्वारा लिखवाया है। 

परमेश्वर के वचन के अधिकांश विद्वानों और वचन की अधीनता में होकर मसीही सेवकाई में लगे लोगों का यही मानना है कि प्रेरितों का समय प्रभु के द्वारा नियुक्त किए गए उन प्रेरितों के साथ समाप्त हो चुका है, और फिर उनके बाद परमेश्वर ने न तो कोई नए प्रेरित नियुक्त किए, न ही उनकी नियुक्ति के लिए कभी शिष्यों को कोई निर्देश दिए हैं।प्रेरितशब्द के शब्दार्थ, “विशेष अधिकार के साथ नियुक्त किया हुआको तथा परमेश्वर के वचन के ज्ञान को अपने तर्क का आधार बनाकर परमेश्वर की मण्डली में अपना व्यक्तिगत स्तर बनाने और उनमें कोई विशिष्ट अधिकार का स्थान दिखाने वाले, तथा लोगों में अपने नाम और प्रचार द्वारा महत्व और प्रशंसा के पात्र होने की लालसा रखने वाले, सेवकाई के इस पवित्र आत्मा के वरदान का उपाधि और पदवी के समान प्रयोग तो कर सकते हैं। हो सकता है कि उनका प्रचार और व्यवहार बहुत आकर्षक, सही, और प्रभावी, तथा वचन के अनुसार लगे - पतरस का प्रचार और वचन का प्रयोग भी सभी को ऐसा ही प्रभावी और सही लगा था; किन्तु उनकी वास्तविकता प्रभु के वचन के अनुसार उनका आँकलन और जाँच करने से, उनके प्रचार के विषयों और उनकी शिक्षाओं द्वारा लोगों के जीवन में आने वाले पवित्र आत्मा के फलों के विद्यमान होने से, लोगों के अन्दर परमेश्वर और उसके वचन के प्रति आज्ञाकारी होने की भावना जागृत होने से प्रकट हो जाती है; लोगों के सांसारिक या नश्वर बातों के लाभ प्राप्त करने से नहीं। 

यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो यह अति आवश्यक है कि आप वो करें जो प्रभु ने करने के लिए कहा है; और उसे वैसे करें जैसे प्रभु ने बताया है। हम प्रभु को सिखाने वाले, अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए उसके नाम और वचन का दुरुपयोग करने वाले न बनें। वचन के हवाले, और आकर्षक शब्दों की प्रार्थनाओं का सहारा लेकर हम लोगों को भरमा सकते हैं, परमेश्वर को नहीं, और न ही परमेश्वर को किसी रीति से किसी बात के लिए बाध्य कर सकते हैं। अंततः होगा वही जो परमेश्वर चाहता है, और जैसा परमेश्वर चाहता है।  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • आमोस 7-9    
  • प्रकाशितवाक्य 8