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रविवार, 5 दिसंबर 2021

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान - 3


परमेश्वर की आज्ञाकारिता याधर्मऔरभलाईके काम?

मसीही जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा दिए जाने वाले वरदानों के विषय अध्ययन करते हुए, हम पिछले दोनों लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर प्रत्येक मसीही विश्वासी को कार्यशील चाहता है, और उसने हर एक के लिए कोई न कोई कार्य पहले से निर्धारित कर रखा है। हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर ने जिसके लिए जो सेवकाई निर्धारित की है, उस सेवकाई को वही व्यक्ति ही ठीक से कर सकता है, चाहे उसे अपने ऊपर तथा अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं पर कितना भी अविश्वास क्यों हो। परमेश्वर द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए निर्धारित कार्य को भली-भांति करने, और इस संसार में रहते हुए परमेश्वर के लिए उपयोगी होने, तथा संसार के लोगों के समक्ष मसीही जीवन की सही गवाही प्रदर्शित करने के उद्देश्य से परमेश्वर पिता ने अपने लोगों के लिए एक अद्भुत प्रयोजन किया है। मसीही विश्वासियों में सर्वदा निवास करने और उनका मार्गदर्शन तथा सहायता करने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा, प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसकी निर्धारित सेवकाई के लिए कोई न कोई उपयुक्त एवं उपयोगी वरदान भी देता है। इस वरदान की सहायता तथा सही उपयोग के द्वारा मसीही विश्वासी एक सच्चा मसीही जीवन जी सकता है और अपनी निर्धारित सेवकाई को पूरा भी कर सकता है।

शैतान और उसके दूत सदा ही परमेश्वर के कार्यों में बाधा डालने, उन्हें बिगाड़ने, और परमेश्वर की योजनाओं के कार्यान्वित होने में किसी न किसी रीति से रुकावटें लाने के प्रयास में लगे रहते हैं। वे सदा ही संसार के लोगों के समक्ष मसीही विश्वास को व्यर्थ, मसीही जीवन को निरर्थक, तथा सुसमाचार को अप्रभावी एवं अनुपयोगी दिखाने के प्रयास में लगे रहते हैं। अपने इस शैतानी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे कई प्रकार के साधन अपनाते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि वे हर किसी को दुराचारी तथा समाज की दृष्टि में पतित व्यक्ति बनाएं, या बनाए रखें। वे अपने इस उद्देश्य को व्यक्ति कोधर्मी’, ‘धर्मके तथा ‘भलाई’ के कार्य करने वाला, और इन कार्यों के द्वारा लोगों में प्रतिष्ठित एवं उच्च स्थान और मान रखने वाला बना कर भी परमेश्वर का विरोध करने की अपनी युक्तियों और योजनाओं को कार्यान्वित कर सकते हैं - और बहुधा यही करते भी हैं। यह एक बार को बहुत अटपटा और अस्वीकार्य प्रतीत हो सकता है, किन्तु यदि बाइबल में दी गई बातों पर थोड़ी गंभीरता से तथा पिछले लेखों को स्मरण करते हुए विचार करें तो प्रकट हो जाएगा कि यह कहना गलत नहीं है। 

ध्यान कीजिए, सृष्टि के आरंभ में, जब पृथ्वी पर पाप नहीं था, शैतान और उसकी सेनाओं का कोई बोल-बाला नहीं था, आदम और हव्वा परमेश्वर के साथ संगति में तथा परमेश्वर द्वारा उनके लिए लगाई गई अदन की वाटिका में बड़े आनन्द और स्वच्छ मन से रहते थे, ऐसे में शैतान ने संसार में पाप को कैसे प्रवेश दिलाया? उसने हव्वा में वह करने की इच्छा जागृत की जो हव्वा की अपनी बुद्धि और समझ, तथा दृष्टि में अच्छा और लाभदायक था, यद्यपि हव्वा में जागृत हुई वह लालसा परमेश्वर की प्रकट एवं ज्ञात इच्छा के अनुसार नहीं थी। फिर भी हव्वा ने स्वयं भी वह अनुचित कार्य किया, और आदम से भी करवाया; ऐसा कार्य जो चाहे प्रतीत होने में अहानिकारक था, किन्तु वास्तविकता में परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं था, और पाप को संसार में प्रवेश मिल गया, संसार पाप और शैतान के चंगुल में फंस गया। मनुष्यों द्वारा किया गया प्रथम पाप परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता था; इसके विपरीत, विचार कीजिए, परमेश्वर ने किस बात को मनुष्यों के द्वारा उसकी भक्ति और सेवा के लिए उसकी दृष्टि में सबसे उत्तम तथा सर्वोपरि कहा है? उत्तर कठिन नहीं है - परमेश्वर ने मनुष्यों से सदा केवल अपनी आज्ञाकारिता ही चाही है। इस संदर्भ में बाइबल से कुछ बातों को देखिए और विचार कीजिए:

  • परमेश्वर द्वारा कही गई बात, और दिए गए निर्देशों के निर्वाह को बाइबल में सभी बलिदानों और भेंटों से अधिक बढ़कर कहा गया है (1 शमूएल 15:22) 
  • परमेश्वर यहोवा ने यशायाह में होकर अपने लोगों इस्राएलियों पर यह स्पष्ट कर दिया कि उसे उनके पर्वों, भेंटों, बलिदानों से घृणा है, क्योंकि वे उसकी आज्ञाकारिता में नहीं चल रहे थे (यशायाह 1:11-19); यहाँ पद 19 में परमेश्वर स्पष्ट कहता है, “यदि तुम आज्ञाकारी हो कर मेरी मानो,... ”
  • पुराने नियम की अंतिम पुस्तक, मलाकी 1:10 में परमेश्वर ने इस्राएल की अनाज्ञाकारिता और मन-मर्ज़ी का जीवन जीने और कार्य करने के संदर्भ में उन से बहुत दुखी मन से कहा, “भला होता कि तुम में से कोई मन्दिर के किवाड़ों को बन्द करता कि तुम मेरी वेदी पर व्यर्थ आग जलाने न पाते! सेनाओं के यहोवा का यह वचन है, मैं तुम से कदापि प्रसन्न नहीं हूं, और न तुम्हारे हाथ से भेंट ग्रहण करूंगाऔर फिर मलाकी के समय से लेकर प्रभु यीशु मसीह के आगमन तक 400 वर्ष का वह अंधकारमय समय है जब परमेश्वर ने इस्राएलियों से बात करना बंद कर दिया, उन्हें उनकी इच्छाओं पर छोड़ दिया। 
  • प्रभु यीशु मसीह का संसार में आने और समस्त मानवजाति के लिए पापों से मुक्ति तथा परमेश्वर के साथ संगति और सहभागिता पुनःस्थापित करने का मार्ग परमेश्वर की आज्ञाकारिता, तथा बाइबल में लिखी बातों के पूरा करने के द्वारा था (1 कुरिन्थियों 15:1-4; इब्रानियों 10:5-9)
  • प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को बल देकर प्रभु की बातें मानने के लिए कहा (लूका 6:46-49) 
  • जब शिष्यों ने प्रभु के लिए मंडप बनाकर प्रभु को आदर देना चाहा, तो परमेश्वर ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें प्रभु की बातें मानने के लिए कहा (लूका 9:33-35) 
  • प्रभु ने परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए क्रूस की मृत्यु को सहना भी स्वीकार कर लिया (मत्ती 26:38-44) 

