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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 17
पिछले लेख में हमने देखा था कि यद्यपि यहूदियों का यह विश्वास था कि पित्रों के वंशज होने के नाते, वे स्वतः ही परमेश्वर के लोग थे, जिन्हें उसके राज्य में प्रवेश करने और उसकी आशीषों को प्राप्त करने का अधिकार था, लेकिन यह उनकी गलतफहमी थी; पवित्र शास्त्र में उनकी इस गलत धारणा के लिए कोई समर्थन नहीं था। ठीक उसी प्रकार से, आज अधिकाँश मसीही या ईसाई, इसी गलतफहमी में जीवन जीते हैं कि एक परिवार विशेष में जन्म लेने के नाते, और उस परिवार के एक धर्म के साथ जुड़े होने के कारण, तथा उनके द्वारा उस धर्म के या उनकी डिनॉमिनेशन अथवा मत के रीति रिवाजों को पूरा करने के द्वारा, वे स्वतः ही परमेश्वर के लोग हो जाते हैं, जिन्हें उसके राज्य में प्रवेश करने और उसकी आशीषों को प्राप्त करने का अधिकार है। इस गलतफहमी के निवारण के लिए हमें यह देखने की आवश्यकता है कि परमेश्वर का वचन मसीही होने के बारे में क्या कहता है; और फिर हम देखेंगे के क्यों कोई भी अपने धर्म के निर्वाह, धार्मिक रीति-रिवाज़ों के पालन, और अपने भले कार्यों के द्वारा परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता है। आज से हम देखना आरम्भ करेंगे कि परमेश्वर के लोग, अर्थात, मसीही होने के बारे में बाइबल क्या कहती है।
हम सुसमाचार के वृतांतों से देखते हैं कि प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के समय, वे जहाँ भी जाते थे, बड़ी भीड़ उनके साथ चलती थी। लेकिन उस भीड़ का एक छोटा भाग ही प्रभु के शिष्य थे (मत्ती 4:25; 5:1-2; लूका 6:17; यूहन्ना 6:2-3), शेष सब जिज्ञासु, तमाशा देखने वाले थे। उन शिष्यों में से प्रभु ने अपने साथ बने रहने के लिए बारह को चुना, और उन्हें प्रेरित कहा (मरकुस 3:13-14; लूका 6:13-16), और उन्हें सँसार के छोर तक जाकर प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा उद्धार पाने के सुसमाचार के अपने सन्देश वाहक होने के लिए प्रशिक्षित किया (प्रेरितों 1:8)।
जब विषय, “बाइबल के अनुसार मसीही कौन है?” पर विचार किया जाता है, तब सामान्यतः कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें नज़रन्दाज़ किया जाता है, उन पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता है। कुछ बातें, जिन पर हमें विचार करना और जिन्हें ध्यान में बनाए रखना चाहिए, हैं:
- शब्द “मसीही” सुसमाचार के लेखों में कहीं नहीं आया है; चारों सुसमाचारों में प्रभु यीशु ने कभी भी, किसी के भी लिए, इस शब्द का उपयोग नहीं किया, और न ही किसी अन्य ने कभी किया।सुसमाचार के लेखों में हर कोई जो प्रभु के पीछे चला, या उसके पास आया, या प्रभु के द्वारा उन्हें चंगा करने और आश्चर्यकर्म करने पर विश्वास किया, या उसकी शिक्षाओं को सुनाने में रुचि दिखाई, ऐसे सभी लोगों को प्रभु के शिष्य नहीं कहा गया है; केवल उन्हीं को प्रभु के शिष्य कहा गया है जो किसी-न-किसी रीति से प्रभु के साथ सीधे से जुड़े हुए रहते थे।
- यद्यपि यह तो कहीं पर नहीं लिखा गया है कि किन गुणों के आधार पर उसके पीछे चलने वालों में से कुछ को उसके शिष्य कहा गया, किन्तु “शिष्य” होने का अभिप्राय केवल बारह प्रेरितों से नहीं था। एक समय पर प्रभु ने सत्तर शिष्यों को सेवकाई के लिए भेजा (लूका 10:1, 17); और प्रभु के पुनरुत्थान के बाद, हम देखते हैं कि एक सौ बीस शिष्य, जिन में कुछ स्त्रियाँ तथा प्रभु के परिवार के जन भी थे, प्रार्थना के लिए एकत्रित हुआ करते थे (प्रेरितों 1:14-15)।
- सुसमाचार के लेखों में शब्द “प्रेरित” उन बारह के अतिरिक्त, जिन्हें स्वयं प्रभु ने अपने शिष्यों में से चुना और “प्रेरित” कहा, किसी अन्य के लिए कभी उपयोग नहीं किया गया है। तात्पर्य यह कि यह एक विशिष्ट, प्रभु द्वारा प्रदान की गई उपाधि थी; और प्रभु का शिष्य होने का स्वतः ही यह अर्थ नहीं था कि प्रत्येक शिष्य प्रेरित भी था।
