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परमेश्वर की आराधना के तरीके (1)
पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रार्थना और आराधना परमेश्वर के साथ संपर्क करने के, वार्तालाप करने के भिन्न तरीके हैं। प्रार्थना में व्यक्ति परमेश्वर से कुछ माँगता है, चाहे अपने लिए या औरों के लिए। आराधना में व्यक्ति परमेश्वर को देता है; और हम ने इस निष्कर्ष के साथ समाप्त लिया था कि मसीही विश्वासी के लिए क्यों केवल प्रार्थना करने वाला नहीं, वरन आराधना करने वाला भी होना बहुत अधिक लाभप्रद होता है।
दोनों, प्रार्थना और आराधना व्यक्ति के अपने शब्दों में हो सकते हैं, या किसी अन्य के शब्दों के प्रयोग के द्वारा भी हो सकते हैं; प्रार्थना और आराधना करने के ये दोनों ही बहुत जाने-पहचाने, बिलकुल जायज़, एवं स्वीकार्य तरीके हैं। दूसरों के शब्दों से अभिप्राय है कहीं पर लिखी या दर्ज, औरों के द्वारा प्रयोग की गई प्रार्थना या आराधना का उपयोग करना; यह परमेश्वर के वचन से हो सकता है, जैसे कि भजनों में से या बाइबल के खण्डों में से लेकर उपयोग करने के द्वारा; या परमेश्वर के अन्य संतानों, अन्य लोगों के द्वारा लिखे गए गीतों या प्रार्थनाओं को गाने या बोलने के द्वारा।
परमेश्वर के वचन से, मुख्यतः मूसा में होकर प्रदान की गई व्यवस्था से, तथा बाइबल के अन्य स्थानों से हम देख सकते हैं कि परमेश्वर को देना, यानि कि उसकी आराधना, 3 तरीकों से की जा सकती है:
भौतिक वस्तुओं को अर्पित करने के द्वारा:-
किसी बलिदान को चढ़ाने के द्वारा - किसी पशु अथवा खेत की उपज आदि को परमेश्वर को अर्पित करना
अपनी आमदनी अथवा भौतिक समृद्धि या उन्नति के भाग को परमेश्वर को अर्पित करना
बोले गए शब्दों के द्वारा:- ये व्यक्ति के अपने शब्द हो सकते हैं, या किसी अन्य के शब्दों का उपयोग हो सकता है, जैसे कि औरों के द्वारा लिखे गए भजन, स्तुतिगान, गीत आदि गाना। शब्दों के प्रयोग से, चाहे वे अपने हों अथवा किसी और के लिखे हुए हों, व्यक्ति आराधना के लिए:
प्रभु परमेश्वर के प्रति विभिन्न उद्गार या भावनाएँ व्यक्त कर सकता है, जैसे कि प्रेम, आदर, कृतज्ञता, सराहना, श्रद्धा, भक्ति, इत्यादि।
परमेश्वर के प्रति धन्यवादी हो सकता है, उसके द्वारा किए गए किसी कार्य के लिए, उसके द्वारा उपलब्ध करवाई किसी बात या वस्तु के लिए, उसके द्वारा बताए या सिखाए गए किसी मार्गदर्शन के लिए, उसके द्वारा दिए गए किसी आश्वासन या वायदे के लिए, आदि।
परमेश्वर के कार्यों, विशेषताओं, और गुणों, आदि के लिए उसकी स्तुति करना।
परमेश्वर जो है और जिस प्रकार से अपने आप को प्रकट करता है, जैसे वह कार्य करता है आदि, उनका वर्णन या बखान करना।
शारीरिक हावभाव के द्वारा व्यक्त कर के:- अर्थात, अपनी भावनाओं और मनोदशा को शारीरिक मुद्राओं और हावभाव के द्वारा व्यक्त करना, जैसे कि दण्डवत करना (अय्यूब 1:20-21), सिर झुकाना (निर्गमन ४:३१), हाथों को उठाना (भजन 63:4), इत्यादि। आराधना के विषय अकसर उपयोग किए जाने वाला बाइबल का खण्ड, यूहन्ना 4:23-24 में मूल यूनानी भाषा के शब्द ‘प्रोस्कुनियो’ का अनुवाद “आराधना” किया गया है, और ‘प्रोस्कुनियो’ का शब्दार्थ होता है पूरी तरह से झुक जाना, श्रद्धा और समर्पण में औंधे मुँह गिर जाना। अर्थात, प्रभु यहाँ पर जो कह रहा है उसका अर्थ है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को ढूँढ़ रहा है जो उसके सामने पूर्णतः नतमस्तक रहेंगे, नम्रता, भक्ति और श्रद्धा में उसके सामने दण्डवत करे हुए, बिछे हुए रहेंगे; यानी कि परमेश्वर के प्रति बिना कोई प्रश्न उठाए पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी बने रहेंगे।
सामान्यतः हम अपने मसीही जीवन का आरंभ अलग-अलग बातों और परिस्थितियों के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना सीखने के साथ करते हैं, और अधिकांश मसीही विश्वासी परमेश्वर के साथ अपने संपर्क एवं वार्तालाप में इसी स्तर पर ही बने रह जाते हैं। कुछ होते हैं जो परमेश्वर के प्रति धन्यवादी होने तक बढ़ते हैं। लेकिन कम ही होते हैं जो आराधना में परमेश्वर की स्तुति करने तक पहुँचते हैं, और ऐसे आराधक को देखना जो परमेश्वर का गुणानुवाद करता है यदा-कदा ही देखने को मिलता है।
