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आराधना के भौतिक लाभ (5)
हमारे इस अध्ययन में कि वास्तव में आराधना क्या है और यह क्यों मसीहियों, अर्थात प्रभु यीशु के शिष्यों के लिए आवश्यक है, पिछले कुछ लेखों से हम देख रहे हैं कि किस प्रकार से केवल प्रार्थना करने से कहीं अधिक लाभकारी आराधना भी करना होता है। हमने देखा है कि प्रार्थना के साथ आराधना को सम्मिलित करना प्रार्थना को बहुत प्रभावी और कार्यकारी बना देता है। साथ ही हमने यह भी देखा है कि आराधना के लाभ केवल आत्मिक ही नहीं बल्कि भौतिक और शारीरिक भी होते हैं; किन्तु हम आराधना को परमेश्वर को हमारी इच्छा के अनुसार कुछ पार्थिव लाभ प्रदान करने के लिए उपकरण के समान प्रयोग नहीं कर सकते हैं। आराधना के प्रत्युत्तर में पार्थिव लाभों को प्राप्त करने के बाइबल के उदाहरणों में हम दो लोगों, राजा हिजकिय्याह और नहेम्याह के उदाहरणों से देख चुके हैं; और आज हम एक और व्यक्ति, राजा यहोशापात के उदाहरण से देखेंगे।
हम राजा यहोशापात के बारे में पहले भी देख चुके हैं, जब हम देख रहे थे कि किस प्रकार से आराधना, प्रार्थना को और अधिक प्रभावी बनाती है। आज भी हम परमेश्वर के वचन के उसी खण्ड, अर्थात 2 इतिहास 20 अध्याय, को ही लेंगे, और देखेंगे कि किस प्रकार से आराधना के द्वारा यहोशापात न केवल उस पर आने वाली विपत्ति से बच सका, वरन उसे बहुतायत से भौतिक आशीषें भी मिलीं, उसकी कल्पना और अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़कर। हम देखते हैं कि इस अध्याय में यहोशापात पाँच बार आराधना करता है। उसकी पहली आराधना उसके छुटकारे के लिए प्रार्थना के साथ की गई थी; उसकी दूसरी आराधना, इस प्रार्थना के प्रत्युत्तर में परमेश्वर से मिले आश्वासन के बाद है; तीसरी आराधना परमेश्वर की आज्ञाकारिता में कार्य करने के साथ है; चौथी आराधना उस विपरीत प्रतीत होने वाली परिस्थिति से छूटने तथा साथ ही अप्रत्याशित संपदा प्राप्त करने के बाद है; और पाँचवीं आराधना यरूशलेम लौटकर परमेश्वर के भवन में की गई है।
परमेश्वर के भय में चलने वाले राजा यहोशापात को पता चलता है कि तीन प्रबल राज्य एक साथ होकर उस पर हमला करने और उसे नाश करने के लिए आ रहे हैं। यह सुनने के बाद, अपनी दुर्बल स्थिति को पहचानते हुए, तथा यह समझते हुए कि उसे कुछ सूझ नहीं रहा है कि इस स्थिति का सामना कैसे किया जाए, राजा यहोशापात अपनी प्रजा से कहता है कि छुटकारे के लिए उसके साथ मिलकर परमेश्वर से प्रार्थना करें। छुटकारे के लिए उनकी यह प्रार्थना पद 6 से 12 में दी गई है। इन 7 पदों में से 6 पद यहोशापात की आराधना हैं, जबकि उसकी प्रार्थना केवल एक पद, पद 12 में ही है। विपत्ति के समय में भी यहोशापात की आराधना, उसकी प्रार्थना से कहीं अधिक थी:
पद 6: गुणानुवाद - स्वर्ग में परमेश्वर, जो बल और पराक्रम रखने वाला है , जिसका सामना कोई नहीं कर सकता है।
स्तुति - वह जाति-जाति के सब राज्यों पर प्रभुता रखने वाला परमेश्वर है।
पद 7: स्तुति - परमेश्वर द्वारा इस्राएलियों को लाकर कनान में बसाना।
पद 8: स्तुति - परमेश्वर के भवन का बनाया जाना।
पद 9: स्तुति - परमेश्वर द्वारा बचाने के लिए दी गई प्रतिज्ञा का स्मरण करना।
गुणानुवाद - परमेश्वर का नाम उसके भवन में बसा है, ऊँचा उठाना।
पद 10: स्तुति - इस्राएलियों की कनान तक की यात्रा में इन्हीं जातियों को उनकी हानि करने से परमेश्वर द्वारा रोके रखना।
पद 11: स्तुति - परमेश्वर द्वारा उन्हें कनान की भूमि दिया जाना।
