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पाप का समाधान - उद्धार - 27
कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर
प्रभु यीशु मसीह द्वारा समस्त मानवजाति के लिए किए गए इस महान उद्धार तथा पापों के समाधान एवं निवारण के कार्य को लेकर लोगों के मनों में कई प्रश्न भी रहते हैं। सामान्यतः पूछे जाने वाले कुछ प्रश्न और उनके उत्तर हैं:
प्रश्न: जब पाप का दण्डात्मक दुष्प्रभाव वंशागत हो सकता है, तो उद्धार का आशीषपूर्ण रक्षक प्रभाव वंशागत क्यों नहीं हो सकता है? क्यों प्रत्येक को अपने ही पापों के क्षमा मिलती है; वह क्षमा उसकी संतानों पर क्यों नहीं जाती है?
उत्तर: यह तो ज्ञात एवं स्पष्ट है कि मनुष्यों की पार्थिव देह मरनहार है, पाप के दोष के साथ है, और पाप के दोष और उसके प्रभाव - मृत्यु को, एक से दूसरी पीढ़ी में दे देती है, और इसीलिए प्रत्येक पार्थिव देह को मरना भी होगा। जब प्रभु यीशु मसीह ने अपनी पाप के दोष से रहित देह पर सारे संसार के सभी लोगों का पाप ले लिया, तो उनकी उस देह को भी मृत्यु से होकर निकलना पड़ा। वर्तमान में, प्रभु यीशु के दूसरे आगमन तक, मसीही विश्वासियों की पार्थिव देह भी वह अविनाशी, उद्धार पाई हुई अलौकिक देह नहीं है जो प्रभु के पुनरुत्थान के बाद उनकी हो गई थी; और जो प्रभु यीशु के दूसरे आगमन पर उसके शिष्यों, मसीही विश्वासियों को प्रभु यीशु के समान मृत्यु से पार होने के बाद मिलेगी। पुनरुत्थान के पश्चात प्रभु यीशु केवल आत्मा नहीं थे, उन्होंने यह कहा और प्रमाणित किया था कि वे आत्मा नहीं देह में शिष्यों के समक्ष हैं “मेरे हाथ और मेरे पांव को देखो, कि मैं वहीं हूं; मुझे छूकर देखो; क्योंकि आत्मा के हड्डी मांस नहीं होता जैसा मुझ में देखते हो” (लूका 24:39; देखिए लूका 24:36-43)। इसी प्रकार से प्रभु यीशु मसीह के शिष्य, मसीही विश्वासी भी प्रभु यीशु मसीह के दूसरे आगमन पर, जो मर गए हैं वे एक नई अलौकिक देह में जी उठेंगे, और जो उस समय जीवित होंगे वे उस नई देह में परिवर्तित हो जाएंगे “और यह क्षण भर में, पलक मारते ही पिछली तुरही फूंकते ही होगा: क्योंकि तुरही फूंकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जाएंगे, और हम बदल जाएंगे। क्योंकि अवश्य है, कि यह नाशमान देह अविनाश को पहिन ले, और यह मरनहार देह अमरता को पहिन ले” (1 कुरिन्थियों 15:52-53); वह नई देह पाप के दोष और प्रभाव - मृत्यु, से मुक्त होगी। क्योंकि वर्तमान में मसीही विश्वासियों की देह में वे अलौकिक उद्धार पाई हुई अविनाशी देह के गुण विद्यमान नहीं हैं, इसीलिए मसीही विश्वासी अपनी देह से उत्पन्न हुई अपनी संतानों को भी वे अलौकिक गुण नहीं दे सकते हैं; केवल पाप के दोष वाली देह के गुण, जो वर्तमान में उनमें विद्यमान हैं, वे ही दे सकते हैं, और देते हैं “अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4)।
प्रश्न: उद्धार पाने के पश्चात भी लोग पाप क्यों करते हैं, पवित्र और सिद्ध क्यों नहीं हो जाते हैं?
