ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

बुधवार, 17 मई 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न - 13b - True Gospel (2) / सच्चा सुसमाचार (2)

Click Here for the English Translation

सच्चा सुसमाचार, बनाम झूठे विश्वास और सिद्धान्त भाग - (2)


    जब एक बार हम सच्चे सुसमाचार के गुण पहचान जाते हैंतब फिर हम उनका प्रयोग प्रत्येक अन्य शिक्षा एवँ सिद्धान्त की वास्तविकता और सत्यता को जाँचने के लिए कर सकते हैं। पवित्र-आत्मा नेपौलुस प्रेरित में होकर गलत सुसमाचार को पहचानने के कुछ चिन्ह गलातियों 1:3-9 में दिए हैंऔर साथ ही चेतावनी भी दी है कि जो सुसमाचार पहले-पहल दे दिया गया हैउसे यदि पौलुस या कोई स्वर्गदूत भी आकर बदलना या भिन्न प्रकार से व्यक्त करना चाहेतो उसे कदापि स्वीकार नहीं किया जाए।

    गलातियों 1:3-9 का लेख इस प्रकार से है:
  • गलातियों 1:3 परमेश्वर पिताऔर हमारे प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्‍ति मिलती रहे
  • गलातियों 1:4 उसी ने अपने आप को हमारे पापों के लिये दे दियाताकि हमारे परमेश्वर और पिता की इच्छा के अनुसार हमें इस वर्तमान बुरे संसार से छुड़ाए
  • गलातियों 1:5 उस की स्‍तुति और बड़ाई युगानुयुग होती रहे। आमीन
  • गलातियों 1:6 मुझे आश्चर्य होता हैकि जिसने तुम्हें मसीह के अनुग्रह से बुलाया उस से तुम इतनी जल्दी फिर कर और ही प्रकार के सुसमाचार की ओर झुकने लगे
  • गलातियों 1:7 परन्तु वह दूसरा सुसमाचार है ही नहीं: पर बात यह हैकि कितने ऐसे हैंजो तुम्हें घबरा देतेऔर मसीह के सुसमाचार को बिगाड़ना चाहते हैं
  • गलातियों 1:8 परन्तु यदि हम या स्वर्ग से कोई दूत भी उस सुसमाचार को छोड़ जो हम ने तुम को सुनाया हैकोई और सुसमाचार तुम्हें सुनाएतो श्रापित हो
  • गलातियों 1:9 जैसा हम पहिले कह चुके हैंवैसा ही मैं अब फिर कहता हूंकि उस सुसमाचार को छोड़ जिसे तुम ने ग्रहण किया हैयदि कोई और सुसमाचार सुनाता हैतो श्रापित हो। अब मैं क्या मनुष्यों को मनाता हूं या परमेश्वर कोक्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूं?

