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मसीही विश्वासी - प्रभु के समान होने का प्रयास करता है
सुसमाचारों में दिए गए वर्णन में से, प्रभु यीशु मसीह के शिष्य का तीसरा गुण है कि उसे अपने उद्धारकर्ता और गुरु, प्रभु यीशु मसीह की समानता में होना है। प्रभु यीशु ने कहा, “चेला अपने गुरु से बड़ा नहीं; और न दास अपने स्वामी से। चेले का गुरु के, और दास का स्वामी के बराबर होना ही बहुत है; जब उन्होंने घर के स्वामी को शैतान कहा तो उसके घर वालों को क्यों न कहेंगे?” (मत्ती 10:24-25)। यह हमारे लिए बहुत विचार और मनन करने की बात है कि परमेश्वर ने व्यवस्था को मूसा के द्वारा लिखवा कर इस्राएलियों के लिए दे दिया, और उन्हें उसका पालन करने के लिए कहा। किन्तु इस अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं देहधारी वचन बनकर मनुष्यों के मध्य निवास किया (यूहन्ना 1:14) और सजीव उदाहरण के द्वारा जी कर दिखाया, बताया, और सिखाया कि प्रभु यीशु के अनुयायी को कैसा होना है, क्या करना है। मसीही विश्वासी का आदर्श, अनुसरण करने के लिए उसका नमूना स्वयं प्रभु यीशु मसीह है। मसीही विश्वास का जीवन व्यावहारिक जीवन है; संसार के सामने जी कर दिखाया जाता है; धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह और किताबी ज्ञान अर्जित करने का जीवन नहीं है।
पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में अपने जीवन के उदाहरण से इस बात को लिखा, कि जैसे वह मसीह का अनुसरण करता था, वैसे ही, उसके समान अन्य लोग भी ऐसा ही करें:
- 1 कुरिन्थियों 11:1 तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं।
- 1 थिस्स्लुनीकियों 4:1-2 निदान, हे भाइयों, हम तुम से बिनती करते हैं, और तुम्हें प्रभु यीशु में समझाते हैं, कि जैसे तुम ने हम से योग्य चाल चलना, और परमेश्वर को प्रसन्न करना सीखा है, और जैसा तुम चलते भी हो, वैसे ही और भी बढ़ते जाओ। क्योंकि तुम जानते हो, कि हम ने प्रभु यीशु की ओर से तुम्हें कौन कौन सी आज्ञा पहुंचाई।
पौलुस ने आगे चलकर अपने जीवन के विषय में लिखा:
- फिलिप्पियों 1:21 क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है।
- गलातियों 2:20 मैं मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया गया हूं, और अब मैं जीवित न रहा, पर मसीह मुझ में जीवित है: और मैं शरीर में अब जो जीवित हूं तो केवल उस विश्वास से जीवित हूं, जो परमेश्वर के पुत्र पर है, जिसने मुझ से प्रेम किया, और मेरे लिये अपने आप को दे दिया।
उसने अपने आप को पूर्णतः मसीह यीशु को समर्पित कर दिया था, और प्रभु यीशु के कहे के अनुसार करता था, उसी के चलाए चलता था, अपने जीवन से उसी को दिखाना, और उसे ही महिमा देना चाहता था।
मसीही जीवन की परिपक्वता में बढ़ना भी प्रभु यीशु मसीह की समानता में बढ़ते जाना है “परन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18)। यह परिवर्तन तब ही संभव है जब हर बात में हर निर्णय से पहले, यह विचार करे कि “इस बात के लिए, या इस परिस्थिति में, प्रभु यीशु क्या कहता, अथवा क्या करता?” इसीलिए पवित्र आत्मा ने लिखवाया है कि “इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:2)। हम मसीही विश्वासियों को अपना हर कार्य, हर निर्णय, सांसारिक बुद्धि अथवा समझ के अनुसार नहीं वरन उस बदली हुई बुद्धि और चाल-चलन के अनुसार करना है।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो यह जाँचने की बात है कि आप का आदर्श, आपके अनुसरण के लिए आपका नमूना कौन है? क्या आप अपने जीवन की हर बात, हर निर्णय में प्रभु यीशु को प्राथमिकता देकर, वैसा ही करने और जीने का प्रयास करते हैं जैसा उस बात, उस निर्णय के लिए प्रभु यीशु करता? प्रभु ने कहा है, शिष्य के लिए अपने गुरु के समान होना ही पर्याप्त है।
और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 13-15
प्रेरितों 19:21-41
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Christian Believer – Strives to the be like The Lord
According to the description given in the Gospels, the third characteristic of a Born-Again Christian Believer is that he strives to be like his savior and teacher, the Lord Jesus Christ. The Lord Jesus said, “A disciple is not above his teacher, nor a servant above his master. It is enough for a disciple that he be like his teacher, and a servant like his master. If they have called the master of the house Beelzebub, how much more will they call those of his household!” (Matthew 10:24-25). Something very important and significant for us to ponder over is the fact that God gave His Law through Moses and asked the Israelites to follow it; but in this age of grace, the Word of God became flesh and dwelt amongst us as the Lord Jesus Christ (John 1:14), and then showed and taught by example how a disciple of the Lord Jesus has to live and behave. The role model for a Christian Believer, the one to emulate and follow is the Lord Jesus Christ Himself. The life of Christian Faith, is a life or practically living the faith, demonstrating to the world by example; it is not a life of fulfilling formalities, going through certain rituals and ceremonies, observing feasts and festivals, and acquiring bookish knowledge.
The Apostle Paul, under the guidance of the Holy Spirit, wrote that just as he followed Christ, the other Believers should follow Christ similarly:
1 Corinthians 11:1 Imitate me, just as I also imitate Christ.
1 Thessalonians 4:1-2 “Finally then, brethren, we urge and exhort in the Lord Jesus that you should abound more and more, just as you received from us how you ought to walk and to please God; for you know what commandments we gave you through the Lord Jesus.”
Later on, Paul wrote about his attitude towards his life of faith:
Philippians 1:21 “For to me, to live is Christ, and to die is gain.”
Galatians 2:20 “I have been crucified with Christ; it is no longer I who live, but Christ lives in me; and the life which I now live in the flesh I live by faith in the Son of God, who loved me and gave Himself for me.”
He had fully surrendered himself to Christ Jesus, and only did according to the instructions of the Lord; all Paul wanted to do was to glorify the Lord and show Him through his life.
To grow in maturity of life of Christian faith is to increase in the likeness of the Lord Jesus Christ “But we all, with unveiled face, beholding as in a mirror the glory of the Lord, are being transformed into the same image from glory to glory, just as by the Spirit of the Lord” (2 Corinthians 3:18). This transformation is only possible when for every decision a person first stops and considers, “for this thing or for this situation, what would the Lord Jesus have done, or said?” That is why the Holy Spirit had it written “And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God” (Romans 12:2). The Christian Believer, the disciple of Christ, is to do everything, take every decision, not according to the mind and ways of the world, but in accordance with his transformed and renewed mind and behavior.
If you are a Christian Believer, then it is for you to evaluate and see, who in your life is your role model, whom do you follow? Do you accord the first priority to the Lord Jesus for everything, for every decision of your life, and strive to do things the way the Lord Jesus would have done for that thing or situation? Remember, the Lord has said that it is enough for a disciple to be like his Lord or Teacher.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 13-15
Acts 19:21-41