पवित्र आत्मा – हमारा सहायक – 1
हमने पिछले लेख से परमेश्वर पवित्र आत्मा के योग्य भण्डारी होने के बारे में देखना आरम्भ किया है। हमने देखा था कि हम जिस पल प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं, और अपना जीवन उसे समर्पित कर देते हैं, अर्थात, जिस पल से हम “नया-जन्म” प्राप्त करते हैं, उसी पल से परमेश्वर उसे हमें दे देता है। पवित्र आत्मा के बारे में चर्चा हमें यूहन्ना रचित सुसमाचार के 14 से 16 अध्याय में मिलती है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से यह वायदा किया था कि प्रभु के सँसार से जाने के बाद पवित्र आत्मा आ कर प्रभु के शिष्यों के साथ रहेगा। पिछले लेख में हमने पवित्र आत्मा के प्रभु यीशु के शिष्यों को दिए जाने के उद्देश्यों को बहुत संक्षेप में देखा था। आज से हम यूहन्ना रचित सुसमाचार के इन अध्यायों में से, इन उद्देश्यों को उसी क्रम में देखेंगे, जिस में वे वहाँ पर दिए गए हैं। इस से हमें सीखने और एहसास करने में सहायता मिलेगी कि हम हमारे जीवनों में उसकी उपस्थिति को किस तरह से उपयोग कर सकते हैं, अपनी सेवकाई, अपने लाभ, और परमेश्वर को महिमा प्रदान करने; अर्थात, परमेश्वर पवित्र आत्मा के योग्य भण्डारी होने के लिए।
यूहन्ना 14:16 में प्रभु शिष्यों के लिए पवित्र आत्मा के दो उद्देश्यों को बताता है: (a) वह हमारा एक और सहायक होगा, और (b) वह सर्वदा हमारे साथ रहेगा। आज से हम पहले उद्देश्य – पवित्र आत्मा के हमारा सहायक या साथी होने के बारे में देखेंगे। यहाँ पर जिस शब्द का अनुवाद “सहायक” किया गया है, मूल यूनानी भाषा का वह शब्द है “पैराक्लीटोस”, अर्थात वह जो हमेशा हमारे साथ बना रहता है – हमारा साथी। अर्थात, परमेश्वर पवित्र आत्मा हमेशा हमारे साथ होता है, हम में हमेशा उपलब्ध रहता है ताकि हमारे जीवन में प्रभु द्वारा निर्धारित भूमिका का निर्वाह कर सके। हमें उसे बुलाने की आवश्यकता नहीं होती है, न ही किसी विशेष आवश्यकता के समय में उसे उपलब्ध होने के लिए आग्रह करना पड़ता है, क्योंकि हमें उसकी आवश्यकता हर समय और हर बात के लिए रहती है।
यहाँ पर हमें यह समझने के लिए कि ऐसा क्यों है, क्यों प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए पवित्र आत्मा की उपस्थिति अनिवार्य है, हमें तीन बातों को याद रखना, और उनका एहसास बनाए रखना आवश्यक है। ये बातें हैं:
· पहली बात है कि मसीही विश्वासी का जीवन शैतान और उसके दूतों तथा उनकी युक्तियों, उनके षड्यंत्रों, उनकी चालाकियों के विरूद्ध एक निरंतर बने रहने वाला, आजीवन चलते रहने वाला संघर्ष है। इसलिए उस संघर्ष में जयवंत रहने के लिए हमें पवित्र आत्मा की निरंतर सहायता और मार्गदर्शन की आवश्यकता रहती है।
· दूसरी बात, परमेश्वर के बाद, सृष्टि में शैतान ही दूसरा सबसे सामर्थी प्राणी है; यहाँ तक कि प्रधान-स्वर्गदूत मीकाईल भी उसे सीधे से डाँट नहीं सकता है (यहूदा 1:9); और परमेश्वर के स्वर्गदूत भी अकेले उसका सामना नहीं कर सकते हैं (दानिय्येल 10:12)। इसलिए मनुष्य, जो सृष्टि से ही स्वर्गदूतों से कुछ कम बनाया गया है (इब्रानियों 2:6-7), वह चाहे आत्मिक दृष्टि से कितना भी परिपक्व क्यों न हो, अपने आप से कभी शैतान की सामर्थ्य और युक्तियों का सामना नहीं कर सकता है। इसी लिए, ताकि हम शैतान और उसके दूतों से सुरक्षित बने रहें, परमेश्वर विश्वास के द्वारा जन्मे उसके प्रत्येक संतान के अन्दर, उसके साथ बने रहने के लिए, हमारे नया-जन्म पाने के पल ही से आ कर रहने लगता है।
· तीसरी बात, परमेश्वर पवित्र आत्मा एक व्यक्तित्व है, पवित्र त्रिएक परमेश्वर का एक भाग, त्रिएक परमेश्वर है। जैसे किसी भी व्यक्ति को टुकड़ों में तोड़ कर बाँटा नहीं जा सकता है, उसी तरह से पवित्र आत्मा भी कभी भी “नाप” कर, अर्थात टुकड़ों में कर के नहीं दिया जाता है, जैसा की स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है (यूहन्ना 3:34)। इसलिए पवित्र आत्मा जहाँ भी होगा, वह अपनी सम्पूर्णता में ही विद्यमान होगा, और ऐसा कोई तरीका संभव ही नहीं है कि कोई उसकी उपस्थिति एवं उपलब्ध होने को अधिक या कम कर सके। जो बदला जा सकता है, वह है उसे उपयोग करने की हमारी क्षमता तथा हमारे जीवनों में उपलब्ध उसकी सामर्थ्य। लेकिन उसकी उपस्थिति और उसकी सामर्थ्य, हमेशा ही, सभी के लिए एक ही समान रहेगी।
वह हमारा पैराक्लीटोस है, अर्थात हमारा साथी या सहायक; लेकिन वह हमारे स्थान पर काम करने वाला हमारा सेवक नहीं है, कि परमेश्वर ने जो हमें करने के लिए कहा है उसे हमारे स्थान पर वह कर दे। वह हमें दिखाएगा, सिखाएगा कि क्या करना है, कैसे करना है; जब हमें समझ नहीं आ रहा होगा कि क्या कहें और कैसे कहें तब प्रार्थना करने में हमारी सहायता करेगा; लेकिन वह कभी भी हमारा स्थान नहीं लेता है, हमारी जगह हमारी ज़िम्मेदारी को नहीं निभाता है। इसे बेहतर समझने के लिए हम अगले लेख में इसे और विस्तार से देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Holy Spirit – Our Helper – 1
