प्रभु यीशु की कलीसिया
संबंधी रूपकों में होकर कलीसिया के लिए प्रभु के प्रयोजन समझें - 2
हमने प्रभु यीशु द्वारा कलीसिया को धर्मी
और पवित्र बनाए जाने तथा उसके परमेश्वर की संगति एवं सहभागिता में बहाली के कार्य को, कलीसिया के लोगों के
जीवनों में प्रभु परमेश्वर के उद्देश्यों एवं उनके परिणामों, और उन के विभिन्न पहलुओं को, उन विभिन्न रूपकों (metaphors)
के द्वारा सीखना और समझना आरंभ किया है, जो
परमेश्वर के वचन बाइबल के नए नियम खंड में प्रभु के लोगों, उसकी
कलीसिया के लिए प्रयोग किए गए हैं। ये रूपक हैं: प्रभु का परिवार या घराना;
परमेश्वर का निवास-स्थान या मन्दिर; परमेश्वर का भवन; परमेश्वर की खेती; प्रभु की देह; प्रभु की दुल्हन; परमेश्वर की दाख की बारी, इत्यादि।
इनमें से प्रत्येक रूपक, एक सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी मसीही विश्वासी के प्रभु यीशु और
पिता परमेश्वर के साथ संबंध को, तथा उसके मसीही जीवन,
और दायित्वों के विभिन्न पहलुओं को दिखाता है। साथ ही प्रत्येक रूपक
यह भी बिलकुल स्पष्ट और निश्चित कर देता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार के
किसी भी मानवीय प्रयोजन, कार्य, मान्यता
या धारणा आदि के द्वारा परमेश्वर की कलीसिया का सदस्य बन ही नहीं सकता है; वह चाहे कितने भी और कैसे भी प्रयास क्यों न कर ले। अगर व्यक्ति प्रभु
यीशु की कलीसिया का सदस्य होगा, तो वह केवल प्रभु की इच्छा,
उसके माप-दंडों के आधार पर, उसकी स्वीकृति से
होगा, अन्यथा कोई चाहे कुछ भी कहता रहे, वह वास्तविकता में प्रभु की कलीसिया का सदस्य हो ही नहीं सकता है। और यदि
वह अपने आप को समझता या कहता भी है, तो भी उसकी वास्तविकता
देर-सवेर प्रकट हो जाएगी, और अन्ततः वह अनन्त विनाश के लिए
पृथक कर दिया जाएगा। इसलिए अपने आप को मसीही विश्वासी कहने वाले प्रत्येक जन के
लिए अभी समय और अवसर है कि अपनी वास्तविक स्थिति को भली-भांति जाँच-परख कर,
उचित कदम उठा ले और प्रभु के साथ अपने संबंध ठीक कर ले। इन रूपकों
को किसी विशेष क्रम में नहीं लिया अथवा रखा गया है, सभी रूपक
समान ही महत्वपूर्ण हैं, सभी में मसीही जीवन से संबंधित कुछ
आवश्यक शिक्षाएं हैं।
पिछले लेख में हम इस सूची के पहले रूपक, परमेश्वर का परिवार होने
को देख चुके हैं। आज हम इस सूची के दूसरे रूपक, परमेश्वर का
निवास-स्थान, या मन्दिर होने के संबंध में देखेंगे।
(2) परमेश्वर का निवास स्थान या मन्दिर
कलीसिया और उसके
सदस्यों के परमेश्वर का निवास स्थान, उसका मन्दिर होने से
संबंधित परमेश्वर के वचन बाइबल में से कुछ पदों को देखिए:
- “क्या तुम नहीं जानते, कि तुम परमेश्वर का
मन्दिर हो, और परमेश्वर का आत्मा तुम में वास करता है?
