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पवित्र आत्मा से सीखना – 21
पिछले लेख में हमने देखा है कि मसीही विश्वासी, पवित्र आत्मा के भण्डारी, जिन में वह उनके उद्धार पाने के क्षण से निवास करता है, उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई बातों के बारे में सीखना है। परमेश्वर पवित्र आत्मा उन्हें उनका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है कि मसीही जीवन जीने में और परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गई सेवकाई को पूरा करने में उनका सहायक और मार्गदर्शक हो, और उन्हें सब बातों के बारे में सिखाए। अभी हम पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में सीखने के लिए 1 कुरिन्थियों 12:12-14 पर विचार कर रहे हैं। पिछले दो लेखों में हमने पद 12 पर विचार किया था, और पिछले लेख में हमने देखा था कि मसीही विश्वासी से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वह उन सभी बातों के बारे में सीखेगा जो परमेश्वर ने उसे दी हैं, जिन में पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है, ताकि परमेश्वर के प्रावधानों का सही और उचित उपयोग कर सके। हमने पद 12 से जो दूसरी बात देखी थी, वह थी कि सँसार की कोई भी आत्मा या मानवीय आत्मा विश्वासियों को परमेश्वर के द्वारा दी गई बातों के बारे में नहीं सिखा सकती है। इसलिए विश्वासियों का पवित्र आत्मा के अतिरिक्त किसी अन्य से उन बातों के बारे में सीखने का प्रयास करना न केवल व्यर्थ है, बल्कि परमेश्वर के वचन पर अविश्वास करना भी है। और तीसरी बात जो पद 12 से हमने देखी थी, वह थी कि पवित्र आत्मा की सेवकाई की अनदेखी कर के मनुष्यों और उनकी रचनाओं से सीखने के पीछे जाना, पवित्र आत्मा को नीचा दिखाना, परमेश्वर का अपमान करना, और उसका अनाज्ञाकारी होना है। आज से हम इस खण्ड में से पद 13 पर विचार करना आरम्भ करेंगे, और पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में आगे सीखेंगे।
पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस प्रेरित ने लिखा है “जिन को हम मनुष्यों के ज्ञान की सिखाई हुई बातों में नहीं, परन्तु आत्मा की सिखाई हुई बातों में, आत्मिक बातें आत्मिक बातों से मिला मिला कर सुनाते हैं।” इस पद का आरंभिक वाक्यांश “जिन को हम ” में प्रयुक्त “जिन”, पद 12 के संदर्भ में प्रकट है कि “उन बातों को जानें, जो परमेश्वर ने हमें दी हैं” के लिए है। यहाँ पर ध्यान दीजिए कि पौलुस बहुवचन सर्वनाम “हम” लिखता है, न कि अपेक्षित एकवचन सर्वनाम “मैं”। यह इस बात का संकेत करता है कि पौलुस और उसकी सेवकाई में उसके सहकर्मी भी, सभी अपनी सेवकाई में पवित्र आत्मा के इस निर्देश का पालन करते थे, और यह पौलुस का कोई व्यक्तिगत विचार या कार्य-शैली मात्र नहीं था। अर्थात, पौलुस कह रहा है कि पद 12 का “उन बातों को जानें, जो परमेश्वर ने हमें दी हैं” उसके तथा उसके साथियों के प्रचार और शिक्षाओं की सामग्री था। क्योंकि यह हमारी भी शिक्षा और उपयोग के लिए, अनन्त काल के लिए परमेश्वर के वचन में लिखवाया गया है, इसलिए इसे निःसंकोच विश्वासियों के लिए पवित्र आत्मा से सीखने का एक तरीका स्वीकार किया जाना चाहिए – सभी विश्वासियों को परमेश्वर के द्वारा उन्हें दी गई बातों के बारे में सीखना है।
लेकिन हम पौलुस, तथा पवित्र शास्त्र के अन्य लेखकों के लेखों से जानते हैं कि परमेश्वर के वचन में विश्वासियों को परमेश्वर द्वारा दी गई बातों के अतिरिक्त भी और बहुतेरे विषय लिए और सिखाए गए हैं। न तो पौलुस ने और न ही उसके साथियों ने अपने आप को केवल परमेश्वर द्वारा विश्वासियों को दी गई बातों के बारे में सिखाने तक ही सीमित रखा है। और परमेश्वर पवित्र आत्मा ने उन सभी को कई अन्य बातों के बारे में भी लिखने के लिए प्रेरणा दी है। इसलिए यह बात कहना, इस पद की न तो गलत व्याख्या है, और न ही पवित्र शास्त्र में दिए गए अन्य विषयों के संदर्भ में कोई विरोधाभास है।
ऐसी परिस्थितियों में सामान्यतः हमारे मनों में आने वाले विचार के विपरीत, ध्यान कीजिए कि यहाँ पर पौलुस ने न तो यह कहा है और न ही यह अभिप्राय दिया है कि “हम केवल इन बातों के ही बारे में बोलेंगे।” ध्यान कीजिए, पौलुस ने यह पत्री कुरिन्थुस की मण्डली को उनकी गलतियाँ और अनुचित व्यवहार को सुधारने के लिए लिखी थी। जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, पौलुस ने इस बात पर बल दिया है कि कुरिन्थुस के विश्वासी साँसारिक, अपरिपक्व, और बच्चों के समान व्यवहार करने वाले थे, और इसलिए वह उन्हें केवल “दूध” ही दे सका “अन्न” या ठोस भोजन नहीं (1 कुरिन्थियों 3:1-3), क्योंकि वे न तो उसे ग्रहण कर सकते थे और न ही पचा सकते थे। दूसरे शब्दों में, पवित्र शास्त्र में “अन्न” या ठोस भोजन के बारे में भी दिया गया है, किन्तु इन कुरिन्थियों को केवल “दूध” ही दिया जा सकता था। पौलुस और उसके साथियों के द्वारा, परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई बातों के बारे में जो शिक्षाएँ हैं, तात्पर्य यही है कि वे उस “दूध” का ही एक भाग हैं जो पौलुस उन्हें दे रहा था; ये उस “अन्न” या ठोस भोजन का भाग नहीं हैं जो बाद में आना था, जब वे परिपक्व हो जाते और साँसारिक नहीं रहते।
इसलिए हमारे लिए शिक्षा यह है कि परमेश्वर ने जो बातें मसीही विश्वासियों को दी हैं, उनके बारे में सीखना मसीही विश्वासियों की बुनियादी या आरंभिक शिक्षाओं का भाग हैं; किन्तु इस से यह नहीं समझना चाहिए कि विश्वासियों को केवल उन्हें ही सीखना है। ये तो मूल बातों का एक भाग हैं, और उन्नत बातें आगे आएंगी जब विश्वासी आत्मिक जीवन में परिपक्व होंगे। इसलिए यहाँ पर पद 13 के इस आरंभिक वाक्यांश को समझने में न तो कोई गलत व्याख्या है, और न ही अन्य पवित्र शास्त्र के साथ कोई विरोधाभास है। अगले लेख में हम इस से और आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 21
