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पवित्र आत्मा, पवित्र आत्मा के वरदान, वरदानों का उपयोग का भण्डारी होना – उपसंहार
भण्डारी होने की इस श्रृंखला में, हम अध्ययन कर रहे थे कि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान की गई हर एक बात का भण्डारी है और उसके लिए परमेश्वर को जवाबदेह है। हमने भण्डारी होने के इस अध्ययन का आरम्भ भण्डारीपन से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों को सीखने के साथ किया था, और फिर उन चार बातों के भण्डारी होने पर आए थे जो परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी को प्रदान की हैं। परमेश्वर द्वारा दी गई ये चार बातें हैं, उसका वचन, उसका पवित्र आत्मा, उसकी कलीसिया का अंग होना तथा अन्य मसीही विश्वासियों के साथ सहभागिता रखना, और पवित्र आत्मा द्वारा दिया गया कोई न कोई वरदान। इन चार विषयों से सम्बन्धित मसीही विश्वासी के भण्डारीपन का अध्ययन करते हुए हमने इन से सम्बन्धित कई व्यावहारिक महत्व की बातों के बारे विचार किया है; ये ऐसी बातें हैं जिन पर बहुधा कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है और न ही कलीसियाओं में इनके बारे में सिखाया जाता है। किन्तु इनके बारे में जो गलत धारणाएं और गलत शिक्षाएँ प्रचलित हैं, वे मसीहियत में, और मसीहियत के बारे में बहुत सी समस्याओं का प्रमुख कारण हैं। यह अध्ययन करते हुए हमने यह भी देखा है कि कैसे बाइबल के प्रत्येक पद, या वाक्यांश, या शब्द का अध्ययन हमेशा उसके संदर्भ में ही करना चाहिए, और साथ ही सदा ही उस से सम्बन्धित बाइबल के अन्य खण्डों का भी ध्यान रखना चाहिए, तब ही हम परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या करने और वचन में विरोधाभास न होते हुए भी उन्हें उत्पन्न करने से बचे रह सकते हैं।
पिछले कुछ समय से हम मसीही विश्वासी के जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका, उनके द्वारा दिए गए वरदानों के, और उन वरदानों के उपयोग, तथा पवित्र आत्मा तथा आत्मिक वरदानों के साथ जुड़ी अनेकों भ्रांतियों के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल से देखते आ रहे हैं, और सीखते आ रहे हैं कि उन गलत शिक्षाओं की तुलना में वचन में दी गई सही बातें क्या हैं, वचन की उन बातों के सही अभिप्राय क्या हैं, और कैसे उन बातों को उनके संदर्भ, तात्कालिक पाठक या श्रोताओं के लिए अर्थ, प्रयोग किए गए शब्दों के मूल भाषा के शब्दार्थ, और वचन में उन से संबंधित अन्य शिक्षाओं एवं बातों के साथ मिलाकर, परमेश्वर पवित्र आत्मा के अगुवाई में किए गए अध्ययन से ये गलत शिक्षाएं पहचानी जा सकती हैं, और इनसे बचा जा सकता है, बाहर निकला जा सकता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को, उनके जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका और कार्य के बारे में कुछ बहुत महत्वपूर्ण शिक्षाएं यूहन्ना 14 और 16 अध्याय में दी हैं। मसीही विश्वासी के जीवन और सेवकाई में पवित्र आत्मा और आत्मिक वरदानों के संदर्भ में प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए इन शिक्षाओं को जानना और समझना, और फिर इनके अनुसार लोगों द्वारा दी जा रही शिक्षाओं का आँकलन करना बहुत आवश्यक है, क्योंकि ये शिक्षाएं प्रभु ने इसी उद्देश्य से अपने शिष्यों को दी थीं।
प्रभु यीशु ने शिष्यों से कहा, “मैं अब से तुम्हारे साथ और बहुत बातें न करूंगा, क्योंकि इस संसार का सरदार आता है, और मुझ में उसका कुछ नहीं” (यूहन्ना 14:30)। प्रभु जानता था कि उनके स्वर्गारोहण के पश्चात, शैतान उनके कार्य को बिगाड़ने और शिष्यों द्वारा सुसमाचार की सेवकाई को बाधित या निष्फल करने के लिए उन शिष्यों पर और उनकी सेवकाई पर हमला करेगा। क्योंकि शैतान एक बहुत प्रबल शत्रु है, और वह अपनी अनेकों युक्तियों तथा धार्मिक लगने और सही प्रतीत होने वाली बातों एवं व्यवहार के द्वारा प्रभु के शिष्यों और सेवकाई के कार्यों में बाधा डालेगा (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15), इसी लिए शिष्यों की सहायता के लिए प्रभु ने अपने पवित्र आत्मा को उनमें और उनके साथ रहने के लिए भेजा। हम देख चुके हैं कि जैसे ही कोई व्यक्ति पापों से पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा माँगता है, प्रभु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करता है और अपना जीवन उसे समर्पित कर