यदि कोई परमेश्वर के मन्दिर को नाश करेगा तो परमेश्वर उसे नाश
करेगा; क्योंकि परमेश्वर का मन्दिर पवित्र है, और वह तुम हो” (1 कुरिन्थियों 3:16-17)।
- “क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह
पवित्रात्मा का मन्दिर है; जो तुम में बसा हुआ है और
तुम्हें परमेश्वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं
हो?” (1 कुरिन्थियों 6:19)।
- “और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर का मन्दिर हैं; जैसा
परमेश्वर ने कहा है कि मैं उन में बसूंगा और उन में चला फिरा करूंगा; और मैं उन का परमेश्वर होऊंगा, और वे मेरे लोग
होंगे” (2 कुरिन्थियों 6:16)।
- “कि यदि मेरे आने में देर हो तो तू जान ले, कि
परमेश्वर का घर, जो जीवते परमेश्वर की कलीसिया है,
और जो सत्य का खंभा, और नेव है; उस में कैसा बर्ताव करना चाहिए” (1 तीमुथियुस
3:15)।
- “पर मसीह पुत्र के समान उसके घर का अधिकारी है, और
उसका घर हम हैं, यदि हम साहस पर, और
अपनी आशा के घमण्ड पर अन्त तक दृढ़ता से स्थिर रहें” (इब्रानियों 3:6)।
उपरोक्त पदों में प्रभु की कलीसिया के
लोगों, उसके
वास्तविक मसीही विश्वासियों को परमेश्वर का, पवित्र आत्मा का
और प्रभु यीशु का मन्दिर या निवास स्थान कह कर संबोधित किया गया है। किसी का
‘निवास स्थान’ होने के सामान्य और स्वाभाविक प्रयोग से यह प्रकट
है कि उस का निवास स्थान वह स्थान होता है जहाँ वह निवास करता है, रहता है; जो उसका अपना होता है, जहाँ वह बिना किसी औपचारिकता
के खुले दिल से रह सकता है, अपनापन और शांति महसूस कर सकता
है। और, मन्दिर वह स्थान होता है जहाँ परमेश्वर की आराधना और
उपासना की जाती है, उसे आदर और महिमा दी जाती है, तथा जो उससे मिलने का स्थान होता है। तात्पर्य यह कि प्रभु यीशु की
वास्तविक कलीसिया का प्रत्येक सदस्य त्रिएक परमेश्वर का अपना निवास स्थान है,
जहाँ पर वह बिना किसी औपचारिकता के, खुले दिल
से रह सकता है, व्यवहार कर सकता है, अपनापन
और शांति महसूस कर सकता है। एक ऐसा स्थान जहाँ त्रिएक परमेश्वर को, कलीसिया के उस सदस्य से जिसमें वह निवास कर रहा है, योग्य
आदर और सम्मान मिलता है, जिसके मन से परमेश्वर की सच्ची
आराधना आत्मा और सच्चाई से निकलती है (यूहन्ना 4:23-24), और
जहाँ परमेश्वर अपनी उस संतान के साथ मिल सकता है, उससे संगति
और सहभागिता रख सकता है (यूहन्ना 14:21, 23)।
इसी बात से स्पष्ट और प्रकट है कि
परमेश्वर का निवास स्थान वही हो सकता है जिसे परमेश्वर अपना निवास स्थान, अपना मन्दिर बनाता है।
किसी भी मनुष्य द्वारा अपने ऊपर “परमेश्वर का निवास स्थान;
परमेश्वर का मन्दिर” लेबल लगा लेने से - चाहे
यह लेबल कितना भी प्रमुख करके क्यों न लगाया जाए, या उसका
कितना भी जोर-शोर से प्रदर्शन और प्रचार क्यों न किया जाए, वह
व्यक्ति वास्तविकता में परमेश्वर का निवास स्थान या मन्दिर नहीं बन जाता है। उसके
इस खोखले दावे की पोल देर-सवेर खुल ही जाएगी। जिसे परमेश्वर अपना निवास स्थान,
अपना मन्दिर स्वीकार करे, वही इस आदर को
प्राप्त करेगा, अन्य सभी तिरस्कृत कर दिए जाएंगे। वास्तविकता
में प्रभु की कलीसिया का वही सदस्य हो सकता है जिसे प्रभु परमेश्वर सदस्य स्वीकार
करे; और परमेश्वर मानवीय विधि-विधानों से बंधा हुआ नहीं है