- चारों सुसमाचारों में, न तो कभी प्रेरितों को, और न ही कभी ‘शिष्यों’ को, किसी के भी द्वारा “मसीही” कहा गया है; न तो जन-साधारण के द्वारा, न प्रभु यीशु के द्वारा, और न ही कभी शिष्यों ने आपस में एक-दूसरे को इस नाम से संबोधित किया।
- एक बहुत महत्वपूर्ण बात, किसी भी प्रेरित अथवा शिष्य के किसी भी परिवार के सदस्य को, कभी भी, किसी के भी द्वारा, कोई विशेष दर्जा नहीं दिया गया, और न ही उनके प्रति कोई विशेष व्यवहार रखा गया, इसलिए क्योंकि वे प्रभु यीशु के प्रेरित अथवा शिष्य के संबंधी थे। प्रभु यीशु के प्रेरित या शिष्य होने के कारण जो विशेषाधिकार उन्हें मिले थे, जो सामर्थ्य, जैसे कि चंगाई देना और दुष्टात्माओं को निकालना (मत्ती 10:1; लूका 10:9, 17, 19), उन्हें दी गई थी, उसके कारण कभी भी उनके परिवार के लोगों के साथ कोई विशिष्ट व्यवहार नहीं किया गया – इन प्रेरितों और शिष्यों के विशेषाधिकारों और अलौकिक सामर्थ्य ने उनके परिवार के लोगों को कोई विशेष स्तर अथवा स्थान प्रदान नहीं किया।
- यहाँ तक कि, किसी के भी द्वारा प्रभु यीशु के अपने परिवार के लोगों को कोई विशेष स्तर अथवा स्थान प्रदान नहीं किया गया; स्वयं प्रभु के द्वारा भी नहीं (मरकुस 3:31-35)। सुसमाचार के लेखों में प्रभु के परिवार के लोगों को भी “मसीही” नहीं कहा गया है।
- प्रेरितों में से जो भाई थे, उन्हें भी प्रभु ने व्यक्तिगत रीति से ही बुलाया था; एक के बुलाए जाने से दूसरा स्वतः ही शिष्य नहीं हो गया था; और न ही किसी के बुलाए जाने से उसका परिवार प्रभु का शिष्य हो गया था। यह सारी बातें दिखाती हैं कि प्रभु के साथ सम्बन्ध और विशेषाधिकार का स्तर रखना हमेशा ही एक व्यक्तिगत बात रही है, इसमें किसी पारिवारिक स्थान या वंशावली का कोई महत्व नहीं रहा है।
- न ही प्रभु ने कभी अपने स्वयं के परिवार के सदस्यों को, उसके साथ सम्बन्धित होने के कारण विशिष्ट अथवा विशेषाधिकार प्राप्त समझा या दिखाया; इसी प्रकार से वे जो प्रभु के साथ रहने से उसके साथ एक विशिष्ट सम्बन्ध और स्थिति में थे, उन्होंने भी कभी अपने परिवार के लोगों को कोई विशेष स्थान या स्तर का न तो समझा न ही दिखाया। जन-साधारण ने भी प्रभु और उसके साथ के लोगों के परिवार-जनों को कभी औरों से भिन्न या विशिष्ट नहीं समझा।
अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे और देखेंगे कि शब्द “मसीही” प्रभु यीशु से सम्बन्धित लोगों के साथ किस प्रकार जुड़ गया, और उसके क्या अभिप्राय हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 17
In the previous article we have seen that though the Jews believed that by virtue of their being the descendants of the Patriarchs, they automatically were the people of God, entitled to enter His Kingdom and receive His blessings, but this was a misconception on their part; the Scriptures never supported this wrong notion that they had. In just the same manner, most of the Christians today live under a similar misconception, considering themselves to automatically be God’s people, entitled to a place in God’s Kingdom and receive His blessings, because of the family they have been born in, the religion professed by that family, and because of their fulfilling certain rituals associated with the religion and its denomination or sect their family is associated with. To clarify this misconception, we need to see and understand what the Word of God actually says about being a Christian; and then learn about why no one can enter the Kingdom of God through their religion, fulfilling religious rites and rituals, and their good works. Today we will begin considering what the Bible says about being people of God, i.e., being a Christian.