देता है, उसी पल से तुरंत ही परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके जीवन में आकर, उसके मसीही जीवन और सेवकाई में उसका सहायक और मार्गदर्शक होने के लिए, उसके अन्दर सर्वदा के लिए निवास करने लगता है (यूहन्ना 14:16-17; 1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19)। साथ ही परमेश्वर पिता ने प्रत्येक मसीही विश्वासी के करने के लिए कोई न कोई भले कार्य पहले से निर्धारित किए हैं (इफिसियों 2:10)। परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो भी सेवकाई उस व्यक्ति के लिए निर्धारित की हुई है, उसे भली-भांति निभाने के लिए उस व्यक्ति को उपयुक्त आत्मिक वरदान भी प्रदान करता है, तथा उन वरदानों का उपयोग करना सिखाता है। प्रभु यीशु के विश्वासी की आशीष और आत्मिक जीवन में उन्नति, उसके द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को ठीक से करने में ही है; इसी उद्देश्य से परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके अन्दर रहता है, उसकी सहायता करता है।
परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी सम्पूर्णता में तथा अपनी पूर्ण सामर्थ्य के साथ प्रत्येक मसीही विश्वासी में उसके उद्धार पाने और परमेश्वर की सन्तान बन जाने (यूहन्ना 1:12-13) के क्षण से ही विद्यमान है। किन्तु जब तक वह विश्वासी पवित्र आत्मा के कहे के अनुसार न करे, उसके चलाए न चले (गलातियों 5:16, 18, 26), तो फिर उसके जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति और सामर्थ्य कैसे प्रकट होगी? अदन की वाटिका में पहला पाप करवाने के लिए शैतान ने अपनी जिस युक्ति का प्रयोग किया था, उसे ही आज भी वह उतनी ही कारगर रीति से प्रयोग करता है। उसकी यह युक्ति है व्यक्ति के मन और विचारों को किसी ऐसी बात की ओर ले जाना जो परमेश्वर ने उसे नहीं दी है, उसे भरमाना कि कैसे परमेश्वर ने उसे, उसके लिए लाभकारी प्रतीत होने वाली किसी बात से वंचित रखा है, किन्तु फिर भी वह कितनी सरलता से उसे प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार से परमेश्वर के वचन पर संदेह उत्पन्न करके, उसके विरुद्ध मन में प्रश्न उठाकर, शैतान मनुष्य को अपनी दृष्टि और समझ के अनुसार अच्छी, लुभावनी, और मन-भावनी प्रतीत होने वाली बात को ही सही मानने, और परमेश्वर के वचन के विरुद्ध, अपनी दृष्टि और समझ में सही बात का पालन करने में डालकर परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवा देता है। इसी युक्ति के अन्तर्गत शैतान ने परमेश्वर पवित्र आत्मा, उनके कार्य, और उनके द्वारा दिए जाने वाले आत्मिक वरदानों के बारे में बहुत सी गलत शिक्षाएं बहुत सी धार्मिक और लुभावनी लगने वाली बातें, मसीही या ईसाई कहलाए जाने वाले लोगों में फैला रखी हैं, यहाँ तक कि अनेकों वास्तविक मसीही विश्वासियों को भी उन बातों के भ्रम में फंसा रखा है। बाइबल से असंगत ये बातें और शिक्षाएँ ऊपरी तौर से और पहली नजर में बहुत धार्मिक, भक्ति और श्रद्धापूर्ण, आकर्षक, और लाभकारी प्रतीत होती हैं; किन्तु जब व्यक्ति उन्हें गहराई से जाँचता है, तब उनके घातक और विनाशकारी तात्पर्य एवं प्रभाव पता लगते हैं।
जब तक मसीही विश्वासी उन गलत शिक्षाओं से बाहर आकर परमेश्वर पवित्र आत्मा की सहायता से वचन की सच्चाई और खराई को समझकर, उसका पालन करना आरंभ नहीं करेगा, वह शैतान द्वारा खड़े किए गए एक काल्पनिक “मसीही” विश्वास तथा गढ़ी हुई धार्मिकता की चकाचौंध, आकर्षण, शारीरिक उन्माद और लुभावने अनुभव उत्पन्न करने वाली बातों में, तथा उसके अनुसार किए गए कार्यों के धोखे में फंसा रहेगा, जो चाहे शरीर को संतुष्टि प्रदान कर दें, किन्तु कोई भी आत्मिक लाभ या आत्मा के फल उत्पन्न नहीं करती हैं। अन्ततः जब ऐसे “मसीही विश्वासियों” की आँख खुलेगी, और वे सच्चाई को जानेंगे, पहचानेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, और उन पाँच मूर्ख कुँवारियों के समान उनके वापस परमेश्वर के पास लौटने के द्वारा हमेशा के लिए बंद हो चुके होंगे। एक बहुत साधारण और सीधी सी बात है, जो कुछ वचन में दिया गया नहीं है, वचन के अनुसार नहीं है, जो कुछ भी वचन के बाहर से है, जो कुछ भी वचन में जोड़ कर या उसमें से घटा कर बताया और सिखाया जा रहा है, वह सत्य नहीं है, शैतान की ओर से है, और कदापि उसका पालन नहीं करना है - वह चाहे मानवीय बुद्धि और तर्क के अनुसार कितना भी ठीक, आकर्षक, धार्मिक, और उचित क्यों न लगे; चाहे कितने भी और कैसे भी लोग उसके पक्ष में क्यों न बोलें – जो भी परमेश्वर के वचन में नहीं है, वह परमेश्वर की ओर से नहीं है।
