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शनिवार, 14 जनवरी 2023

प्रभु भोज – भाग लेने में गलतियाँ (14) / The Holy Communion - The Pitfalls (14)

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प्रभु की मेज़ - प्रभु की देह के योग्य आदर के साथ

 

पिछले दो लेखों में 1 कुरिन्थियों 11:28 से अध्ययन करने के बाद, अब हम आगे, 1 कुरिन्थियों 11:29-30 पर आते हैं। प्रेरित पौलुस में होकर पवित्र आत्मा इस पद से मसीही विश्वासियों के सामने प्रभु की मेज़ में अयोग्य रीति से भाग लेने के हानिकारक प्रभावों के बारे में बताता है। कुछ ही समय पहले हमने 1 कुरिन्थियों 11:27 से देखा था कि प्रभु की मेज़ में योग्य रीति से तथा अयोग्य रीति से भाग लेने का क्या अर्थ होता है। संक्षेप में, प्रभु की मेज़ में योग्य रीति से भाग लेना, उसमें किसी अनुष्ठान की रीति या डिनॉमिनेशन की परंपरा पूरी करने के लिए नहीं, परन्तु उस अभिप्राय और रीति से भाग लेना है जो प्रभु यीशु ने प्रभु भोज को स्थापित करते समय निर्धारित किया था। अकसर, वे लोग जो प्रभु भोज में रीति या परंपरा के अनुसार भाग लेते हैं, यह गलत धारणा रखते हैं कि इससे वे धर्मी बन जाते हैं, परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाते हैं, तथा स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य हो जाते हैं। किन्तु यह बिल्कुल गलत और बाइबल के विपरीत धारणा है; परमेश्वर के वचन में कहीं भी, न तो प्रभु यीशु द्वारा, न पौलुस अथवा अन्य किसी के द्वारा ऐसा कुछ भी कहा गया, न ही कोई ऐसा अभिप्राय दिया गया है। परमेश्वर द्वारा दिए गए उद्देश्यों - प्रभु यीशु के जीवन और बलिदान को स्मरण करना तथा उसकी मृत्यु का प्रचार करना, अर्थात उसकी गवाही देना, से भिन्न कोई भी उद्देश्य देना अयोग्य रीति से भाग लेना है।


योग्य रीति से भाग लेने से संबंधित एक और बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा है कि भाग लेने वाले को पहले अपने आप को जाँच लेना चाहिए, अपने पापों, गलतियों, और कमज़ोरियाँ को प्रभु के सामने मान कर, प्रभु से उनके लिए क्षमा माँगनी चाहिए, और तब योग्य रीति से भाग लेना चाहिए। किन्तु इसे भी एक व्यर्थ की परंपरा बना दिया गया है, अब कलीसिया के एकत्रित लोग, अपने पादरी के पीछे-पीछे अनुष्ठान की विधि के अनुसार कही जाने वाली कुछ बातों को दोहराते हैं, अधिकांशतः औपचारिकता पूरी करने के लिए, न के सार्थक रीति से अथवा किसी श्रद्धा या खराई के साथ, और फिर जाकर मेज़ में भाग ले लेते हैं।

 

हमें 1 कुरिन्थियों 11:29 में अयोग्य रीति से प्रभु भोज में भाग लेने के बारे में एक बहुत गंभीर चेतावनी दी गई है - ऐसा करने वाले इस खाने और पीने से अपने ऊपर दण्‍ड लाते हैं। और अगला ही पद, पद 30, हमें बताता है कि ये दण्ड यहीं, इसी पृथ्वी पर ही उनके जीवनों में आने लग जाते हैं, इससे पहले कि व्यक्ति प्रभु यीशु के सामने अपने जीवन का हिसाब देने के लिए, और भले या बुरे प्रतिफल पाने के लिए खड़ा हो (प्रेरितों 17:30-31; 2 कुरिन्थियों 5:10)। परमेश्वर ने जो कुछ भी कहा है, जो भी निर्देश दिए हैं, उन्हें कभी भी हल्के में नहीं लिया जा सकता है, और न ही यह मान कर चला जा सकता है कि कोई बात नहीं, अन्ततः इसकी अनदेखी हो जाएगी। नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों, परमेश्वर की संतानों को भी यह धारणा नहीं रखनी चाहिए कि वे परमेश्वर के निर्देशों के साथ समझौते कर सकते हैं, और वे हल्के में बच जाएंगे। बल्कि, 1 पतरस 4:17-18 कहता है कि परमेश्वर के न्याय का आरंभ विश्वासियों से होगा, और 1 कुरिन्थियों 3:13-15 बताता है कि यह काम कितनी बारीकी और गंभीरता से किया जाएगा। विश्वासियों का यह न्याय उनके उद्धार पाने या न पाने के लिए नहीं है, परन्तु अनन्तकाल के प्रतिफलों के लिए है, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 3:15 स्पष्ट कर देता है कि कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो उद्धार पाए हुए तो होंगे किन्तु स्वर्ग में अनंतकाल के लिए छूछे हाथ रहेंगे क्योंकि उनके कोई भी कार्य किसी प्रतिफल के योग्य नहीं थे।