      अब उपरोक्त प्रथम पाप के कारण को और परमेश्वर की मनुष्य के लिए इच्छा की बातों को साथ मिलाकर देखिए, तो बात स्पष्ट हो जाएगी। हर वह कार्य जो परमेश्वर की इच्छा से बाहर, मनुष्य की अपनी इच्छा और अपनी ही दृष्टि में भला, उपयोगी, तथा लाभप्रद होने के अंतर्गत किया गया हो, वह परमेश्वर को कदापि स्वीकार नहीं है - चाहे वह भक्ति, श्रद्धा, भलाई, आदि की भावनाओं के अंतर्गत किया गया और मनुष्यों में कितना भी आदरणीय क्यों न हो। ऐसा इसलिए क्योंकि न केवल यह परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता है, वरन इसलिए भी क्योंकि ऐसे कार्यों में होकर शैतान मनुष्यों के अंदर उनकी स्व-धार्मिकता, उनके द्वारा स्वयं-निर्धारित भलाई के माप-दण्ड, और अन्य मनुष्यों के साथ अपनी तुलना करने औरबड़े-छोटेहोने का आँकलन करने आदि भावनाओं को जागृत करके, अहम तथा अपने कार्यों के लिए घमंड में डाल देता है - यह घमंड चाहे नम्रता और दीनता के आवरण में अप्रत्यक्ष और कितना भी छिपा हुआ क्यों न हो। और कैसा भी, कितना ही लेश-मात्र भी घमण्ड परमेश्वर स्वीकार नहीं करता है; जहाँ जरा सा भी घमण्ड है, वहाँ परमेश्वर का साथ और स्वीकृति कदापि नहीं हो सकते हैं। और इस प्रकार से शैतान लोगों को उनकी धार्मिकता, उनके भले कार्यों, उनके द्वारा मनुष्यों में मान-सम्मान अर्जित करने, मनुष्यों में प्रतिष्ठित होने आदि जैसी बातों की लालसा रखने तथा करते रहने में फंसा कर, परमेश्वर की इच्छा जानने, परमेश्वर का आज्ञाकारी होने, परमेश्वर द्वारा उनके लिए नियुक्त और निर्धारित कार्य को करने से, अर्थात उनकी आशीषों से उन्हें वंचित कर देता है। उस व्यक्ति के लिए परमेश्वर ने जो योजना बनाई और निर्धारित की, उसका पालन करने के स्थान पर, हव्वा के समान, वह शैतान के फुसलाए जाने में आकर अपनी ही दृष्टि में सही और लाभदायक करने के द्वारा, फिर वह आदम और हव्वा के समान ही परमेश्वर के विमुख हो जाता है और शैतान के हाथों की कठपुतली बन जाता है। परिणाम-स्वरूप उसके ये सभीधर्मअथवाभलाईके कार्य परमेश्वर की दृष्टि में अस्वीकार्य (यशायाह 64:6), और जो वरदान परमेश्वर ने उसके लिए रखे हैं, वे सभी व्यर्थ हो जाते हैं। अगले लेख में हम इसे मसीही जीवन के संदर्भ में और विस्तार से देखेंगे।

 यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो अपने जीवन, व्यवहार और कार्यों को जाँचिए कि आप परमेश्वर की इच्छा में होकर, उसकी आज्ञाकारिता में चल रहे हैं कि नहीं? या आप अपनेईसाई धर्मऔर मत-समुदाय-डिनोमिनेशंस के नियमों तथा उनके अगुवों की बातों का निर्वाह करने के आधार पर यह मानकर चल रहे हैं कि आप अपने लिए परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर रहे हैं। ध्यान कीजिए, राजा दाऊद ने भी परमेश्वर के नबी नातान की सहमति के साथ परमेश्वर के लिए भवन बनवाना चाहा था, किन्तु परमेश्वर ने इसे तुरंत ही अस्वीकार कर दिया था (1 इतिहास 17:1-4)। हर बात में, हर बात के लिए प्रार्थना में रहकर हर कार्य के विषय परमेश्वर से उसकी इच्छा जानने के बाद ही उस बात को करें। परम्पराएं और धार्मिक रीति-रिवाज़ निभाने के चक्करों में न रहें। आज के ईसाई धर्म और मसीही समाज की अधिकांश परम्पराएं और धार्मिक उत्सव तथा रीतियाँ परमेश्वर द्वारा दी हुई या बाइबल में पाई जाने वाली बातें नहीं, वरन अन्यजातियों के धर्मों में से ईसाई धर्म में अपनाई गई बातें हैं। इसलिए उनके निर्वाह को लेकर अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य मत समझिए। 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • दानिय्येल 1-2    
  • 1 यूहन्ना 4