अगले लेख में हम एक नए विषय, 1 राजाओं 2:2-4 की सूची में से तीसरे, हमेशा परमेश्वर के वचन में लिखी हुई हर बात का आज्ञाकारी रहना (1 राजाओं 2:3b) पर विचार करेंगे।
आप एक मसीही विश्वासी हैं तो अभी समय रहते 2 कुरिन्थियों 13:5 के अनुसार अपने आप को जाँच कर देख लें कि आप सही विश्वास में हैं कि नहीं। परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा, परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार चलाए ही चलें, अन्य हर बात से बाहर हो जाएं। चाहे ऐसा करने के लिए कैसी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े, क्योंकि आज की थोड़ी सी हानि, कल की अनन्त आशीष और भलाई बन जाएगी। किन्तु यदि आप सच्चाई के लिए आज यह थोड़ी सी हानि उठाने, यह कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं होंगे, तो कल यह आपके लिए अनन्त हानि और पीड़ा का कारण बन जाएगी। इसलिए सही निर्णय लेकर, और उसके अनुसार उचित कार्य कर लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Stewardship of the Holy Spirit, His Gifts, & their Utilization – Conclusion
In this series on stewardship, we have been studying about every Born-Again Christian Believer being a steward of everything that God has given him, and being accountable to God for them all. We had started off this study on stewardship by studying various aspects of being a steward, and then come to discussing the four things that God has given to each and every Believer, namely, His Word, His Holy Spirit, membership of His Church and Fellowship with other Christian Believers, and Some Gift of the Holy Spirit. While considering the Believer’s stewardship of these four topics, we have considered many things of practical importance related to them; and some of these things are often not paid attention to, or not taught in the Churches, but misconceptions and wrong teachings about them are a major cause of problems in and about Christianity. While doing so, we have also seen how to always study each verse or phrase or word in its context, and to always also keep in mind the other related Bible passages to avoid misinterpretation and creating contradictions in God’s Word, where none exists.
For the past some time we have been studying the stewardship of God the Holy Spirit in the life and ministry of a Born-Again Christian Believer, about the Spiritual gifts given by the Holy Spirt, and about utilizing those gifts through Him. We have also examined from God’s Word the Bible many false teachings and wrong doctrines commonly preached and taught about God the Holy Spirit, His role and working, and His gifts to the Believers. We saw from the Bible what the actual teachings are, when seen and examined properly, what their implications are and what they actually mean, and how when through the guidance and wisdom of the Holy Spirit the misinterpreted and misused verses and their related teachings are seen in their actual context and along with the meanings of the words used in the original language that they were written in, their actual meaning becomes clear, their misinterpretation and misuse can be identified, and we can come out of the false teachings and wrong doctrines preached about them. The Lord Jesus during His life and ministry on earth, taught His disciples about the Holy Spirit and His role, as we see in John chapters 14 and 16. It is essential for every Christian Believer to not only learn and understand the role of God the Holy Spirit and His Spiritual gifts in his own life and ministry, but to also teach them to others, to keep others safe from false teachings and wrong doctrines, because that is why the Lord Jesus gave the teachings to His disciples.
