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सोमवार, 25 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 121 – Recapitulation / संक्षिप्त पुनःअवलोकन – 3

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पुनःअवलोकन – 3

 

    राजा दाऊद ने, 1 राजाओं 2:2-4 में अपने युवा और अनुभवहीन पुत्र, सुलैमान को, जिसे हाल ही में इस्राएल का राजा बनाया गया है, परमेश्वर की आज्ञाकारिता और मार्गदर्शन में एक सफल और आशीषित जीवन जीने के लिए निर्देश दिए हैं। यह मसीही विश्वासियों के लिए भी है, जिन्होंने मसीह के संगी वारिस (रोमियों 8:17) और परमेश्वर की सन्तान के रूप में (यूहन्ना 1:12-13), परमेश्वर के राज्य में नया जन्म पाया है। इन तीन पदों में चार निर्देश दिए गए हैं, जो तब सुलैमान के लिए थे, और आज हमारे लिए हैं। पहला निर्देश है कि पुरुषार्थ कर और दृढ़ निश्चय तथा कठिन परिश्रम के साथ परमेश्वर की सेवा कर। दूसरा निर्देश है कि परमेश्वर का एक भला अर्थात योग्य भण्डारी बन। पिछले लेख में हमने पुनःअवलोकन किया था कि उद्धार एवं मसीही जीवन जीने के लिए परमेश्वर के प्रावधानों को प्राप्त करने के साथ ही उन प्रावधानों का भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी भी मिल जाती है; और साथ ही यह भी देखा था कि लोग किन कारणों से भले भण्डारी नहीं बनने पाते हैं। हमने यह भी देखा है कि परमेश्वर ने अपनी प्रत्येक सन्तान, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को न केवल उद्धार दिया है, वरन साथ ही कम से कम चार और भी बातें दी हैं; ये चार बातें हैं:

  • उसका वचन

  • उसका पवित्र आत्मा

  • उसकी कलीसिया तथा उसकी अन्य संतानों की संगति

  • सेवकाई के लिए पवित्र आत्मा का कोई न कोई वरदान

    आज हम भण्डारी होने के बारे में इस पुनःअवलोकन को ज़ारी रखेंगे, और हमने जो परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने के बारे में सीखा है, उसे देखेंगे।

2a. परमेश्वर ने जो कुछ प्रदान किया है, उसके योग्य भण्डारी बनो:

    बाइबल, जो हमारे हाथों में दिया गया परमेश्वर का लिखित वचन है, वही वचन है जो देहधारी हुआ, और जिसने प्रभु यीशु के रूप में हमारे बीच में डेरा किया (यूहन्ना 1:1-2, 14)। परमेश्वर का वचन सम्पूर्ण, सिद्ध, अचूक, त्रुटि रहित, और स्वर्ग में अनन्तकाल के लिए स्थापित है (भजन 119:89, 160)। उस में कभी भी कुछ भी नहीं जोड़ा जाएगा, और न ही कभी उस में से कुछ निकाला जाएगा, किसी के भी द्वारा नहीं; उसे कभी न तो सुधारा जा सकता है न ही और बेहतर बनाया जा सकता है। जैसा हम आगे देखेंगे, परमेश्वर पवित्र आत्मा भी, जिसकी प्रेरणा और मार्गदर्शन में बाइबल लिखी गई है, वह भी कभी भी न तो उसमें कुछ जोड़ता है और न उसमें से कुछ घटाता है, वरन उसने जो और जैसा लिखवा दिया है उसे वैसा ही उपयोग करता और करवाता है। इसीलिए बाइबल में यह निर्देश दिया गया है कि उसमें जो लिख दिया गया है, उस में न तो कभी कुछ जोड़ें और न ही उसमें से कभी कुछ निकालें, अन्यथा गंभीर परिणाम भोगने पड़ेंगे (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। इसलिए मसीही विश्वासियों को हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग न करें, उसकी कोई गलत व्याख्या न करें, उसमें न तो कुछ जोड़ें और न ही कुछ घटाएं, किसी भी कारणवश।