पद 12: प्रार्थना - यहोशापात केवल अपनी समस्या को लाकर परमेश्वर के हाथों में रख देता है, उस से निपटने की अपनी अयोग्यता का अंगीकार करता है, और यह भी मान लेता है कि उसे सूझ नहीं पड़ रहा है कि इसके लिए क्या करे। यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि परमेश्वर के सामने अपने अपनी प्रार्थना रखते समय, वह प्रार्थना के उत्तर के विषय परमेश्वर को कोई निर्देश नहीं देता है; अर्थात, किसी भी प्रकार से परमेश्वर को कोई सुझाव नहीं देता है कि समस्या का क्या और कैसे समाधान किया जाए।
इस अध्याय में, इस प्रार्थना और आराधना के बाद, यहजीएल में होकर परमेश्वर द्वारा छुटकारे का आश्वासन मिलने (पद 15-17) के पश्चात, चार और आराधनाएँ हैं। दूसरी आराधना पद 18-19 में दी गई है, परमेश्वर से आश्वासन मिलने के बाद यहोशापात और यहूदा परमेश्वर के आगे दण्डवत करते हैं, ऊंचे स्वर में उसकी स्तुति और गुणगान करते है। इसके बाद तीसरी आराधना पद 21 में है, जब परमेश्वर की आज्ञाकारिता में यहोशापात सेना को युद्ध-भूमि में भेजता है, और सेना के आगे स्तुति और गुणगान करने वाले, दुश्मनों के सामने, ऊंचे स्वर में परमेश्वर की आराधना करते हुए चलते हैं। फिर चौथी आराधना धन्यवाद के रूप में है, जब उन्हें विजय मिल जाती है, समस्या का समाधान हो जाता है, और अनपेक्षित रीति से अपार संपत्ति भी साथ में मिल जाती है (पद 26), यह भजन 50:15 का व्यावहारिक पूरा करना है। पाँचवीं आराधना परमेश्वर के भवन में, यरूशलेम वापस लौटने के पश्चात की जाती है (पद 27-28)। कुल मिलाकर परिणाम यह मिला कि न केवल शत्रुओं की समस्या का स्थाई समाधान हो गया, बल्कि यहोशापात और उसकी प्रजा को बहुत अधिक संपत्ति भी मिल गई, और आने वाले समय के लिए शान्ति और स्थिरता भी निश्चित हो गई (पद 29-30)।
इन तीन लोगों, राजा हिजकिय्याह, नहेम्याह, और राजा यहोशापात, के उदाहरणों में हम देखते हैं कि उन में से किसी ने भी आराधना कोई भौतिक या पार्थिव आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं की। उन्होंने, अपनी विपरीत परिस्थिति, अपनी विपत्ति में भी, आराधना परमेश्वर के प्रति उनकी श्रद्धा और आदर के कारण, परमेश्वर की महिमा करने के लिए की। परमेश्वर की आराधना करते समय उनकी मुख्य भावना अपनी परिस्थिति और समस्या से छुटकारा पाना था, न कि परमेश्वर से कोई पार्थिव या भौतिक आशीष प्राप्त करना। न केवल परमेश्वर ने उन्हें उनकी परेशानियों और परिस्थितियों से छुड़ाया, बल्कि, अपनी इच्छा और योजना के अनुसार, उन्हें भौतिक आशीषों से भी परिपूर्ण किया।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहोशू 7-9
लूका 1:21-38
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The Material Blessings of Worship (5)
In our study on what worship actually is and why it is essential for Christians, the disciples of the Lord Jesus, for the past few articles we have been studying about how worshipping God is immensely more beneficial than only praying. We have seen that combining prayers with worship makes it much more effective and fruitful. We have also seen that the benefits of worship are not only spiritual, but physical and material as well; but we cannot make worship a tool for manipulating God and extracting temporal benefits from Him. In considering Biblical examples of receiving temporal benefits as a consequence of worship, we have seen from two examples, of King Hezekiah, and of Nehemiah; and today we will see from another example, that of King Jehoshaphat.