The Lord Jesus said to His disciples, “I will no longer talk much with you, for the ruler of this world is coming, and he has nothing in Me” (John 14:30). The Lord knew that after His ascension to heaven, Satan will attack to corrupt and spoil His work, and to obstruct the gospel ministry of His disciples, to render it ineffective and infructuous. Since Satan is a very powerful enemy, and will attack through many devious devices, bring in many seemingly correct, religious, pious, reverential, but actually corrupted, misinterpreted and beguiling teachings from God’s Word (2 Corinthians 11:3, 13-15), therefore to help and guide the disciples in the right way and correct understanding, the Lord sent His Holy Spirit to live in them and be with them at all times. We have seen that the moment a person repents of his sins, asks forgiveness for them from the Lord Jesus, accepts the Lord Jesus as his savior, and surrenders his life to Him to live in obedience to His Word, from that very moment, God the Holy Spirit comes into his life and starts residing in him; to always be with him, to be his guide and helper in his Christian life and ministry (John 14:16-17; 1 Corinthians 3:16; 6:19). For every Born-Again child of God, God has determined some work(s) beforehand (Ephesians 2:10); and God the Holy Spirit gives the Christian Believers the appropriate Spiritual gifts to properly and worthily fulfil the God given work, and also teaches how to utilize those gifts. The blessings and growth in spiritual life of every Christian Believer are through worthily fulfilling his God assigned responsibilities; and God the Holy Spirit resides in him to help him in this.
God the Holy Spirit in His full form and strength is present in every Christian Believer from the moment he is saved and becomes a child of God (John 1:12-13). But unless and until a Christian Believer does as the Holy Spirit tells him to do, is submitted and obedient to Him (Galatians 5:16, 18, 26), how can the Holy Spirit work in his life, manifest His power through him? The trick Satan played in the Garden of Eden to have the first sin committed, he still uses it just as readily and effectively, as then. This trick of his is to deviate a person’s mind and thoughts into what God has not given him, how God has held back something seemingly good and beneficial from him and how easily he can acquire it. Thereby Satan creates doubts in man’s heart about God and His Word, gets man to trust in his own ability to think and understand about things; makes those things appear good, attractive, desirable, and necessary; and entices him to disobey God, sin against God. Using this same devious device, Satan has spread many false teachings and wrong doctrines about God the Holy Spirit, His role and work, His spiritual gifts amongst “Christians” and “Believers” and has even deceived many actual Christian Believers. These unBiblical Satanic teachings appear to be very religious, reverential, pious, attractive and beneficial externally and initially. But as one examines them in their depth, their damning and deadly implications and effects become apparent.
Unless and until the Christian Believers come out of these wrong teachings, and learn to study and understand God’s Word through the guidance of the Holy Spirit, and start obeying Him, instead of following and obeying the contrived denominational and sectarian doctrines and teachings, he will remain caught-up and fallen in a make-believe, a false “Christian” religion and belief and its seemingly reverential appearance, attractiveness, physical frenzy, its enticing and blinding dazzle, that may gratify the body, but produce no spiritual benefits or fruits of the Spirit. Eventually, when the eyes of such beguiled “Christian Believers” actually open and they get to see the truth, it will be too late for them; like the five foolish virgins, the doors to return to the Lord would have been closed forever for them. There is a very simple and straightforward principle for examining and assessing spiritual things - anything not given in God’s Word the Bible, anything that is not consistent with the Biblical teachings, anything that is extraneous to what is written in the Bible, anything that is being taught by adding to or taking away from the teachings of the Bible – none of it is from God and is not to be followed or trusted - no matter how persuasive, logical, correct, attractive, religious, pious, and appropriate it may appear, and no matter how many people, of whatever status and importance may speak in its favor - anything not in the Word of God is not from God!
If you are a Christian Believer, then while you still have the time and opportunity, in accordance with 2 Corinthians 13:5, examine yourself and see if you are in the correct Christian Faith; or whether you are following some contrived teachings of men. Only follow the Biblical teachings under the leading and guidance of the Holy Spirit, get out of everything else; no matter what price you may have to pay for it. Because a small loss, in any form or manner, suffered today, will bring indescribable and manifold eternal blessings and benefits. But if you are not ready to suffer this small loss today, then it can become a cause for eternal damnation and torment for you tomorrow. Therefore, take the right decision and accordingly take the right steps for your life.
In the next article we will consider a new topic, the third in our list from 1 Kings 2:2-4, i.e., To be obedient to the Word of God, in all things written in it. (1Ki 2:3b).
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.