उत्तर: जैसा इससे पहले के प्रश्न में समझाया गया है, उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी अभी भी शारीरिक रीति से पाप के दोष और प्रभाव वाली देह में जीवित हैं। इसलिए उनका पाप करने का पुराना स्वभाव, उनके प्रभु यीशु का अनुसरण करने के नए स्वभाव के साथ संघर्ष करता रहता है, उन्हें वापस पाप में फँसाने और गिराने का प्रयास करता रहता है “क्योंकि शरीर आत्मा के विरोध में, और आत्मा शरीर के विरोध में लालसा करती है, और ये एक दूसरे के विरोधी हैं; इसलिये कि जो तुम करना चाहते हो वह न करने पाओ” (गलातियों 5:17)। जब कभी शरीर की लालसाएँ आत्मा पर हावी हो जाती हैं, मनुष्य पाप में गिर जाता है। किन्तु मसीही विश्वासी पाप में बना नहीं रह सकता है “जो कोई परमेश्वर से जन्मा है वह पाप नहीं करता; क्योंकि उसका बीज उस में बना रहता है: और वह पाप कर ही नहीं सकता [मूल भाषा में लिखे वाक्य का अभिप्राय है ‘वह पाप में बना नहीं रह सकता है], क्योंकि परमेश्वर से जन्मा है” (1 यूहन्ना 3:9)। उसमें विद्यमान परमेश्वर का आत्मा उसे उसके इस पाप में गिर जाने, पाप में होने की दशा के लिए कायल करता है, पश्चाताप के लिए उभारता है, और जब वह अपने पाप को मान लेता है, उसके लिए पश्चाताप करके परमेश्वर से क्षमा माँगता है, तो परमेश्वर का वायदा है कि “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9)।
दूसरी बात, उद्धार पाने के बाद, परमेश्वर हमें अंश-अंश करके प्रभु यीशु की समानता में परिवर्तित करता जा रहा है “...तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18)। इसलिए उद्धार पाए हुए प्रत्येक व्यक्ति में सदैव ही, जब तक वह इस शरीर और संसार में है, कुछ सांसारिक और शारीरिक तथा कुछ आत्मिक और स्वर्गीय गुण विद्यमान होंगे। मसीही विश्वास, तथा परमेश्वर के वचन और आज्ञाकारिता में परिपक्व होते जाने से उसमें से सांसारिक और शारीरिक बातें धीरे-धीरे कम होती चली जाएंगी, और स्वर्गीय तथा आत्मिक बातें बढ़ती चली जाएंगी। किन्तु पूर्ण पवित्रता और सिद्धता वह इस शरीर से निकल कर अविनाशी देह में आने के बाद ही पाएगा। इसलिए हर उद्धार पाए हुए व्यक्ति में, कोई न कोई अपूर्णता, सांसारिकता की बात, शरीर की लालसा देखी जाएगी। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह उद्धार पाया हुआ नहीं है; वरन यह कि वह अभी “निर्माणाधीन” है, उसमें चल रहा परमेश्वर का कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है, इसलिए कुछ कमियाँ, कुछ त्रुटियाँ दिख सकती हैं, और दिखती रहती हैं। किन्तु उसका अनन्तकालीन भविष्य स्वर्गीय सिद्धता, पवित्रता, और आशीषपूर्ण है।
प्रश्न: जब प्रभु ने सब के पापों के लिए दंड सह लिया है, उनकी पूरी-पूरी कीमत चुका दी है, तो फिर सभी स्वर्ग के वारिस क्यों नहीं हैं? फिर क्यों लोगों को प्रभु यीशु मसीह में अलग से विश्वास करने की आवश्यकता है?
उत्तर: इसका उत्तर समझने के लिए दो उदाहरण देखिए। मान लीजिए, मैं आपके लिए एक बहुत उत्तम और आपके जीवन के लिए बहुत लाभकारी उपहार लेता हूँ, और आपको उसे एक भेंट के रूप में मुफ़्त में देना चाहता हूँ। मैं आपको उसके लिए बारंबार बताता रहता हूँ कि मैंने आपके लिए एक बहुत उपयोगी उपहार ले कर रखा हुआ है, जब भी मन करे कभी भी आकर मुझ से उस उपहार को ले लें। किन्तु आप मुझ पर, मेरी मंशा पर, मेरे उस उपहार पर संदेह करते हैं, उन्हें अस्वीकार करते हैं, मेरे इस निमंत्रण को स्वीकार नहीं करते, मुझ से वह उपहार लेने के लिए नहीं आते हैं; तो क्या वह उपहार, जिसकी पूरी कीमत चुकाई जा चुकी है, जो आपको केवल मुझ से लेकर अपने लिए उपयोग भर ही करना है, आपको कोई लाभ दे सकता है? या मान लीजिए, आप उस उपहार को मुझ से ले भी लेते हैं, किन्तु उसकी गुणवत्ता पर, उसकी उपयोगिता पर, उसे आपको देने के पीछे मेरी मंशा पर, या अन्य किसी भी कारण से उस उपहार पर और मुझ पर संदेह करते हैं, उसे अपने लिए आवश्यक नहीं समझते हैं, अपने उपयोग में नहीं लाते हैं, तो क्या मेरे द्वारा उस उपहार की कीमत चुकाने और उसे आपको उपलब्ध करवा देने से आपको कोई लाभ होगा?
