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मंगलवार, 4 जनवरी 2022

मसीह यीशु की कलीसिया या मण्डली - प्रभु एवं उसकी शिक्षाओं पर आधारित


बाइबल में दिए गए कलीसिया के आधार को समझें।   

प्रभु परमेश्वर द्वारा लोगों को उद्धार देने, अपने साथी (मत्ती 28:20; यूहन्ना 14:3, 18), परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13), और अपने साथ स्वर्ग के वारिस (रोमियों 8:17) बनाने; उन्हें संसार भर में जाकर अपने सुसमाचार के प्रचार की सेवकाई सौंपने और सेवकाई के अनुसार आत्मिक वरदान प्रदान करने के उद्देश्य को समझने के लिए हमें प्रभु की कलीसिया या मण्डली और उससे संबंधित बातों को समझना होगा। इस संदर्भ में प्रचलित कुछ भ्रांतियों और गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देख रहे हैं। पहले हमने देखा कि आम धारणा के विपरीत, बाइबल के अनुसार कलीसिया कोई भौतिक वस्तुओं से बना हुए भवन, अथवा कोई संस्था नहीं है, वरन प्रभु यीशु द्वारा बुलाए गए, और उसके प्रति समर्पित लोगों का समूह है। हमने पहले देखा था कि शब्द कलीसिया या मण्डली मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद है, वह है “ekklesia, एक्कलेसियाजिसका शब्दार्थ होता है, “व्यक्तियों का एकत्रित होना”, याव्यक्तियों का समूहयाव्यक्तियों की सभा। कलीसिया को एक विशिष्ट भवन एवं आराधना-स्थल के साथ जोड़ने से संबंधित बातों को हम आगे देखेंगे। दूसरी बहुत आम भ्रांति और गलत शिक्षा है कि प्रभु ने कलीसिया को अपने शिष्य पतरस पर स्थापित किया है, और इस भ्रांति के समर्थन में मत्ती 16:18 में प्रभु की कही बात का हवाला दिया जाता है, जोकलीसियाशब्द का बाइबल में सर्वप्रथम प्रयोग का पद भी है।

पिछले लेख में हमने देखा था कि मत्ती 16:18 में प्रभु की कही गई बात की वास्तविकता को तीन बातों:

  • क्या मत्ती 16:18 में प्रभु की कलीसिया बनाने की बात पतरस के लिए थी?
  • क्या वचन में किसी अन्य स्थान पर पतरस पर कलीसिया बनाने की, उसे कलीसिया का आधार रखने की पुष्टि है?
  • क्या पतरस इस आदर और आधार के योग्य था?

के आधार पर जाँच और समझ सकते हैं। पिछले लेख में हमने इनमें से पहली बात के विश्लेषण को देखा था, और समझा था कि प्रभु यीशु ने आलंकारिक भाषा का प्रयोग तो किया, किन्तु मत्ती 16:18 में यह बात पतरस के विषय नहीं कही थी। आज हम दूसरी बात, “वचन में दी गई अन्य बातों के द्वारा क्या कलीसिया के पतरस पर आधारित होने की पुष्टि होती है?” को देखेंगे।