 

हम इब्रानियों 10:28-29 से देखते हैं कि परमेश्वर अपने पुत्र के निरादर को हल्के में नहीं लेता है; और यह ठीक भी है, क्योंकि यदि कोई परमेश्वर पुत्र का आदर नहीं करता है तो वह परमेश्वर पिता का आदर भी नहीं करेगा (यूहन्ना 5:23)। इसलिए, मानव जाति के उद्धार के लिए प्रभु द्वारा दिए गए बलिदान के चिह्नों को हल्के में अथवा अनुचित रीति से लेना, परमेश्वर का निरादर करना है, और फिर उसके परिणामों को भी भुगतना पड़ेगा। जो भाग लेते समय प्रभु की देह को नहीं पहचानता है; अर्थात परमेश्वर के निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र पुत्र के द्वारा संपूर्ण मानवजाति के समस्त पापों को अपने ऊपर ले लेने और मनुष्यों को उनके पापों के परिणाम से छुड़ाने तथा उद्धार देने के लिए स्वयं पाप बन जाने की गंभीरता और अवर्णनीय महानता को नहीं पहचानते हैं; जो प्रभु भोज में योग्य रीति से भाग लेने की अनिवार्यता को नहीं पहचानते हैं; जो प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों के लिए प्रभु भोज की स्थापना करने के महत्व और उद्देश्य को नहीं पहचानते हैं, उन्हें भी फिर अपनी देह में ही इसके परिणामों को भी भुगतना पड़ेगा। और ये परिणाम 1 कुरिन्थियों 11:30 में दिए गए हैं - निर्बलता, रोग, और मृत्यु।

 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 33-35          

  • मत्ती 10:1-20     


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English Translation


The Lord’s Table - Participate Duly Honoring The Lord’s Body


  Having studied from 1 Corinthians 11:28 in the previous two articles, we will now move to 1 Corinthians 11:29-30. The Holy Spirit, through Paul, from this verse onwards puts before the Christian Believers the deleterious consequences of unworthy participation in the Lord’s Table.  A short while back, from 1 Corinthians 11:27, we had seen what participating in the Lord’s Table worthily and unworthily means. Essentially, to participate worthily is to participate in the Lord’s Table, not as a ritual, or a denominational tradition to be fulfilled, but in the manner and with the purpose instituted by the Lord Jesus. Often those who participate in the Holy Communion ritualistically have this false notion that their participation makes them righteous, acceptable to God, and worthy of gaining entry into heaven. But this is an absolutely unBiblical notion; nowhere in God’s Word did the Lord Jesus, or Paul, or anyone else ever say or even imply this. Ascribing any other purpose than what God has given - a remembrance of the Lord Jesus’s life and sacrifice, and proclaiming the Lord’s death, i.e., witnessing for Him, makes it an unworthy participation.

 

Another very important teaching associated with participating worthily is that the participant should first examine himself, confess his sins, errors and short-comings before the Lord, seek His forgiveness for them, and having been forgiven, then to take part in a worthy manner, i.e., with the person’s sins dealt with and his being made worthy by the Lord. But this too has been made into a vain ritual, where the congregation simply repeats after the Pastor, a series of liturgical statements, more perfunctorily, than meaningfully or with any sincerity of heart, and then goes ahead to partake of the Lord’s Table.


In 1 Corinthians 11:29, we have a very serious word of caution for those who do not partake of the Holy Communion in a worthy manner - they eat and drink judgment to themselves. And the next verse, i.e., verse 30 shows us that the effects of this judgment come upon the person here on earth itself, even before the person eventually stands before the Lord Jesus to give an account of his life to the Lord and receive the consequent rewards - good, or bad (Acts 17:30-31; 2 Corinthians 5:10). Nothing that God has said and instructed, can ever be taken lightly or presumed that it will be ignored. Even the Born-Again Christian Believers, the children of God cannot presume to compromise with God’s instructions and get away with it lightly. Rather, 1 Peter 4:17-18 say that God’s judgment will begin with the Believers, and 1 Corinthians 3:13-15 tells us how minutely and seriously it will be done. This judgment of the Believers is not to decide on their salvation, but for their eternal rewards, as is made clear in 1 Corinthians 3:15, that there will be some who will remain saved but also remain empty handed for eternity, since none of their works were worthy of any rewards.


We see from Hebrews 10:28-29 that God does not take the dishonoring of His Son lightly; and rightly so, since anyone who does not honor God the Son, does not honor God the Father either (John 5:23). So, dishonoring God by frivolously partaking of the symbols of the Lord’s sacrifice for salvation of mankind, will have its consequences. Those who do not discern the Lord’s body, i.e., do not recognize the seriousness and indescribable magnitude of the pure, sinless, spotless Son of God taking the entire sin of all of mankind upon Himself and becoming sin, to redeem and save all mankind; do not recognize the necessity of worthily participating in the Holy Communion; do not give due importance to the Lord’s purpose in instituting the Holy Communion for His disciples, will have to suffer the consequences in their own body. And these consequences are given in 1 Corinthians 11:30 - weakness, sickness, and even death.

  

If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Genesis 33-35

  • Matthew 10:1-20



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