    एक और बात जिसका ध्यान रखना चाहिए वह है, उसे आकर्षक बनाने के लिए, या किसी विशेष विचार अथवा धारणा के साथ सहमत दिखाने के लिए, बाइबल के प्रचारकों और शिक्षकों को ऐसा कुछ भी नहीं कहना और सिखाना चाहिए जो बाइबल के लेख में वास्तव में नहीं दिया गया है। जैसा पौलुस कहता है, उन्हें कभी भी लिखित वचन से आगे नहीं बढ़ना चाहिए (1 कुरिन्थियों 4:6)। शैतान अपना यथासंभव प्रयास करता है कि परमेश्वर के वचन में मिलावट हो जाए, क्योंकि वह जानता है कि जब भी परमेश्वर के वचन में मानवीय बुद्धि और ज्ञान के विचारों की बातों की मिलावट होगी, वचन अप्रभावी हो जाएगा (1 कुरिन्थियों 1:17)। इसलिए शैतान यह कार्य जानबूझकर कैसे न कैसे करवाने का प्रयास करता रहता है, या तो उसके द्वारा फैलाए गए उसके दूतों के द्वारा (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15); या  फिर परमेश्वर के समर्पित विश्वासियों के द्वारा, जिन्हें बहका और भरमा कर, जिनका दुरुपयोग करने के द्वारा वह अपनी गलत शिक्षाएँ वचन में मिला देता है, फैला देता है। शैतान विश्वासियों को यह भरोसा दिला देता है कि जो वे मान रहे हैं, कह रहे हैं, सिखा रहे हैं वह परमेश्वर का सही वचन है; किन्तु उन्हें वचन की गलत व्याख्या, गलत व्यवहारिक उपयोग, और गलत समझ में डाल देता है; उनकी बात बाइबल से तो हो सकती है, किन्तु बाइबल के अनुसार सही नहीं होती है।

    हम यह कैसे समझ और पहचान सकते हैं कि जो प्रचार किया और सिखाया जा रहा है, वह बाइबल के अनुसार सही है? सबसे पहले तो इस धारणा से बाहर निकलना होगा कि जिस प्रचारक और शिक्षक की एक साख, एक प्रसिद्धि है, जिसका बहुत मान है, जिसके बहुत अनुयायी हैं, वह कभी गलत नहीं हो सकता है, और उसकी हर बात पर अँध-विश्वास किया जा सकता है। दूसरे, दी जा रही शिक्षा को जाँचना और देखना चाहिए कि कहीं वह किसी प्रकार से लिखे हुए वचन से आगे बढ़ा कर कही गई बात तो नहीं है? क्या उस बात के अर्थ, अभिप्राय, और उपयोग बाइबल में भी वैसे ही हैं, जैसे कि प्रचारक और शिक्षक बता एवं सिखा रहा है, क्या बाइबल में वे अर्थ, अभिप्राय, उपयोग सिखाए गए हैं कि नहीं; या कहीं वह प्रचारक कुछ बाइबल से भिन्न बात तो नहीं सिखा रहा है? और तीसरा यह देखना चाहिए कि उन अर्थ, अभिप्राय, और उपयोग के साथ वह बात बाइबल में भी उपयोग की गई है कि नहीं, कोई वैसा उदाहरण है कि नहीं, या वह शिक्षा बाइबल से बाहर की बात है? जिस भी शिक्षा में ये बातें नहीं हैं, वह बाइबल के अनुसार सही नहीं है, और उसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए; चाहे उसका प्रचार करने और सिखाने वाला कोई भी क्यों न हो।

    हम अगले लेख में इस पुनःअवलोकन को ज़ारी रखते हुए बाइबल से कुछ उदाहरण देखेंगे जहाँ लोग अपने आप को परमेश्वर के प्रति ईमानदार और श्रद्धापूर्ण समझ कर बात कर रहे थे, किन्तु वास्तव में परमेश्वर के विमुख थे; और शैतान द्वारा भी वचन के दुरुपयोग का एक ऐसा उदाहरण देखेंगे जिसे वह आज भी मसीही विश्वासियों के द्वारा करवाता रहता है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 
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English Translation