We have seen King Jehoshaphat’s example earlier also, when considering how worship makes prayers more effective. Today we will take the same portion of God’s Word, i.e., 2 Chronicles chapter 20, and see how worship not only delivered Jehoshaphat from the impending calamity, but also brought him an abundance of material benefits, way beyond his imagination and expectation. In this chapter we see that Jehoshaphat worships God five times. Jehoshaphat’s first worship is part of his prayer to God for deliverance; his second worship is on receiving God’s assurance in response to their prayers; the third worship is while obeying God to act upon what He has said; the fourth is after their deliverance from the situation and also receiving an unexpected bounty through that apparent adversity; the fifth worship is in the house of God, after returning back to Jerusalem.
The godly King Jehoshaphat receives information that he is about to be attacked by three mighty nations, who have gathered together to come and destroy him. Upon hearing about this, and realizing his own weak situation and inability to face them, King Jehoshaphat, asks his whole kingdom to pray to God for deliverance. His prayer for this deliverance is given from verse 6 to 12. Out of the 7 verses, his actual prayer for deliverance is only in verse 12; the rest of the 6 verses are Jehoshaphat’s Worship; i.e., Jehoshaphat’s worship, even in the time of adversity, far exceeds his prayer:
Verse 6: Exaltation – God of heaven, having power and might, no one is able to stand against God.
Praise – He is the God who rules over kingdoms
Verse 7: Praise – recalls God’s work of settling Israelites in Canaan
Verse 8: Praise – Sanctuary built for God
Verse 9: Praise – recalls promise of Deliverance
Exaltation – God’s name is in the Temple
Verse 10: Praise – Withholding the Ammonites, Moabites and people of Mount Seir – the Edomites, from attacking Israel during their journey to Canaan.
Verse 11: Praise – recalls God giving them the possession of Canaan.
Verse 12: Prayer – Jehoshaphat simply puts forth his problem into God’s hands, confessing his physical inability to fight the attackers, and mental inadequacy to figure out what to do about it. It is important to note that while putting his prayer before God, he does not direct God in any way about answering it, i.e., without in any manner telling God how to solve it, or what to do about it.
This worship and prayer, after he receives assurance of God’s deliverance through Jahaziel (verses 15-17), is followed by four more acts of worship. The second worship is in verse 18-19, Jehoshaphat and Judah worship by bowing down to the Lord, and singing His praises with a loud voice, on receiving God’s answer and assurance. This is followed by the third act of worship (verse 21) in sending the army into the battle-field, with the singers leading the army while singing and loudly exalting God before the enemies. And as soon as this worship in the battle-field began, God acted and Jehoshaphat’s problem was solved (verse 22). His fourth Worship is in the form of Thanksgiving, after collecting the spoils of war (verse 26), a practical fulfillment of Psalm 50:15. The fifth worship is carried out in the house of God after returning to Jerusalem (verse 27-28). The net result is not only a complete deliverance from the problem of enemies, but also an overall abundance of temporal riches for Jehoshaphat and his people, along with peace and stability for times to come (verses 29-30).
In the examples of King Hezekiah, Nehemiah, and King Jehoshaphat, we see that none of them worshipped to obtain any material benefits. They worshipped out of their reverence and honor of God, to glorify Him, even in their problems. While worshipping God, their main concern was deliverance from their situations, and not that God provide material benefits in any way. God not only delivered them from their situations, but also blessed them materially, as per His discretion.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Joshua 7-9
Luke 1:21-38
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