एक आध्यत्मिक सभा के आरंभ में हमारे वक्ता ने प्रश्न पूछा, "आपका मन कैसा है?" मैं इस प्रश्न से अवाक रह गया क्योंकि मैं अपनी बुद्धि से विश्वास और हाथों से काम करने पर केंद्रित रहता हूँ। सोचने और करने के बीच मेरा मन एक किनारे रह जाता है। सभा के दौरान वह वक्ता हमें बाइबल से दिखाता गया कि कैसे बाइबल हमारे जीवन के इस केंद्र - हमारे मन पर बार बार ज़ोर देती है; और मैं उस वक्ता की प्रस्तावना को समझने पाया कि विश्वास और सेवा, किसी भी अन्य बात से बढ़कर, अन्ततः मन ही की बात है।
जब प्रभु यीशु ने एक दृष्टांत द्वारा समझाया कि लोग कैसे उसकी शिक्षाओं को ग्रहण करते और उनके प्रति अपनी प्रतिक्रीया करते हैं (मत्ती १३:१-९) तो उसके चेलों ने उससे पूछा (पद १०), की "तू उन से दृष्टान्तों में क्यों बातें करता है?" उत्तर में प्रभु यीशु ने यशायाह भविष्यद्वक्ता को उद्वत किया, "क्योंकि इन लोगों का मन मोटा हो गया है, और वे कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आंखें मूंद लीं हैं, कहीं ऐसा न हो कि वे आंखों, से देखें, और कानों, से सुनें और मन से समझें, और फिर जाएं, और मैं उन्हें चंगा करूं" (पद १५, यशायाह ६:१०)।
अपने मन को नज़र अंदाज़ करना कितना आसान और खतरनाक है। यदि हमारे मन कठोर हो जाएं तो जीने और सेवा करने में हम कोई आनन्द नहीं पाएंगे और जीवन नीरस और खोखला लगेगा। किंतु यदि हमारे मन परमेश्वर की ओर कोमल रहेंगे तो हम दूसरों के लिये समझ-बूझ और सहानुभूति के स्त्रोत बन जाएंगे।
तो आपका मन कैसा है? - डेविड मैक्कैसलैंड
इन लोगों का मन मोटा हो गया है, और वे कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आंखें मूंद लीं हैं - मत्ती १३:१५
बाइबल पाठ: मत्ती १३:१०-१५
और चेलों ने पास आकर उस से कहा, तू उन से दृष्टान्तों में क्यों बातें करता है?
उस ने उत्तर दिया, कि तुम को स्वर्ग के राज्य के भेदों की समझ दी गई है, पर उन को नहीं।
क्योंकि जिस के पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिस के पास कुछ नहीं है, उस से जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा।
मैं उन से दृष्टान्तों में इसलिये बातें करता हूं, कि वे देखते हुए नहीं देखते, और सुनते हुए नहीं सुनते, और नहीं समझते।
और उन के विषय में यशायाह की यह भविष्यद्ववाणी पूरी होती है, कि तुम कानों से तो सुनोगे, पर समझोगे नहीं, और आंखों से तो देखोगे, पर तुम्हें न सूझेगा।
क्योंकि इन लोगों का मन मोटा हो गया है, और वे कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आंखें मूंद लीं हैं, कहीं ऐसा न हो कि वे आंखों से देखें, और कानों से सुनें और मन से समझें, और फिर जाएं, और मैं उन्हें चंगा करूं।
एक साल में बाइबल:
जब प्रभु यीशु ने एक दृष्टांत द्वारा समझाया कि लोग कैसे उसकी शिक्षाओं को ग्रहण करते और उनके प्रति अपनी प्रतिक्रीया करते हैं (मत्ती १३:१-९) तो उसके चेलों ने उससे पूछा (पद १०), की "तू उन से दृष्टान्तों में क्यों बातें करता है?" उत्तर में प्रभु यीशु ने यशायाह भविष्यद्वक्ता को उद्वत किया, "क्योंकि इन लोगों का मन मोटा हो गया है, और वे कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आंखें मूंद लीं हैं, कहीं ऐसा न हो कि वे आंखों, से देखें, और कानों, से सुनें और मन से समझें, और फिर जाएं, और मैं उन्हें चंगा करूं" (पद १५, यशायाह ६:१०)।
अपने मन को नज़र अंदाज़ करना कितना आसान और खतरनाक है। यदि हमारे मन कठोर हो जाएं तो जीने और सेवा करने में हम कोई आनन्द नहीं पाएंगे और जीवन नीरस और खोखला लगेगा। किंतु यदि हमारे मन परमेश्वर की ओर कोमल रहेंगे तो हम दूसरों के लिये समझ-बूझ और सहानुभूति के स्त्रोत बन जाएंगे।
तो आपका मन कैसा है? - डेविड मैक्कैसलैंड
हम भले कार्य करने में इतने व्यस्त न हो जाएं कि हमारा मन ही परमेश्वर से दूर हो जाए।
इन लोगों का मन मोटा हो गया है, और वे कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आंखें मूंद लीं हैं - मत्ती १३:१५
बाइबल पाठ: मत्ती १३:१०-१५
और चेलों ने पास आकर उस से कहा, तू उन से दृष्टान्तों में क्यों बातें करता है?
उस ने उत्तर दिया, कि तुम को स्वर्ग के राज्य के भेदों की समझ दी गई है, पर उन को नहीं।
क्योंकि जिस के पास है, उसे दिया जाएगा, और उसके पास बहुत हो जाएगा; पर जिस के पास कुछ नहीं है, उस से जो कुछ उसके पास है, वह भी ले लिया जाएगा।
मैं उन से दृष्टान्तों में इसलिये बातें करता हूं, कि वे देखते हुए नहीं देखते, और सुनते हुए नहीं सुनते, और नहीं समझते।
और उन के विषय में यशायाह की यह भविष्यद्ववाणी पूरी होती है, कि तुम कानों से तो सुनोगे, पर समझोगे नहीं, और आंखों से तो देखोगे, पर तुम्हें न सूझेगा।
क्योंकि इन लोगों का मन मोटा हो गया है, और वे कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आंखें मूंद लीं हैं, कहीं ऐसा न हो कि वे आंखों से देखें, और कानों से सुनें और मन से समझें, और फिर जाएं, और मैं उन्हें चंगा करूं।
एक साल में बाइबल:
- भजन ६८, ६९
- रोमियों ८:१-२१