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मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 108 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 37

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पवित्र आत्मा से सीखना – 17

 

    प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी में, उसके उद्धार पाने के क्षण से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर निवास करने लगता है। परमेश्वर ने उसे मसीही विश्वासी को दिया है कि उसे मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई में उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक हो। परमेश्वर के द्वारा दिए गए सँसाधन का भण्डारी होने के नाते, यह प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य है कि वह पवित्र आत्मा के बारे में सीखे, और साथ ही उस से परमेश्वर के वचन बाइबल को भी सीखे, ताकि योग्य रीति से उसकी सेवाओं और सामर्थ्य का अपने जीवन में उपयोग कर सके। पिछले कुछ लेखों में हम 1 पतरस 2:1-2 से देखते आ रहे हैं कि परमेश्वर के वचन को, मनुष्यों से सीखने की बजाए, परमेश्वर पवित्र आत्मा से कैसे सीखना है। मनुष्य से सीखने से परमेश्वर के लोग झूठी शिक्षाओं, गलत सिद्धांतों, और मनुष्यों के अपने विचारों तथा धारणाओं से गढ़ी हुए बातों को, परमेश्वर का सत्य समझ कर सीखने के खतरे में पड़ जाते हैं।

    हमने 1 पतरस 2:1-2 से यह भी देखा है कि पवित्र आत्मा से सीखने के लिए, विश्वासी को साँसारिक और शारीरिक व्यवहार को त्याग देना होगा, उसे पवित्र आत्मा से सीखने की वास्तविक, सच्ची इच्छा रखनी होगी, और अपने अंदर केवल परमेश्वर के वचन और शिक्षाओं के “निर्मल आत्मिक दूध” को ही प्राप्त करने की उत्कंठा रखनी होगी, बजाए परमेश्वर के सत्य के नाम पर कुछ भी मिलावटी बातें ग्रहण करने की प्रवृत्ति रखने के। जब विश्वासी के अन्दर यह वास्तविक लालसा होगी, वह परमेश्वर से माँगेगा कि वही उसे सिखाए, और मनुष्यों की बातों की बजाए पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में चलने का साहस रखने का निर्णय लेगा, तो उस में निवास करने वाला पवित्र आत्मा उसकी सहायता करेगा, उसका मार्गदर्शन करेगा, उसे सही और गलत, शुद्ध और मिलावटी में पहचान और भेद करने की योग्यता और क्षमता देगा। आज हम भजन 25 से सीखना आरंभ करेंगे कि परमेश्वर अपने लोगों को अपना वचन कैसे सिखाता है।

    पवित्र आत्मा के प्रभु के नया-जन्म पाए हुए विश्वासियों में रहने की प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने शिष्यों के साथ उनकी अंतिम चर्चा के दौरान की थी, उनके क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़े जाने से पहले। पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के दिनों में प्रभु ने उन्हें पवित्र आत्मा के बारे में सिखाया था; और इस अंतिम चर्चा में जो सिखाया था, वह हमारे लिए यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में लिखा गया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि पुराने नियम के समय के परमेश्वर के लोगों को परमेश्वर और उसके वचन के बारे में सीखने के लिए कोई ईश्वरीय सहायता उपलब्ध नहीं थी। परमेश्वर द्वारा अपने लोगों को पवित्र शास्त्र सिखाए जाने से संबंधित एक खण्ड दाऊद के द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में होकर लिखा गया एक भजन है। उनके लिए जो उसका वचन सीखना चाहते हैं, दाऊद में होकर परमेश्वर ने अपने वचन में कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें लिखवाई हैं, कि उन पर मनन किया जाए। ये बातें लोगों के मनों में परमेश्वर के वचन को सीखने से संबंधित बसी हुई कई गलत धारणाओं को नकार देती हैं, और कई उन गलतफहमियों को दूर कर देती हैं जिन्हें शैतान परमेश्वर का वचन सीखने के संदर्भ में लोगों में फैलाता रहता है।