    इस खण्ड से सच्चे सुसमाचार के बारे में हम निम्न तथ्य और विशेषताएं सीख सकते हैं:
  • आयत 3. सच्चे सुसमाचार के साथ परमेश्वर का अनुग्रह और शान्ति आते हैंवह मतभेदों, विवादों और संघर्षो का कारण अथवा स्त्रोत नहीं होता है। ऐसी कोई भी शिक्षा जो परमेश्वर तथा प्रभु यीशु को हमारे जीवनों में समस्त अनुग्रह और शान्ति का स्वाभाविक स्त्रोत नहीं बनाती हैवरन परमेश्वर के अनुग्रह और शान्ति को प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार के मानवीय प्रयासों और कर्मों को आधार बनाती हैया उसे साधारण विश्वास के द्वारा ग्रहण करने के स्थान पर कुछ कर्म या धार्मिकता के निर्वाह के द्वारा उस अनुग्रह और शान्ति को ‘कमाने’ का प्रयास करती हैवह सच्चा सुसमाचार नहीं है। जब प्रभु यीशु की शान्ति तो प्रभु के प्रत्येक अनुयायी के लिए प्रभु द्वारा पहले से ही प्रदान कर दी गई है (यूहन्ना 14:27; 16:33) तो फिर उसे प्राप्त करने के लिए किसी को अपना और कोई प्रयास क्यों करना पड़ेगा?
  • आयत 4. ऐसी कोई भी शिक्षा या सिद्धान्त या धर्म और धार्मिकता जो हमें पापों से बचाने तथा परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहराने के लिए कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा सिद्ध किए गए बलिदान के कार्य के अतिरिक्त और कुछ भी करने या निभाने को कहती है, वह झूठा सुसमाचार, गलत शिक्षा है; और उसका तुरंत ही पूर्णतः तिरिस्कार किया जाना चाहिए। हमारे उद्धार और पापों से छुटकारे के लिए जो कुछ प्रभु यीशु ने कर के दे दिया है वही पूर्ण है और सिद्ध है, उसे और अधिक कारगर करने के लिए उसमें और कुछ भी नहीं, बिलकुल कुछ नहीं, जोड़ा जा सकता है; और न ही कुछ और प्रभु के उस बलिदान का स्थान ले सकता है – न बपतिस्मा, न प्रभु-भोज में सम्मिलित होना, न दृढ़ीकरण, न कोई अन्य रीति-रिवाज़ अथवा प्रथा या त्यौहार का निर्वाह।
  • आयत 5. सच्चे सुसमाचार से संलग्न रहना तथा उसका पालन करना सदा ही परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह को महिमा देता है। सच्चा सुसमाचार कभी भी किसी भी मनुष्य को आदर और महिमा नहीं देता हैवरन वह मनुष्य के पाप और पापी स्वभाव को उजागर करता हैपरमेश्वर के अनुग्रह को पाप के समाधान के लिए प्रदान करता हैऔर जो परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा बचाए और छुड़ाए गए हैं उन से उनके उद्धार, परमेश्वर के राज्य में प्रवेश, और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल किए जाने के लिए, किसी मनुष्य की बड़ाई करवाने या उसे आदरणीय बनाने के स्थान पर परमेश्वर की महिमा और स्तुति करवाता है। वह जो मनुष्यों की महिमा और आदर करता है या किसी भी रीति से परमेश्वर की महिमा में से चुराता है, वह सच्चा सुसमाचार नहीं है।
  • आयतें 6, 7. वह ‘दूसरा सुसमाचार’ इसलिए ‘और ही प्रकार’ का है क्योंकि ‘मसीह के अनुग्रह’ को सबसे प्रथम और सबसे उत्तम महत्व का प्रस्तुत करने की बजाएवह लोगों को उद्धार की इस प्राथमिक आवश्यकता एवँ अनिवार्यता – अनुग्रह, से दूर ले जाता है। वह ‘दूसरा सुसमाचार’ और ही बातों जैसे कि ‘भले कार्य’, ‘धार्मिकता या पवित्रता का जीवन’, या ‘आश्चर्यकर्म करने’ आदि पर बल देता है, उनकी ओर ध्यान आकर्षित करता हैवह स्वर्गीय धन एकत्रित करने की बजाए सांसारिक संपत्ति और बढ़ोतरी की ओर ध्यान केंद्रित करता है (कुलुस्सियों 3:1-2)। वह दान करनेतप-तपस्या करनेतीर्थ-यात्राएं करने‘संतों’ तथा अन्य मनुष्यों को आदरणीय या पूजनीय समझनेदार्शनिक विचारोंबाइबल का किताबी ज्ञान रखनेचर्च में पदवी या महत्वपूर्ण स्थान पाने और बनाए रखनेआदि पर बल देता है परन्तु उस ‘दूसरे सुसमाचार’ या ‘और ही प्रकार’ के सुसमाचार में जो सबसे महत्वपूर्ण बात अनुपस्थित होती है वह है परमेश्वर के सम्मुख ग्रहण योग्य होने के लिए केवल मसीह के अनुग्रह की एकमात्र अनिवार्यता को स्वीकार करना (कुलुस्सियों 2)। झूठे या गलत सुसमाचार से अन्ततः कलीसिया में समस्याएँसंघर्षविवाददुखदायी एवँ बाधित और बिगड़े हुए संबंधअपने आप को बड़ा दिखाने की प्रवृत्तिअहम और उससे संबंधित समस्याएँनाश्मान और सांसारिक वस्तुएँ एवँ ओहदे पाने की लालसाएं तथा प्रयासआदि दिखाई देंगे न कि परमेश्वर का अनुग्रह और शान्तिजैसा कि ऊपर आयत 3 में कहा गया है।
  • आयतें 8, 9. सुसमाचार जो सदाकाल के लिए एक ही बार दे दिया गया है वह अपरिवर्तनीय हैउसमें न तो कुछ जोड़ा जा सकता है और न ही कुछ उसमें से घटाया जा सकता हैवरन शैतान की धूर्तता के हमलों से उसकी यत्न के साथ रक्षा करने की आवश्यकता है (यहूदा 1:3). कोई भी नहींन पौलुसन कोई स्वर्गदूतन कोई और  वह चाहे कितना भी कीर्ति प्राप्त या आदरणीय क्यों न होप्रथम कलीसिया को सदा काल के लिए एक ही बार दिए गए उस सुसमाचार में वह कोई भी, कैसा भी परिवर्तन या ‘सुधार’ नहीं कर सकता है (प्रेरितों 2:37-40; 1 कुरिन्थियों 15:1-4)। इस प्राथमिक और आधारभूत सुसमाचार में जो कुछ भी विद्यमान नहीं है, जो कुछ भी उससे भिन्न है, वह ‘और ही सुसमाचार’ है शैतान से आया हुआ सच्चे सुसमाचार का भ्रष्ट रूप हैऔर उसे न तो कोई महत्व दिया जाना चाहिए और न ही स्वीकार किया जाना चाहिएउसका अनुसरण या पालन करना तो बहुत दूर की बात है। परमेश्वर का वचन इस ‘दूसरे सुसमाचार’ को धोखे से सिखाने वालों को ‘श्रापित’ कहता है; और जिसे परमेश्वर ने श्रापित कहा हो उससे कुछ भी आशीषित अथवा महिमायोग्य प्राप्त होने की आशा रखना मूर्खतापूर्ण और बिलकुल गलत है।