कि लोग अपने द्वारा स्थापित कुछ मान्यताओं और धारणाओं को, अपनी
बनाई गई कुछ रीतियों को पूरा करें, और परमेश्वर उन्हें अपनी
कलीसिया में सम्मिलित करने के लिए बाध्य हो जाए। परमेश्वर उन्हें ही स्वीकार करता
है जो उसके मानकों, उसके निर्देशों के अनुसार उसके साथ जुड़ते
हैं।
परमेश्वर का निवास स्थान, उसका मन्दिर होने से
संबंधित ये पद हमें सिखाते हैं कि परमेश्वर अपने निवास स्थान की रक्षा करता है,
उसे दूषित करने या हानि पहुँचाने वाले को परमेश्वर दण्ड देता है (1
कुरिन्थियों 3:16-17)। उसका निवास स्थान होने
का आदर यह भी दिखाता है कि अब वह व्यक्ति अपना नहीं रहा है, वरन
परमेश्वर के स्वामित्व की अधीनता में आ गया है (1 कुरिन्थियों
6:19)। परमेश्वर का निवास स्थान, उसका
मन्दिर होने के नाते, परमेश्वर अपने लोगों से एक विशिष्ट
व्यवहार, संसार से भिन्न जीवन शैली की अपेक्षा करता है (1
तीमुथियुस 3:15), जिसके लिए व्यक्ति को साहस
और आशा को दृढ़ता से अंत तक थामे रहना होगा (इब्रानियों 3:6)।
परमेश्वर द्वारा अपनी कलीसिया के प्रत्येक जन से रखी जाने वाली इन अपेक्षाओं,
उन को इस महान स्तर और आदर के प्रदान किए जाने के साथ ही एक ऐसी भी
बात भी साथ दे दी जाती है, जो कोई मनुष्य कभी भी अपने किसी
भी प्रयास या प्रयोजन से कदापि नहीं कर सकता है - “...जैसा
परमेश्वर ने कहा है कि मैं उन में बसूंगा और उन में चला फिरा करूंगा; और मैं उन का परमेश्वर होऊंगा, और वे मेरे लोग होंगे”
(2 कुरिन्थियों 6:16)। जरा कल्पना कीजिए,
सर्वसामर्थी सृष्टिकर्ता परमेश्वर अपनी कलीसिया के लोगों के अंदर
बसेगा, उनके मध्य में, उनके साथ चला
फिरा करेगा, और उन्हें अपने लोग बना कर रखेगा; “सो हम इन बातों के विषय में क्या कहें? यदि परमेश्वर
हमारी ओर है, तो हमारा विरोधी कौन हो सकता है?” (रोमियों 8:31)।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो क्या आप यह सच्चे मन
और पूरी ईमानदारी से कह सकते हैं कि परमेश्वर आपके अंदर निवास करता है, और आपमें एक अपनापन और शांति महसूस करता है? क्या आपके जीवन और व्यवहार से
आपका संसार से पृथक होकर परमेश्वर को आदर और महिमा देना सर्वदा प्रकट होता रहता है?
क्या आपके मन से परमेश्वर की आराधना उस “आत्मा और सच्चाई” से निकलती
है जिसकी वह लालसा रखता है, या आप बस उससे कुछ-न-कुछ माँगते ही रहते हैं, और किसी-न-किसी
बात को लेकर कुड़कुड़ाते ही रहते हैं, या शिकायत ही करते रहते हैं? क्या आप अपने आप
को अपना नहीं, परमेश्वर का समझते हैं, और
परमेश्वर की इच्छा तथा आपसे अपेक्षाओं को पूरा करने में प्रयासरत रहते हैं?
क्या आप अपनी मसीही गवाही को बनाए रखने के लिए, बिना कोई समझौता किए साहस और दृढ़ता से हर परिस्थिति को सहने के लिए तैयार
रहते हैं? क्या इस दूसरे रूपक की शिक्षाओं के समक्ष आप अपने
को प्रभु की सच्ची कलीसिया का वास्तविक सदस्य देखते हैं? यदि
नहीं, तो प्रभु अभी आपको अवसर प्रदान कर रहा है कि अपनी गलतफहमी
से निकलकर, उसके साथ अपने संबंधों को ठीक कर लें; वास्तविकता में परमेश्वर का निवास स्थान, उसका
मन्दिर बन जाएं, और अपने अनन्तकाल को सुनिश्चित एवं आशीषित
कर लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- उत्पत्ति
31-32
- मत्ती 9:18-38