कलीसिया, या मण्डली, अर्थात प्रभु के बुलाए हुए लोगों का समूह किसी भी व्यक्ति पर कदापि आधारित नहीं है, इसकी एक पुष्टि हम प्रेरित पौलुस द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी गई पहले पत्री के आरंभिक भाग में ही देखते हैं। पौलुस ने कुरिन्थुस की मण्डली ले लोगों के, प्रभु के सेवकों के प्रति उनकी निष्ठा के अनुसार विभाजित होने और फिर परस्पर मतभेद रखने की प्रवृत्ति की भर्त्सना करते हुए लिखा, “हे भाइयो, मैं तुम से यीशु मसीह जो हमारा प्रभु है उसके नाम के द्वारा बिनती करता हूं, कि तुम सब एक ही बात कहो; और तुम में फूट न हो, परन्तु एक ही मन और एक ही मत हो कर मिले रहो। क्योंकि हे मेरे भाइयों, खलोए के घराने के लोगों ने मुझे तुम्हारे विषय में बताया है, कि तुम में झगड़े हो रहे हैं। मेरा कहना यह है, कि तुम में से कोई तो अपने आप को पौलुस का, कोई अपुल्लोस का, कोई कैफा का, कोई मसीह का कहता है। क्या मसीह बँट गया? क्या पौलुस तुम्हारे लिये क्रूस पर चढ़ाया गया? या तुम्हें पौलुस के नाम पर बपतिस्मा मिला?” (1 कुरिन्थियों 1:10-13)। इस खंड से स्पष्ट है कि प्रभु के सेवकों के नाम पर, जिनमें से एक नाम पतरस का भी दिया गया है, निष्ठा रखने, और फिर उस आधार पर विभाजित होने, आपस में झगड़ने की यह प्रवृत्ति अनुचित थी। प्रभु के सभी लोगों को, उस एक ही नाम, प्रभु यीशु, पर निष्ठा रखनी थी, और प्रभु के प्रति समर्पण के अनुसार ही साथ मिलकर एक मनता के साथ रहना था। पतरस के नाम को कोई भी और कैसा भी विशेष महत्व प्रदान नहीं किया गया, अपितु यह विशेष महत्व देने के प्रयास की निन्दा की गई, इस से निकलने और हटने के लिए कहा गया। साथ ही यह एक और शिक्षा को हमारे सामने लाता है, जब भी उद्धारकर्ता प्रभु यीशु के नाम को छोड़ किसी भी अन्य व्यक्ति या प्रभु के सेवक के नाम अथवा किसी भी मनुष्य को महत्व देने के प्रयास होते हैं, तो परिणाम परस्पर मतभेद, झगड़े, और प्रभु के नाम की निन्दा होता है; क्योंकि यह परमेश्वर की ओर से नहीं वरन शैतान की ओर से है, और शैतान कभी भी प्रेम को नहीं वरन बैर, फूट, मतभेदों, और झगड़ों को ही लेकर आता है।

इसी बात को 1 कुरिन्थियों 3:1-7 में समझाया और दोहराया गया है, जहाँ पर साथ ही यह भी लिखा गया है कि मसीही विश्वासियों का इस प्रकार से मनुष्यों और मनुष्यों के नामों को महत्व देना: 

  • आत्मिक अपरिपक्वता का चिह्न है, (3:1)
  • उन्नत और गहन आत्मिक शिक्षाओं को प्राप्त करने, समझने, और जीवन में लागू एवं प्रयोग करने में बाधा डालता है, (3:2)
  • शारीरिक - अर्थात उद्धार से पहले की प्रवृत्तियों और व्यवहार के अभी भी मसीही चरित्र पर हावी होने और उसे दबाए रखने का प्रमाण है, (3:3-4)
  • तथा मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर की प्राथमिकता के न होने को दिखाता है। (3:5-7)

फिर इससे थोड़ा आगे चलकर, परमेश्वर पवित्र आत्मा एक बहुत महत्वपूर्ण बात लिखवाता है, जिसकी, तथा उससे संबंधित एक अन्य पद की, अनदेखी और अवहेलना वे सभी लोग, जाने या अनजाने में करते हैं, जो यह मानते हैं कि पतरस ही प्रथम मण्डली का आधार था, मण्डली उसी पर बनाई गई थी। पौलुस ने पवित्र आत्मा के अगुवाई में लिखा, “क्योंकि उस नेव को छोड़ जो पड़ी है, और वह यीशु मसीह है कोई दूसरी नेव नहीं डाल सकता” (1 कुरिन्थियों 3:11)। इस पद के पहले भाग से यह बिलकुल स्पष्ट है कि कलीसिया की नींव या आधार पहले से तैयार और स्थापित है; मध्य भाग बताता है कि वह पहले से तैयार और डाली गई नींव स्वयं प्रभु यीशु मसीह है, और अंतिम भाग बताता है कि कोई भी इस नींव को बदल नहीं सकता है, इसके स्थान पर कोई और नींव नहीं डाल सकता है। 