यही बात प्रभु यीशु मसीह द्वारा उपलब्ध करवाए गए पापों की क्षमा और उद्धार के उपहार के लिए भी लागू है। यदि आप उसे अपनाएंगे ही नहीं; उसे अपने जीवन में कार्यकारी ही नहीं करेंगे तो फिर वह आपके जीवन में लाभकारी कैसे होगा? प्रभु यीशु कहते हैं कि “मैं तुम्हारे पाप अपने ऊपर लेता हूँ, और बदले में अपनी धार्मिकता तुम्हें देता हूँ” और आप कहें, नहीं मुझे यह स्वीकार नहीं है; मैं अपने पाप अपने पास रखूँगा, आप अपनी धार्मिकता अपने पास रखिए। मैं अपने पापों का समाधान और निवारण अपने तरीके से निकाल लूँगा और कर लूँगा, मुझे आपके समाधान और निवारण की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में प्रभु यीशु द्वारा क्रूस पर किए गए कार्य और उनके पुनरुत्थान का आपके जीवन में क्या उपयोगिता अथवा महत्व रहा? फिर प्रभु का वह बलिदान आपके लिए कैसे कार्यकारी और लाभकारी हो सकेगा? ऐसे में तो आप वहीं रहेंगे जहाँ हैं, जैसे हैं; और सब कुछ तैयार एवं उपलब्ध होने के बावजूद, उसका कोई लाभ नहीं उठाने पाएंगे।
एक अन्य कारण से भी प्रभु द्वारा उपलब्ध करवाया गया यह समाधान लोगों के जीवनों में कार्यकारी एवं उपयोगी नहीं होने पाता है। एक और उदाहरण से समझिए; हम सभी कंप्यूटर और मोबाइल फोन प्रयोग करते हैं। इसलिए हम यह भी जानते हैं कि हमारे कंप्यूटर अथवा फोन में डाले हुए प्रोग्राम या एप्प के बनाने वाले समय-समय पर उनके और उन्नत तथा बेहतर संस्करण, अर्थात ‘अपडेट’ निकालते रहते हैं, जिससे वह प्रोग्राम या एप्प और बेहतर कार्य कर सके। कभी-कभी कुछ अपडेट ऐसे भी आते हैं जिन्हें लागू करने के लिए पुराने संस्करण को मिटाना या ‘अन-इंस्टाल’ करना होता है, और फिर उस पुराने के स्थान पर नए वाले को ‘इंस्टाल’ करना होता है। यदि आप नया संस्करण डाउनलोड भी कर लें, किन्तु पुराने को ‘अन-इंस्टाल’ करने की अनुमति न दें, पुराने को ‘अन-इंस्टाल’ नहीं करें, तो वह नया फिर कैसे लागू होगा और आपके किस काम का होगा? ऐसे में उस प्रोग्राम या एप्प के बनाने वाले और उसे उपलब्ध करवाने वाले की मेहनत और प्रयास आपके लिए क्या लाभ देंगे? बहुत से लोग मसीही जीवन का लाभ तो उठाना चाहते हैं, किन्तु अपने पुराने सांसारिक जीवन और पुरानी शारीरिक बातों को छोड़ना नहीं चाहते हैं। जबकि प्रभु कहता है कि पुराने जीवन से पश्चाताप और छुटकारे के साथ ही मसीही विश्वास का नया जीवन कार्यान्वित, उपयोगी और लाभकारी हो सकता है। जब तक पुराना पापमय जीवन रहेगा तब तक नया कुछ काम नहीं कर सकेगा। लोगों को नए जीवन का पता है, वे उसे चाहते हैं, किन्तु नए को पुराने के साथ मिलाकर चलाना चाहते हैं, जो संभव नहीं है। इसलिए उनके जीवन में पापों की क्षमा और उद्धार का कार्य भी कार्यकारी नहीं रहता है।
शैतान तो सांसारिक ज्ञान, बुद्धि, समझ, धर्म, मत, विचारधारा, आदि के आधार पर मन में परमेश्वर के कार्य के प्रति संदेह उत्पन्न करता ही रहेगा; अनेकों प्रकार से प्रश्न उठाता ही रहेगा और उलझाता ही रहेगा - वह तो अदन की वाटिका के प्रथम पाप के समय से यह करता चला आ रहा है। उसके भ्रम, उसकी इस चालाकी में फँसने की बजाए, प्रभु यीशु पर, उसके जीवन, शिक्षाओं, कार्यों, और मानवजाति के लिए दिए गए बलिदान, तथा उनके मृतकों में से पुनरुत्थान की सामर्थ्य पर; वह आपको क्या देना चाहता है और आप से बदले में क्या चाहता है, आदि बातों पर ध्यान लगाइए, उन पर विचार कीजिए, तब सही बात तथा सही निर्णय आपके सामने स्वतः ही स्पष्ट एवं प्रकट हो जाएगा। फिर यीशु मसीह को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता स्वीकार करने में आपको कोई संकोच नहीं रहेगा। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।
एक साल में बाइबल:
एज्रा 6-8
यूहन्ना 21
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The Solution for Sin - Salvation - 27
Some Related Questions and their Answers
Many people have questions regarding this great salvation and solution to the problem of sin, freely provided by the Lord Jesus for the entire mankind. Some of the commonly asked questions, and their answers are:
Question: If the deleterious effect of sin resulting in punishment can be hereditary, then why can the saving effect of salvation that brings blessings not be hereditary too? Why is it that every person is forgiven his own sins; why does that forgiveness not go down to his posterity?