हम परमेश्वर की आराधना के इन विभिन्न तरीकों के बारे में आगे के लेखों में देखेंगे और उन्हें समझेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 3-4
मरकुस 10:32-52
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Ways of Worshiping God (1)
In the previous article we have seen that prayer and worship are different ways of communicating with God. In prayer a person asks for things from God, whether for self or for others. In worship, the person gives to God; and we had concluded by seeing that how, for Christian Believers, worshiping is far more powerful and beneficial than only praying.
Both, Prayer and Worship can be in one's own words, or in borrowed words; both are well known and well accepted, absolutely valid ways of praying or worshipping. Borrowed words means using other’s recorded prayers and worship; it may be from God's Word, e.g., from Psalms or Biblical passages often quoted for personal use; or the worship or prayer songs written and sung by other children of God.
From the Word of God, mainly from the Law given through Moses, and the other Biblical examples, we can see that Worship or giving to the Lord can be through 3 things:
Through offering Material things:
Offering sacrifices - animal, or farm-produce, etc.
Offering from one's income, or from material gains etc.
Through offering Spoken Words: - This can be in one’s own words, or it can be through the words of others e.g., singing hymns, songs, Psalms etc. written by others. Using words, own or of others, a person can Worship God by:
Expressing various kinds of feelings and emotions towards God, e.g., of love, honor, gratitude, adoration, admiration, reverence etc. towards the Lord God.
Expressing Thankfulness for what God has done, has provided, has shown and taught, has planned, has said and assured etc.
Expressing praise for God’s works, attributes, and characteristics etc.
Expressing exaltation for who God is and how He manifests Himself, How He acts, etc., in various ways.
Through Gestures: - i.e., Expressing one's feelings and state of heart through physical postures and actions, e.g. prostrating oneself (Job 1:20-21), bowing down (Exodus 4:31), lifting hands (Psalms 63:4) etc. In fact, in the classical passage often used to talk about worship John 4:23-24, the Greek word translated as "Worship" is "proskuneo", which literally means to fully bend over, to fall face down and prostrate in adoration and submission. So, what the Lord is saying here is that God is seeking those who will totally submit themselves to Him, in humility, adoration, and reverence - staying face down and spread out before Him i.e., being absolutely and unquestioningly obedient to Him.
Usually, we start our Christian Living with learning to say Prayers for various things and circumstances, and that is where many Believers remain stuck in their communications with God. Some progress to being Thankful, which is one way of worshipping God. But only a few go on to Praising God, and scarce are the ones who reach the point of Exalting God.
We will look at these various ways of worshipping God in the coming articles, and understand about them.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Deuteronomy 3-4
Mark 10:32-52
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