    भजन 25 में ये जिस क्रम में लिखे गए हैं, उसके अनुसार, ये संबंधित पद हैं:

  • पद 8: “यहोवा भला और सीधा है; इसलिये वह पापियों को अपना मार्ग दिखलाएगा।” परमेश्वर पक्षपात नहीं करता है; यदि वे सच्चे मन से उस से सीखना चाहें, तो परमेश्वर पापियों को भी अपने मार्ग दिखाता है। दाऊद ने जिस समय यह भजन लिखा था, उस समय प्रभु यीशु में विश्वास के द्वारा उद्धार पाने के बारे में कोई नहीं जानता था; इसलिए, इस खण्ड पर विचार करते समय, परमेश्वर के उन लोगों में “उद्धार पाए हुए” और “उद्धार नहीं पाए हुए” होने के बारे में सोचना पूर्णतः असंगत है। यद्यपि कोई भी “निष्पाप” और “परिशुद्ध” नहीं हो सकता था, किन्तु साधारण विचार यही था कि परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी होने के लिए, उसका आज्ञाकारी होना चाहिए। शैतान द्वारा लोगों को बहकाए जाने का एक तरीका है उन के अन्दर यह विचार डालना कि वे परमेश्वर और उसके वचन के निकट आने, तथा उसके वचन को सीखने के लायक धर्मी और भले नहीं हैं; और वचन को सीखने के लिए पर्याप्त धर्मी और भला होना आवश्यक है। किन्तु यह पद इन सभी विचारों, धारणाओं, और तर्क की व्यर्थता को दिखाता है। क्योंकि हमारे हृदयों में बोया गया वचन हमें उद्धार पाने तक लेकर जाता है (रोमियों 10:8-10; 1 कुरिन्थियों 15:2; इफिसियों 1:13; याकूब 1:21), तो फिर परमेश्वर उसे पापियों से रोक के क्यों रखेगा और उन्हें उसके पास आने तथा उद्धार पाने से वंचित क्यों करे रहेगा? जब विश्वासी सुसमाचार प्रचार करते हैं, तब क्या वे परमेश्वर के वचन को पापियों और “उद्धार नहीं पाए हुए” लोगों के हृदय में नहीं बो रहे होते हैं?

  • पद 9: “वह नम्र लोगों को न्याय की शिक्षा देगा, हां वह नम्र लोगों को अपना मार्ग दिखलाएगा।” सम्पूर्ण बाइबल में नम्रता ऐसा सदगुण है जिसकी बहुत सराहना की गई है और उसे परमेश्वर के लोगों का एक गुण बताया गया है। परमेश्वर नम्रता की बहुत कद्र करता है तथा उसे इनाम देता है (याकूब 4:6, 10; 1 पतरस 5:5-6); और यह पद हमें बताता है कि जो उसकी दृष्टि में नम्र होते हैं, परमेश्वर उन्हें अपने मार्ग दिखाता है। साँसारिक एवं शारीरिक व्यवहार के चिह्न 1 कुरिन्थियों 3:3 में दिए गए हैं, और ये वे बाते हैं जिन्हें, जैसा हमने हाल ही में 1 पतरस 2:1 से देखा है, परमेश्वर के लोगों को पहले छोड़ना होगा, तब ही वे परमेश्वर का वचन सीखने पाएँगे। ये सभी घमण्ड, अर्थात नम्रता न होने के चिह्न अथवा परिणाम हैं। परमेश्वर को घमण्ड से घृणा है, और वह उसके साथ किसी भी रीति से कोई संपर्क नहीं रखता है। इसलिए जो भी परमेश्वर से उसका वचन सीखना चाहता है, पहले उसे परमेश्वर की दृष्टि में नम्र होना सीखना पड़ेगा, उसके बाद ही वह उस से कुछ सीखने की आशा रख सकता है।

    हम अगले लेख में यहाँ से आगे देखेंगे, और इस भजन से कुछ अन्य तरीकों को देखेंगे जिनके द्वारा परमेश्वर अपने लोगों को सिखाता है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 17

 

