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शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 22 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 14

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व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 14

मनुष्यों की अज्ञानता (भाग 3)

हम पिछले कुछ लेखों में अपरिवर्तित मनुष्य के पापों को परमेश्वर द्वारा “अज्ञानता के समय का पाप” कहे जाने को समझने का प्रयास कर रहे हैं। प्रेरित पौलुस द्वारा, अथेने के घोर मूर्तिपूजा और परमेश्वर के लिए घृणित, अस्वीकार्य व्यवहार में लिप्त लोगों के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में किए गए प्रचार में, उन लोगों के लिए परमेश्वर के प्रकोप से बचने और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल होने के लिए दिया गया समाधान था, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30); और इस समाधान में तीन रोचक तथा बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं:

1. परमेश्वर पाप के लिए तुरंत दण्ड देने के स्थान पर, उन पापों को अज्ञानता के समय में किए गए कार्य बता कर दण्ड, उनके से बच जाने का अवसर देता है।

2. पापी मनुष्यों द्वारा पापों के लिए पश्चाताप करना, सब जगह के सभी मनुष्यों के लिए, परमेश्वर की इच्छा-मात्र नहीं, आज्ञा है। 

3. परमेश्वर उन लोगों से, उनके पापों के समाधान के लिए, व्यवस्था का पालन करने के लिए नहीं कहता है; बल्कि सभी लोगों से मन फिराने, तथा पश्चाताप करने के द्वारा पापों की क्षमा पाने और विश्वास करने के लिए कहता है।


अब हमारे सामने प्रश्न है कि क्यों प्रेरितों 17:30 में परमेश्वर अपरिवर्तित मनुष्यों के घोर पापों को भी अज्ञानता के समय के कार्य मानकर, उनके विषय उन लोगों को दण्ड देने से आनाकानी करता है, उन्हें दण्ड से बचने का अवसर प्रदान करता है, सभी को अपने-अपने पापों के लिए पश्चाताप करने की आज्ञा देता है? असमंजस में डालने वाले इस प्रश्न का उत्तर परमेश्वर के चरित्र और गुणों में, उसके सच्चा खरा न्यायी होने में छुपा हुआ है। परमेश्वर के विषय व्यवस्थाविवरण 32:4 में लिखा है “वह चट्टान है, उसका काम खरा है; और उसकी सारी गति न्याय की है। वह सच्चा ईश्वर है, उस में कुटिलता नहीं, वह धर्मी और सीधा है।” व्यक्ति धर्मी हो या अधर्मी, पापी हो या उद्धार और पाप क्षमा पाया हुआ, परमेश्वर हर किसी के साथ अपनी सच्चाई, खराई, ईमानदारी, और पक्षपात रहित होने के अनुसार ही व्यवहार करता है। उसके ये गुण, उसका यह चरित्र बदलता नहीं है, सदा ही सभी के लिए समान बना रहता है, कार्यकारी रहता है।  


परमेश्वर हम मनुष्यों की रचना और क्षमता को भली-भांति जानता है; उसे सदा ध्यान रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही है: “क्योंकि वह हमारी सृष्टि जानता है; और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही है” (भजन 103:14)। परमेश्वर किसी दुष्ट की भी मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता है, वरन चाहता है कि सभी पाप का दंड पाने से बच जाएँ “सो तू ने उन से यह कह, परमेश्वर यहोवा की यह वाणी है, मेरे जीवन की सौगन्ध, मैं दुष्ट के मरने से कुछ भी प्रसन्न नहीं होता, परन्तु इस से कि दुष्ट अपने मार्ग से फिर कर जीवित रहे; हे इस्राएल के घराने, तुम अपने अपने बुरे मार्ग से फिर जाओ; तुम क्यों मरो?” (यहेजकेल 33:11)।


परमेश्वर की यह कदापि इच्छा नहीं है कि मनुष्य किसी बुराई में फंसे, और गिरे; वह बुराई के द्वारा न तो परखा जाता है, और न ही वह बुराई से किसी की परीक्षा करता है: “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे, कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है” (याकूब 1:13)। 


    साथ ही परमेश्वर का आश्वासन भी है कि वह हमें हमारी सामर्थ्य से बाहर किसी परीक्षा में नहीं पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकासी का मार्ग भी देगा: “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको” (1 कुरिन्थियों 10:13)। इसी लिए परमेश्वर हम मनुष्यों को शैतान द्वारा धूर्तता और चतुराई से लाई गई हमारी सामर्थ्य से बाहर परीक्षाओं में गिर जाने और पाप कर बैठने के लिए मार्ग देने, और उनकी आनाकानी करने के लिए तैयार है।


    हम अगले लेख में इसके बारे में थोड़ा और देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 14

Man’s Ignorance (Part 3)

 

    In the last few articles, we've been trying to understand why God has called the sins of the unregenerate man the "sins of the time of ignorance". The Apostle Paul while preaching under the guidance of God's Holy Spirit, to those in Athens, given to blatant idolatry and works detested by God, speaks to them about the way to their becoming acceptable to God, being restored to fellowship with God, and escaping His wrath. The God given solution was, "Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent" (Acts 17:30). There are three interesting and very important points in what Paul said here.:

1. Instead of immediately punishing them for their sins, God gives an opportunity for them to be saved from their punishment, by treating those sins as done in times of ignorance.

2. That all men everywhere repent for their sins is God’s command, not a mere desire expressed by God.

3. God is not asking the people to obey the Law; but is asking everyone to repent, to seek forgiveness of sins, and to believe in the Lord Jesus, for the redressal of their sins.


    Now the question before us is why in Acts 17:30 is God refusing to punish even those who are unregenerate, the unsaved? Why is He willing to consider the grievous sins of unconverted men to be acts of ignorance, and give them the opportunity to escape punishment, by commanding them to repent of their sins? The answer to this confusing question lies in the character and attributes of God, in His being the honest and upright Judge. Deuteronomy 32:4 says of God, “He is the Rock, His work is perfect; For all His ways are justice, A God of truth and without injustice; Righteous and upright is He." Whether a person is righteous or unrighteous, sinner or saved and forgiven, God treats everyone according to His truth, integrity, honesty, and non-partisan character. These qualities of His, His character never ever changes; His character and attributes always remain the same for all.


    God knows all too well the creation and capabilities of us humans; He always remembers that man is dust: “For He knows our frame; He remembers that we are dust" (Psalm 103:14). Even the death of a wicked person does not please God; God wants everyone to be saved from the punishment of sin “Say to them: 'As I live,' says the Lord God, 'I have no pleasure in the death of the wicked, but that the wicked turn from his way and live. Turn, turn from your evil ways! For why should you die, O house of Israel?'” (Ezekiel 33:11).


    It is never in the will of God that man should ever be ensnared by evil, and fall into sin. He is neither tempted by evil, nor does He tempt anyone with evil: “Let no one say when he is tempted, "I am tempted by God"; for God cannot be tempted by evil, nor does He Himself tempt anyone" (James 1:13).


    Also, it is God's assurance that He will not allow us to be tempted beyond our ability, but will also give us a way out of the temptation: “No temptation has overtaken you except such as is common to man; but God is faithful, who will not allow you to be tempted beyond what you are able, but with the temptation will also make the way of escape, that you may be able to bear it" (1 Corinthians 10:13). That's why God is ready to overlook these times of our ignorance and give us humans the opportunity and the way to be delivered from the consequences of the devious and cunning tricks of Satan, his satanic devices that are beyond our capabilities to manage, through which he leads us into sin.


    We will see some more on this in the next article. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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