In the previous article we have seen that Christian Believers, the stewards of the Holy Spirit, in whom He resides since their moment of salvation, are to learn about all things that God has freely given to them. God the Holy Spirit has been given to them to be their Helper, Companion, Teacher, and Guide in living their Christian lives and fulfilling their God given ministry; and as their Teacher, He teaches them about all things. We are presently considering 1 Corinthians 12:12-14 to learn how we can learn from the Holy Spirit. In the previous two article we have considered verse 12, and in the last article we have seen that it is expected of the Christian Believer that he will learn about all that God has given to him, including learning about the Holy Spirit, to worthily utilize God’s gifts. The second thing we saw from verse 12 was that no worldly or human spirit can make known to the Believers about the things given to them by God. Therefore, it is not only futile for Believers to try and learn from anyone but the Holy Spirit about them, but doing so is also disbelieving on God’s Word. The third thing we learnt from verse 12 was that ignoring the ministry of the Holy Spirit and going after learning from men and their works, is demeaning the Holy Spirit, insulting God, being disobedient to Him. From today we will take up verse 13 of this passage and learn further about learning from the Holy Spirit.
The Apostle Paul under the guidance of the Holy Spirit says in verse 13, “These things we also speak, not in words which man's wisdom teaches but which the Holy Spirit teaches, comparing spiritual things with spiritual.” The first phrase of this verse is “These things we also speak” and from the context of verse 12, it is apparent that the “These things” that Paul is mentioning are “the things that have been freely given to us by God” of verse 12. Notice that in this first phrase of verse 13 Paul uses the pronoun “we” i.e., plural, instead of the expected singular “I”. This indicates that Paul and his ministry companions, all followed this guidance of the Holy Spirit in their ministry, and this was not just Paul’s personal opinion or way of doing things. So, what Paul is saying is that “the things that have been freely given to us by God” of verse 12 formed the contents of the preaching and teaching he and his companions used to do. Since this has been recorded in God’s Word for all times, for our learning and utilizing as well, therefore, it can safely be accepted as a method that God the Holy Spirit wants followed – the Believers have to learn about what God has freely given to them.
But we also see from Paul’s writings, and those of the other authors of the Scriptures, that there is a very wide range of subjects covered and taught in God’s Word, over and above about the things that God has freely given to the Believers. Neither Paul, nor his companions and the others have restricted themselves to preaching and teachings just those things given by God to the Believers. And God the Holy Spirit has inspired them all to write about the other things as well. This is neither due to a misinterpretation of this first phrase of verse 13, nor a contradiction with the other topics taught in the Scriptures.
Quite unlike the thought that commonly comes to our minds in such situations, Paul neither says nor implies “we only speak about these things.” Remember, Paul has written this letter to the Corinthians Church to correct their errors and wrong practices. As we have seen earlier, Paul emphasizes in this letter that the Corinthian Believers were carnal, immature, and child-like, and therefore he could only give them “milk” and could not give them “sold food” (1 Corinthians 3:1-3), since they were incapable of receiving and digesting it. In other words, in the Scriptures, “solid food” has also been written about, but these Corinthians Believers required to only be fed the “milk.” Paul and his companion’s teaching to them about the things that God has given to them, therefore implies that these things comprised a part of that “milk” that Paul was feeding them; it was not a part of the “solid food” that would come later, once they matured and were not carnal anymore.
Therefore, the lesson for us is that learning about what God has given to the Christian Believers is part of the basic teachings that every Christian Believer should learn; but by no means is it the only thing that they have to learn. These are just a part of the basics; the advanced will follow as they grow spiritually. So, there is neither a misinterpretation nor a contradiction here in understanding this first phrase. We will carry on from here in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.