प्रभु यीशु की कलीसिया में जुड़ना - भक्ति या परिवार और वंशावली से नहीं!
पिछले तीन
सप्ताहों से हम प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया के विषय बाइबल से अध्ययन करते आ रहे
हैं। हमने मत्ती 16:18 में दिए प्रभु यीशु के कथन से इसे
देखना आरंभ किया था, जहाँ बाइबल में पहली बार “कलीसिया” शब्द का प्रयोग किया गया है। हमने “कलीसिया” शब्द के अर्थ को समझा, और यह समझा कि कैसे यह पद कलीसिया को पतरस पर आधारित नहीं करता है। हमने
यह देखा कि कलीसिया उन विश्वव्यापी लोगों का समूह है जो अपने परिवार, वंशावली, डिनॉमिनेशन, कार्यों,
परंपराओं के निर्वाह, आदि के आधार पर नहीं,
वरन अपने पापों से पश्चाताप करने, अपने पापों
के लिए प्रभु यीशु से क्षमा माँगने, उसे अपना व्यक्तिगत
उद्धारकर्ता स्वीकार करके, अपनी जीवन उसे पूर्णतः समर्पित
करके, प्रभु यीशु की अधीनता में और उसके वचन की आज्ञाकारिता
में जीवन व्यतीत करने का निर्णय लेते हैं। ये समर्पित लोग ही प्रभु की कलीसिया हैं,
जिन्हें बाइबल में कई रूपकों (metaphors) के
द्वारा भी संबोधित किया गया है। हमने देखा कि प्रभु यीशु ही स्वयं अपनी कलीसिया
बना रहा है, वही उसका आधार है, वही
अपने लोगों को स्वयं कलीसिया में जोड़ता है, और उसके हाथों
में अभी कलीसिया निर्माणाधीन है। कोई भी मनुष्य किसी भी मानवीय अथवा किसी प्रकार
की संस्थागत प्रक्रिया से प्रभु की कलीसिया में कदापि सम्मिलित नहीं हो सकता है;
और जो कोई घुस भी आता है तो वह प्रभु द्वारा या तो अभी, नहीं तो जगत के अन्त के समय प्रभु की कलीसिया से पृथक कर दिया जाएगा,
अनन्त विनाश में डाल दिया जाएगा। और पिछले लेख में हमने देखा था कि
प्रभु का दूसरा आगमन, अपनी इसी कलीसिया को अपने पास उठा लेने
और स्वर्ग में अपने साथ सुरक्षित कर लेने के लिए होगा।
प्रेरितों 2 अध्याय, प्रभु की प्रथम कलीसिया के स्थापित होने का वर्णन है; प्रेरितों 2:47 में लिखा है, “... और जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में
मिला देता था।” इस प्रथम कलीसिया
में सम्मिलित करने के लिए प्रभु ने जिस प्रक्रिया का प्रयोग किया, वही आज भी प्रभु की कलीसिया के साथ प्रभु द्वारा लोगों को जोड़े जाने के
लिए प्रयोग की जाती है। इस प्रक्रिया को समझने के लिए प्रेरितों 2 अध्याय का एक संक्षिप्त पुनःअवलोकन कर लेते हैं। प्रभु यीशु ने अपने
स्वर्गारोहण से पहले अपने शिष्यों से कहा कि वे यरूशलेम में पवित्र आत्मा की
सामर्थ्य प्राप्त करने के प्रतीक्षा करते रहें, और जब वे
सामर्थ्य प्राप्त कर लें तब उसके सुसमाचार के प्रचार की सेवकाई पर निकलें
(प्रेरितों 1:4-8)। प्रेरितों 2 अध्याय
का आरंभ शिष्यों द्वारा पवित्र आत्मा प्राप्त करने के साथ होता है; इस अद्भुत घटना को देखकर वहाँ पर्व मनाने के लिए एकत्रित हुए “भक्त यहूदी” (प्रेरितों 2:5) विस्मित
हो गए, और पतरस ने खड़े होकर उनके इस असमंजस का निवारण भी
किया, और पुराने नियम के हवालों के साथ उन्हें दिखाया कि यह
परमेश्वर की ओर से है, तथा साथ ही प्रभु यीशु मसीह में पापों
की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार का प्रचार भी किया। पतरस के इस प्रचार से “तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष
प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयो, हम
क्या करें?” (प्रेरितों 2:37)।
उनके इस प्रश्न के उत्तर में पतरस उन्हें प्रेरितों 2:38-42 में
सात बातें करने के लिए कहता है, जिनके होने से वे उद्धार
पाएंगे प्रभु और उसकी कलीसिया के साथ जुड़ेंगे, और मसीही जीवन