Answer: This is an evident and understood fact that man’s earthly body is perishable, has the sin nature, and the sin nature and its effect - death, is passed on from one generation to another, therefore each earthly body has to die. When the Lord Jesus had taken upon His sinless body the guilt of sin of the entire mankind, then His body too had to suffer death. Presently, till the second coming of the Lord, the earthly body of the Christian Believers, the saved ones, is still not the heavenly glorious body as the Lord Jesus had after His resurrection, and one that will be given to the Believers, the disciples of Christ, at the second coming of the Lord Jesus, once they too have gone through death like the Lord. After the resurrection, the Lord Jesus was not only a spirit, He said and proved to His disciples that He was with them not as a spirit but in body “Behold My hands and My feet, that it is I Myself. Handle Me and see, for a spirit does not have flesh and bones as you see I have” (Luke 24:39; read Luke 24:36-43). Similarly, the disciples of the Lord Jesus Christ too, at the second coming of Christ, those who have died will be resurrected in their new glorious heavenly body, and those who are alive at that time, their bodies will be converted to into that new body “in a moment, in the twinkling of an eye, at the last trumpet. For the trumpet will sound, and the dead will be raised incorruptible, and we shall be changed. For this corruptible must put on incorruption, and this mortal must put on immortality” (1 Corinthians 15:52-53); that new body will be free of the guilt and effect of sin - death. Because presently the bodies of the Christian Believers do not have the characteristics of the glorious heavenly body, therefore they cannot pass on these characteristics to their children; they can only pass on, and do pass on, the characteristics of their current perishable bodies with a sin nature “Who can bring a clean thing out of an unclean? No one!” (Job 14:4).
Question: Why do people keep sinning even after being Born-Again, receiving salvation; why do they no become holy and perfect?
Answer: As has been explained in the answer to the previous question, given above, the saved and Born-Again Christian Believers are still living in their earthly bodies that have the sin nature and effects of sin in them. Therefore, their old nature having the tendency to sin keeps on fighting with their new spiritual nature, and keeps on trying to bring them back into committing sin, into falling into sin “For the flesh lusts against the Spirit, and the Spirit against the flesh; and these are contrary to one another, so that you do not do the things that you wish” (Galatians 5:17). Whenever the desires and lusts of the body gain an upper hand on their spirit, they commit sin. But a Christian Believer cannot continue to remain in sin, “Whoever has been born of God does not sin, for His seed remains in him; and he cannot sin [the sentence in the original language implies ‘cannot remain in or continue in sin’], because he has been born of God” (1 John 3:9). The Spirit of God present in him, convicts him of having fallen into sin and being in state of sin, and provokes him to repent of the sin; when he repents and asks for God’s forgiveness, then it is God’s promise that “If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness” (1 John 1:9).