    पौलुस द्वारा दिए गए निर्देश तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं” (1 कुरिन्थियों 11:1), तथा पवित्र-आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन में परमेश्वर, मसीह यीशु, उद्धार आदि से संबंधित सभी शिक्षाओं को उपरोक्त गुणों तथा विशेषताओं के अनुसार जांचने (और साथ ही 1 कुरिन्थियों 15; कुलुस्सियों 2 & 3 की शिक्षाओं के आधार पर भी आँकलन करनेके द्वारा सही को गलत से अलग किया जा सकता है, वास्तविकता को पहचाना जा सकता है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें
*************************************************************************************

True Gospel versus False Beliefs and False Doctrines - Part (2)


    Once we know the characteristics of the true Gospel, we can always use them as the standard to compare every other doctrine and determine whether or not it is genuine. The Holy Spirit, through the Apostle Paul gives us some pointers to identify the wrong Gospel in Galatians 1:3-9, and warns us that other than the Gospel already stated, even if Paul himself or an angel tries to modify it or re-state it in a different manner, it is not to be accepted. 

    The text of Galatians 1:3-9 is as follows:
  • Galatians 1:3 Grace to you and peace from God the Father and our Lord Jesus Christ,
  • Galatians 1:4 who gave Himself for our sins, that He might deliver us from this present evil age, according to the will of our God and Father,
  • Galatians 1:5 to whom be glory forever and ever. Amen.
  • Galatians 1:6 I marvel that you are turning away so soon from Him who called you in the grace of Christ, to a different gospel,
  • Galatians 1:7 which is not another; but there are some who trouble you and want to pervert the gospel of Christ.
  • Galatians 1:8 But even if we, or an angel from heaven, preach any other gospel to you than what we have preached to you, let him be accursed.
  • Galatians 1:9 As we have said before, so now I say again, if anyone preaches any other gospel to you than what you have received, let him be accursed.