Since the previous article we have started to look into the stewardship of God the Holy Spirit. We have seen that He is given to us by God at the very moment we accept the Lord Jesus as our Savior, and surrender our lives to Him, i.e., the moment we are “Born-Again.” The discourse about the Holy Spirit is given to us in John’s Gospel, chapters 14 to 16. The Lord Jesus promised His disciple that after His going away from the world, God the Holy Spirit will come to be with them. In the previous article we have seen a gist of why God the Holy Spirit is given to be with the disciples of the Lord Jesus. From today we will see from these chapters of John’s Gospel, in the order they have been stated there, the purposes of the Holy Spirit staying with us. This will help us learn and realize how we should utilize His presence in us for our ministry, our benefit, and glory of God. i.e., be worthy stewards of God the Holy Spirit.
In John 14:16 the Lord states two functions of the Holy Spirit for the disciples: (a) to be along with us, and (b) be with us always. Today we will begin considering the first function – the Holy Spirit being along with us as our Helper or Companion. The Greek word translated here as “helper” is parakletos, i.e., one who stays alongside – a companion. So, God the Holy Spirit is one who is always at our side, is always available to us for His Lord assigned role in our lives. We do not have to call for Him, or ask for Him to be made available in some particular need, since we need Him all the time and for everything.
We need to remember three things here, to understand why it has to be so; why the presence of God the Holy Spirit is so critical for every Christian Believer:
· The first is that a Christian Believer’s life is a constant, relentless struggle against the wiles of Satan and his demons; their conspiracies and ploys that they keep putting up against us. Therefore, to remain victorious in this struggle we need the constant power and guidance of the Holy Spirit.
· Secondly, after God, Satan is the next most powerful being in the universe; so much so that even the Archangel Michael cannot rebuke him directly (Jude 1:9); and even the angels of God cannot overcome him single-handedly (Daniel 10:12). Therefore, man who has been created a little lower than the angels (Hebrews 2:6-7), no matter how spiritually mature he may be, can never face the powers and ploys of the devil on his own. So, to help us stay safe from the devil and his angels, since the time of our being Born-Again, God has come to stay within and alongside every one of His children, born into His family by faith.
· Thirdly God the Holy Spirit is a person, a part of the Holy Trinity, the Triune God. Just as no person can be divided or broken into bits and pieces for being distributed around, so also the Holy Spirit is never given in “measures”, i.e., in parts, as the Lord Jesus has Himself said about Him (John 3:34). So, wherever the Holy Spirit is, He is present in His entirety, and there is no way one can have any more or less of him, or increase His availability. What changes is our ability to utilize Him and His power in our lives; but His presence and power always remains the same at all times, for all.
He is our parakletos, i.e., our companion; but He is not our substitute, to replace us to do what we have been asked to do by God. He will show and teach us, guide us what to do and how, He helps us in our prayers when we do not know what to say, but He does not replace us or takeover from us and do what we are supposed to do instead of us. To understand this better, we will consider this further in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.