इस संदर्भ में इस पद से संबंधित जिस दूसरे पद की अनदेखी और अवहेलना की जाती है, वह हैऔर प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की नेव पर जिसके कोने का पत्थर मसीह यीशु आप ही है, बनाए गए हो। जिस में सारी रचना एक साथ मिलकर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” (इफिसियों 2:20-21)। पद 20 भी यही बताता है कि कलीसिया की नींव, उसका आधार प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं द्वारा जो बातें और शिक्षाएं प्रभु ने प्रदान की हैं, अर्थात परमेश्वर का वचन है - जो आदि से था, परमेश्वर का स्वरूप है, और जिसने प्रभु यीशु के रूप में देहधारी होकर हमारे साथ निवास किया (यूहन्ना 1:1, 2, 14)। साथ ही, इस 20 पद मेंप्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओंके बहुवचन में प्रयोग पर ध्यान कीजिए। तात्पर्य यह है कि यह नींव, यह आधार, कोई एक व्यक्ति कदापि नहीं था; वरन प्रभु के वे अनेक प्रेरित और भविष्यद्वक्ता थे जिनमें होकर प्रभु का वचन लोगों तक पहुँचा; और पतरस निःसंदेह उनमें से एक था, किन्तु वही एकमात्र कदापि नहीं था। एक बार फिर यह पतरस के एकमात्र आधार होने की धारणा को गलत ठहराता है। साथ ही 20 पद यह भी दिखाता है कि इन सभी प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं को साथ और संगत रखने वाला वहकोने का पत्थर”, जिससे सारी नींव एवं भवन-निर्माण की सिधाई और दिशा जाँची जाती है, स्थापित की जाती है, स्वयं प्रभु यीशु मसीह है। फिर 21 पद में लिखा है कि कलीसिया की यह सारी रचना साथ मिलकरप्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” - पतरस में नहीं, प्रभु में!

स्वयं पतरस भी उसके द्वारा लिखी गई पत्रियों में उसके कलीसिया का आधार होने की बात की पुष्टि करना तो दूर, ऐसा कोई संकेत भी नहीं देता है कि प्रभु ने उसे कलीसिया का आधार नियुक्त किया है, जिसके अनुसार वह इस दायित्व का निर्वाह कर रहा है। दोनों पत्रियों के आरंभ में उसने अपने आप को केवल प्रभु का प्रेरित कहा है, और दूसरी पत्री के आरंभ में प्रभु का दास भी कहा है, किन्तु कलीसिया का आधार होने को न तो कहीं कहा है और न ही इसका कोई संकेत दिया है।

प्रेरितों के काम के 15 अध्याय में भी जब यरूशलेम में मण्डलियों में फैलाई जा रही कुछ गलत शिक्षाओं के विषय चर्चा एवं निर्णय करने के लिए उस प्रारंभिक मण्डली के अगुवे एकत्रित हुए (प्रेरितों 15:6), और फिर प्रेरितों 15:7 में पतरस का नामबहुत वाद-विवाद के बादआया, और उसने किसी अधिकार के साथ नहीं वरन अन्य लोगों के समान एक सदस्य के रूप में अपना तर्क रखा। तथा फिर 12 पद से आगे लिखा है कि अन्य लोग भी अपने विचार रखने लगे, फिर अन्ततः 22 पद में जाकरप्रेरितों और प्राचीनोंके द्वारा सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। कहीं पर भी पतरस के किसी विशेष स्तर अथवा स्थान, या सभा को संचालित करने, अंतिम निर्णय लेने, आदि जैसी बातों का कोई उल्लेख नहीं है; जबकि यह व्यवहार कलीसिया केआधारयामुख्य संचालकसे अपेक्षित है। 

अर्थात परमेश्वर के वचन में कहीं पर भी इस बात का समर्थन नहीं है कि प्रभु ने कलीसिया को पतरस पर आधारित कर के बनाने की बात कही, जिसे फिर निभाया गया। अगले लेख में हम देखेंगे और विश्लेषण करेंगे कि क्या प्रभुकलीसिया को पतरस पर बनानेके योग्य समझ कर उसे यह दायित्व दे सकता था।

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता एवं अधीनता में वचन की सच्चाइयों को उससे समझें; किसी के भी द्वारा कही गई कोई भी बात को तुरंत ही पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार न करें, विशेषकर तब, जब वह बात बाइबल की अन्य बातों के साथ ठीक मेल नहीं रखती हो।

 यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 10-12      
  • मत्ती 4