में अग्रसर तथा सुदृढ़ होंगे, प्रभु परमेश्वर के लिए उपयोगी
होंगे। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उन लोगों का उद्धार उनके किन्हीं कार्यों के
द्वारा था; वरन उनका इन सात बातों को मानना, प्रभु के उसके साथ जुड़ें के आह्वान को स्वीकार करके, उसकी सही प्रतिक्रिया देना था, प्रभु का आज्ञाकारी
होना था।
हम इन सात बातों को आने वाले दिनों में
क्रमवार देखेंगे। आज हम इसकी पृष्ठभूमि पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। ध्यान कीजिए, जिस दिन शिष्यों द्वारा
पवित्र आत्मा को प्राप्त करने की घटना हुई, वह पिन्तेकुस्त
के पर्व का दिन था (2:1), जो लैव्यव्यवस्था 23 अध्याय में दिए गए सात पर्वों में से एक था, जिसे
मनाने के लिए यहूदी यरूशलेम में एकत्रित थे, और उन्हें 2:5
में “भक्त यहूदी” कहा
गया है। इन “भक्त” यहूदियों को जब
पवित्र आत्मा की सामर्थ्य में होकर सुसमाचार सुनाया गया, तो
जैसा 2:37 में लिखा है:
- उनके
हृदय छिद गए;
- उन्हें
एहसास हुआ कि जो कुछ व्यवस्था में लिखा हुआ था उसे करने के बावजूद उनकी भक्ति
अभी अपूर्ण है;
- उनके
सामने यह प्रकट हो गया कि उनके पास इस समस्या का समाधान उपलब्ध नहीं है;
- उन्हें
यह भी समझ आ गया कि उनके धार्मिक अगुवे उन्हें कोई समाधान नहीं देने पाएंगे, इसीलिए वे तुरंत ही प्रभु के
शिष्यों की ओर समाधान पाने के लिए मुड़े, यहूदी
धर्म-गुरुओं के पास नहीं गए;
- उन
में से जितनों ने पतरस द्वारा बताए गए समाधान को स्वीकार किया, उसका पालन किया, लगभग 3000 लोग उसी दिन प्रभु के शिष्यों के साथ
जुड़ गए, प्रभु की कलीसिया स्थापित हो गई।
उपरोक्त तथ्यों
पर थोड़ा विचार कीजिए। जिनके लिए लिखा गया है, वे सभी यहूदी -
अर्थात, अब्राहम, इसहाक, याकूब के वंशज थे, परमेश्वर के लोग कहलाए जाते थे।
वे “भक्त” थे; परमेश्वर
के प्रति उनकी भक्ति और श्रद्धा पर यहाँ कोई प्रश्न नहीं उठाया गया है, कोई कटाक्ष नहीं किया गया है, वरन उनकी भक्ति को
स्वीकार किया गया है, उसे मान्यता दी गई है। किन्तु यह सब
होते हुए भी, उनमें से किसी को भी पश्चाताप
करने से पहले, प्रभु की कलीसिया का भाग नहीं माना गया। केवल
जिन्होंने पतरस की बात मानी और उसके अनुसार पश्चाताप किया, उन्हें
ही कलीसिया का अंग बनाया गया। अर्थात, उनकी भक्ति और वंशावली
के बावजूद, वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने से दूर थे;
जैसा कि प्रभु ने नीकुदेमुस से भी कहा था (यूहन्ना 3:1-13) -
उस उच्च ओहदा प्राप्त और आदरणीय यहूदी धर्म-गुरु को भी नया जन्म
लेना, जल और आत्मा से जन्म लेना अनिवार्य था, तब ही वह परमेश्वर के राज्य को देखने पाता (यूहन्ना 3:3), उसमें प्रवेश करने पाता (यूहन्ना 3:5)।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो अपने आप को जाँच परख
लें कि कहीं आप भी इन “भक्त” यहूदियों
के समान, अपनी भक्ति, परंपराओं के
निर्वाह, परिवार और वंशावली आदि के आधार पर तो अपने आप को
प्रभु की कलीसिया का अंग नहीं समझ रहे हैं? क्या आपने वास्तव
में पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगने, उसे अपना जीवन पूर्णतः समर्पित करने के द्वारा नया जन्म प्राप्त किया है?
यदि नहीं, तो आप भी उन “भक्त”
यहूदियों और नीकुदेमुस के समान एक ऐसी धार्मिकता में जीवन व्यतीत कर
रहे हैं, जिसका अंतिम परिणाम बहुत दुखदायी होगा। अभी समय और
अवसर रहते, अपनी स्थिति को ठीक कर लीजिए, उन 3000 के समान, अपने लिए सही
निर्णय कर के अपने अनन्त भविष्य को सुरक्षित एवं आशीषित कर लीजिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- उत्पत्ति
49-50
- मत्ती 13:31-58