    We can glean the following facts and characteristics regarding the true Gospel from this passage:
  • Verse 3. The true Gospel brings God’s grace and peace with it; it is not a source of differences, contentions or strife. Any teaching that does not place God and the Lord Jesus as the source of all grace and peace in our lives, instead if it emphasizes on any kind of human efforts and works to attain God’s grace and peace, or asking to do something to “earn it” instead of receiving it by faith through the grace of God, is not the true Gospel. Since the peace of the Lord Jesus is already granted to every disciple of His (John 14:27; 16:33), so why would anyone have to make any efforts of his own to obtain it?
  • Verse 4. Any teaching or doctrine or religion that speaks of anything other than, or of anything in addition to the accomplished work on the Cross of Calvary by the Lord Jesus, to save us from our sins and to justify us before God, is a false Gospel, a false doctrine, a false teaching; and ought to be rejected outright. Nothing, absolutely nothing, not even things like Baptism, participation in the Lord’s Table, Confirmation, or any other ritual or practice can in any way supplement or supplant what the Lord Jesus Christ has done for the salvation and redemption of mankind.
  • Verse 5. Adherence to and following the true Gospel always glorifies God and the Lord Jesus. The true gospel never ever glorifies man; rather, it exposes the sinfulness of man, provides the grace of God as the remedy to sin, and causes the redeemed and saved by Gods grace to glorify God rather than exalt or venerate any human being in any manner, for anything related to salvation, Kingdom of God, and restoration to fellowship with God. That which glorifies any human being, or in any manner takes away from God’s glory, is not the true Gospel.
  • Verses 6, 7. The ‘different gospel’’ is different because instead of emphasizing and presenting the ‘grace of Christ’ as something of first and foremost importance, leads people away from this primary requirement for salvation - grace. The ‘different gospel’’ may emphasize on things like ‘good works,’ ‘pious or holy living,’ ‘working of miracles’; it may focus on worldly gains and prosperity rather than accumulating heavenly gains (Colossians 3:1-2); on alms, penances, pilgrimages, veneration of saints and other humans; on philosophy, Bible knowledge, status in Church hierarchy, etc. but the one crucial thing missing in that ‘different’ or false gospel will be the emphasis and sole necessity of the grace of Christ for being right with God, for being acceptable to God (Colossians 2). The false Gospel will eventually lead to problems, strife, contentions, hurt and broken relationships, one-upmanship, ego problems, desire and efforts for gaining temporal status and things, etc. instead of the grace and peace of God, as stated in vs. 3.
  • Verses 8, 9. The Gospel that has once and for all times been delivered is immutable, and cannot be added to or subtracted from, but has to be diligently defended from Satan’s devious ploys (Jude 1:3). No one, not Paul, not any angel, not anyone – howsoever accomplished or worthy of honor he or she may be, can ever make any changes or modifications to the Gospel delivered once and for all times at the beginning of the first Church (Acts 2:37-40; 1 Corinthians 15:1-4). Anything not found in this primary Gospel, is a ‘different gospel’ – a perversion of the true gospel that has come from the devil, and is not to be accepted or given any credence, let alone be followed. God’s Word calls the purveyors of this false or ‘different’ gospel as ‘accursed’ and it would be patently false and naïve to expect anything blessed from someone or something accursed from God.

    By following Paul’s exhortation “Imitate me, just as I also imitate Christ” (1 Corinthians 11:1), and subjecting all teachings and doctrines related to God, salvation, and Christ Jesus to the above criteria (and of teachings from 1 Corinthians 15; Colossians 2 & 3), and through the help and guidance of God’s Holy Spirit the genuine can readily be separated from the false.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

Please Share The Link & Pass This Message To Others As Well