Recapitulation – 3

 

    King David, in 1 Kings 2:2-4 has instructed his young and inexperienced son Solomon, recently crowned as King of Israel, about how to lead a blessed and successful life, in obedience to God and under God’s guidance. This also applies to the Christian Believers, Born-Again into the Kingdom of God, as His children, as co-heirs with Christ (Romans 8:17). In these three verses, there are four instructions that were for Solomon then, and for us now. The first instruction is to be a man and strive resolutely to obey and serve God. The second instruction is to be a good or worthy steward of God. In the previous article we recapitulated about how the responsibility of being a steward comes as part of being saved and receiving God’s provisions for living a Christian life; and also saw what makes people poor stewards. We saw earlier that to every one of His children, the Born-Again Christian Believers, God has not only given salvation, but has also given at least four other things; these things are:

  • His Word

  • His Holy Spirit

  • His Church and Fellowship of His Children

  • Some Gift of the Holy Spirit for our ministry

Today we will continue recapitulating further about stewardship, and see what we had learnt about the Believer’s stewardship of God’s Word.

2a. Be a good Steward of God’s Word:

    The Bible, the written Word of God that we have in our hands, is the same Word that became flesh, and dwelt amongst us (John 1:1-2, 14) as the Lord Jesus. The Word of God is complete, perfect, infallible, inerrant, and forever settled in heaven (Psalm 119:89, 160). Nothing will ever be added to it, in any form, by anyone and nothing can be taken away from it; it cannot ever be modified or improved upon by anyone. As we will see subsequently, God the Holy Spirit, under whose inspiration and guidance the Bible has been written, He also neither adds not takes away anything from what He has had written, but uses it just as it is. Therefore, it has been instructed in the Bible not to add or take anything away from what already has been given in God’s Word; else there will be serious consequences (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). Therefore, Christian Believers must be careful to not misuse, misinterpret, and add or remove things to God’s Word in manner, for whatever reasons.

    Another thing to bear in mind is that to make it sound attractive, or suit a particular thought or idea Bible preachers and teachers should not make it appear to say things that the Bible does not actually say in its given text. As Paul says, they should make it a point to never ever to go beyond the written Word (1 Corinthians 4:6). Satan tries his utmost to make people adulterate God’s Word, since he knows that the Word of God when adulterated with things of human wisdom, loses its efficacy (1 Corinthians 1:17). Satan gets this done either deliberately through his planted agents (2 Corinthians 11:3, 13-15); or through misleading and misusing God’s committed Believers engaged in the ministry of God’s Word. Satan gets them to misunderstand, misinterpret, believe, preach, and teach things that may appear to be from God’s Word, but actually are not true from the Biblical sense.

    How can we discern and understand whether what is being preached and taught is Biblical or not? The first thing to do is to come out of the assumption that the preacher and teacher who is well-reputed, is well-known and famous, is highly acclaimed, has a large following, he can never be wrong, so whatever he says can be blindly believed upon and accepted as it is. Then, the teaching being given should be examined to see if it in any way is going beyond the written Word? Secondly, the meanings, implications, and practical uses of that teaching whether or not they have been taught in the Bible just the same as the preacher and teacher is saying; or is the preacher saying something different from what has been given in the Bible? And thirdly, it should be checked whether that teaching has been used in the Bible with the meanings, implications, and practical uses as is being preached and taught; i.e., are their any examples in the Bible of its use in the same way as is being preached and taught. Any teaching that does not fulfil these requirements is not Biblical, should not be accepted; no matter who it is who is preaching and teaching that thing.

    We will recapitulate about some Biblical examples of people believing themselves to be sincere and reverent towards God, but actually were contrary to God, in the next article; and we will also see an example of misuse of God’s Word by Satan, that he keeps getting done even today through Christian Believers.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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