    In every Born-Again Christian Believer, God the Holy Spirit resides since the moment of his salvation. He has been given by God to him to be his Helper, Companion, Teacher, and Guide, for living his Christian life and fulfilling his God assigned ministry. As a steward of God given provision, it is incumbent upon every Believer to learn about the Holy Spirit, as well as to learn God’s Word the Bible from Him, to worthily utilize His services and strength in their lives. Over the past few articles, we have been learning about learning God’s Word from the Holy Spirit, instead of learning from man. Learning from man renders God’s people prone to learning false teachings, wrong doctrines, and various personal thoughts and opinions of man in the name of God’s truth.

    We have also seen from 1 Peter 2:1-2 that to learn from the Holy Spirit, the Believer needs to separate out from worldly and carnal behavior, has to sincerely desire learning from the Holy Spirit, and must have a craving for only the “pure milk of the Word of God” and its teachings, instead of being willing to accept any adulterated teachings dispensed as God’s truth to him. When the Believer has this sincere longing in him, asks God for teaching him, and is willing to take the bold step of following the guidance of the Holy Spirit in preference to following men and their teachings, the Holy Spirit residing in him helps and guides him, gives him the discernment and ability to recognize the true from the false, the pure from the impure. Today we will begin to learn from Psalm 25 about God’s teaching His Word to His people.

    The promise of the Holy Spirit being with the Born-Again Believers was made by the Lord Jesus to His disciples in His last discourse with them, before His being taken for crucifixion. The Lord had taught them about the Holy Spirit during His earthly ministry; and what he taught in this final discourse has been recorded for us in John chapters 14 to 16. But this does not mean that God’s people in the Old Testament times did not have the benefit of divine help and guidance for learning about God and His Word. One of the sections of the Scriptures that deals with God’s teaching His people is a psalm written by David under the guidance of the Holy Spirit. Through David, God has had recorded in His Word some very important things for everyone who wants to learn His Word, to ponder over. These things negate many misconceptions that people have about learning God’s Word, and do away with many misunderstandings that Satan has deviously been propagating about learning God’s Word.

    In the order they have been written, the relevant verses from Psalm 25 are:

  • Verse 8: “Good and upright is the Lord; Therefore, He teaches sinners in the way." God does not discriminate; he teaches even the sinners, if they sincerely want to learn from Him. When David wrote this Psalm, there was no concept of salvation by faith in the Lord Jesus amongst God’s people; therefore, it is irrelevant to think in terms of “saved” and “not saved” when considering this passage. Though no one could be ‘sinless’ and ‘pure’ but the general idea was to be obedient to God’s Word to be righteous in His eyes. One of the ways in which Satan misleads people is to put it in them that they are not righteous or good enough to approach God, or His Word, or to learn God’s Word; and that one can only learn God’s Word after becoming sufficiently righteous or good. But this verse shows the fallacy of all such teachings. Since it is God’s Word implanted in our hearts that leads us to salvation (Romans 10:8-10; 1 Corinthians 15:2; Ephesians 1:13; James 1:21), why will God withhold it from sinners and deny them the opportunity to draw near to Him to be saved? When Believers preach the gospel, are they not sowing God’s Word to the sinners and the ‘not-saved’ people?

  • Verse 9: “The humble He guides in justice, And the humble He teaches His way.” Throughout the Bible, humility is a virtue that has been greatly praised, and is considered a characteristic of God’s people. God greatly cares for, and rewards humility (James 4:6, 10; 1 Peter 5:5-6); and this verse tells us that those who are humble in His sight, He teaches them His ways. The signs of worldliness and carnality given in 1 Corinthians 3:3, things which, as we have recently seen from 1 Peter 2:1, God’s people must give up before learning God’s Word। They are all manifestations or consequences of pride, i.e., due to lack of humility. God hates pride, does not in anyway associate with it. Therefore, anyone wanting to learn God’s Word must learn to be humble – in God’s eyes, before expecting to learn anything from God.

    We will carry on from here in the next article, and see some other ways in which God teaches His people, from this Psalm.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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