Secondly, after our salvation, the God is continuing to change us into the likeness of the Lord Jesus, bit by bit “... are being transformed into the same image from glory to glory, just as by the Spirit of the Lord” (2 Corinthians 3:18). Therefore, every Born-Again and saved Believer, as long as he is in this body, will continue to have some characteristics of his earthly body and its worldly desires, and some heavenly and spiritual characteristics. As he grows and matures in his spiritual life, in obedience to God and His Word, the earthly and worldly features will continue to diminish and the heavenly and spiritual will continue to increase. But the complete perfection and holiness will only come after he passes away from this physical body into the heavenly body. Therefore, in every saved and Born-Again person, there will always be some imperfection, spiritual deficiency, worldly desires and physical characteristics. This does not mean that he is not Born-Again or saved; but just that he is still “under construction” by God, and God’s work of changing him is still not completed, therefore, some deficiencies and imperfections are seen in him. But his blessed eternal future, heavenly perfection, and holiness are assured and awaiting him.
Question: When the Lord has suffered death for everyone, paid in full for their sins, then why is everyone not an inheritor of heaven? Why do people still have to individually believe in the Lord Jesus?
Answer: To understand the answer to this, consider two examples. Suppose, I procure an excellent and very expensive gift for you that will be very useful for you in your life, and I want to give it you as a present out of my love and care for you. I keep telling you time and again that I have something very good and useful for you, that I want to present you with, please come at any convenient time and collect it from me. But you doubt me, my intentions, the necessity of that gift, and never come to collect that gift from me. In a way you have rejected that gift, which is very expensive, has been paid for in full, is very useful and beneficial for you, and all you have to do is collect it from me and start using it. Can that gift be considered to be of any use or benefit for you? Or, supposing you do come and collect it from me, but you continue to doubt me, my intentions, the quality, utility, and effectiveness of that gift, and for these or any other reasons, do not consider it to be of any use for yourself, never put that gift to any use in your life, and let it lie unused with you. In either of these situations, will my having procured that gift, paid for it, made it available to you for free as a gift of love, be of any use for you, although that gift is there and waiting to be put to use by you?
The same thing is applicable to the free gift of salvation procured and freely made available for the entire mankind. Unless it is received, believed upon, and put into use in one’s life, it remains unutilized and inefficacious, its benefits remain non-applicable. The Lord Jesus says, “I have taken your sins upon myself, and am giving my righteousness to you in their place”, and you say to Him, “No! This is not acceptable to me. You keep your righteousness with yourself, and I will keep my sins with myself. I will find my own solution to the problem of my sins; I do not need the solution you have made and provided for my sins.” In such a situation, of what use is the work done by the Lord Jesus on the Cross of Calvary, His sacrifice, death, and resurrection - of what use are they for you? How can that sacrifice and work be effective and beneficial for you? In such a situation, you will remain where you are and as you are; and despite everything being ready and made freely available for you, you will not be able to receive any benefit from it.
There is another reason as well, why the solution prepared and made available by the Lord Jesus remains unutilized and ineffective in the lives of people. Understand this with another example; we all, or most of us, use either the mobile phone or the computer. That is why we are aware that those who create and provide Apps and programs to be installed and used in our phones and computers, keep releasing updates and improved versions of their programs, so that those Apps and programs continue to function optimally. Sometimes, there are some updates, which require uninstalling the previous outdated version before installing the new updated version. Even though you may download the new updated version, but do not allow the old out-dated version to be uninstalled, then how can that newer and better version be installed and become useful for you? In such a situation, of what use and benefit is the work and effort of the creator of that App or program, for you? Similarly, many people want to have the benefits of Christian Believer’s life, but do not want to get rid of, or “uninstall” their old worldly life and their physical lusts and desires. The Lord says that only by getting rid of the old life through repentance and asking for forgiveness, will you be able to bring in and put to use the new and beneficial heavenly, spiritual life. As long as the old sinful life remains in you, till then the new spiritual life of God’s righteousness will not be able to work. People know about this new life, they want to have its benefits too, but they want to have it along with their old sinful life - to enjoy the desires of the flesh, as well as gain the benefits of the spiritual life; and that cannot happen. Therefore, in the lives of such people, who want to have the benefits of both sides, the forgiveness of sins and works of salvation are never at work or efficacious.
Satan, through worldly knowledge, wisdom, understanding, religion, opinions, points-of-view, etc., will continue to bring doubts regarding God’s work, and will continue to raise many questions, continue to beguile and confuse you - he has been doing this since the time of the first sin committed in the Garden of Eden. Instead of falling for his deceptions and deviousness, ponder over and study the life of the Lord Jesus Christ, His works, His teachings, His love for sinners, His sacrifice for mankind, His power of resurrection, what He wants to give to you and what He wants to take away from you, etc. As you prayerfully, sincerely, and with a humble heart think over these aspects, the truth and the right decision will automatically become apparent to you, and you will have no hesitation in accepting the Lord Jesus as your saviour.
The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ezra 6-8
John 21