We know from the Gospel accounts that during the earthly ministry of the Lord Jesus crowds followed Him wherever He went. But only a small number from those crowds were the disciples of the Lord (Matthew 4:25; 5:1-2; Luke 6:17; John 6:2-3), the rest were mainly curious onlookers. Of his disciples, He called out twelve to be with Him, called them Apostles (Mark 3:13-14; Luke 6:13-16), and trained them to be His messengers to the ends of the earth, to spread the good news of salvation by faith in the Lord Jesus (Acts 1:8).
There are some very important things which are usually overlooked, never taken into any consideration, when considering the subject, “Biblically speaking, who is a Christian?” Some things that we should pay attention to and bear in mind are:
- The term “Christian” does not ever occur anywhere in the Gospel accounts; the Lord Jesus never used this term for anyone, nor did anyone else, in the four Gospels.
- In these accounts in the Gospel texts, not everyone who followed the Lord Jesus, nor all those who came to Him, nor all those who believed in His being able to heal them and perform miracles or were interested in listening to His teachings were called His disciples; but only those who in some manners were directly associated with the Lord have been called His disciples.
- Although, it has not been stated anywhere on what criteria some of those who followed Him around were called the disciples, but the term ‘disciples’ did not imply only the twelve Apostles. At one time the Lord sent out seventy disciples for ministry (Luke 10:1, 17); and we see that after the Lord’s resurrection, one hundred and twenty disciples, which included women and the members of the Lord’s immediate family, used to gather for prayers and supplications (Acts 1:14-15).
- The term “Apostles” has never been used in the Gospel accounts for anyone other than the twelve whom the Lord chose and called ‘Apostles’ from amongst His disciples. Implying it was a special, Lord ordained and conferred designation; and being a disciple of the Lord Jesus, did not by itself mean that every disciple was also an Apostle.
- In the four Gospels, neither the Apostles, nor the ‘disciples’ have ever been called ‘Christians’ by anyone; not by the crowds and general public, not by the Lord Jesus, and neither did the ‘disciples’ call themselves or each other by this name.
- And, very importantly, none of the family members of any of the Apostles or the disciples, ever receive any special status or consideration from anyone, because of being related to an Apostle or disciple of the Lord Jesus. The privileges that the Apostles and disciples had because of being associated with the Lord Jesus, because of having received special powers, e.g., of healing and casting out demons (Matthew 10:1; Luke 10:9, 17, 19), were never in any manner considered a reason for any special treatment of their family members – the privileged position and divine powers of these Apostles and disciples, did not confer any status or privileges upon their family members.
- Not even the immediate family members of the Lord Jesus were given any special status or privileges by anyone, not even by the Lord Jesus Himself (Mark 3:31-35). Even the Lord’s own family members were not called “Christians” in the Gospel accounts.
- The brothers amongst the Apostles, were called individually by the Lord; the calling of one did not automatically apply to the other; neither did the calling of a person by the Lord to be His disciple, make that person’s family to be the Lord’s disciples as well. All of this goes to show that having an association and a privileged position with the Lord Jesus was always an individual’s personal matter; it was never familial or hereditary.
- Neither did the Lord consider His immediate family members as special or privileged because of their relationship with Him; similarly, nor did those who came into this special privileged association with the Lord do so for their families. Neither did the common people consider the family members of people associated with the Lord or His Apostles and disciples as someone special or in any way different from the other people.
We will carry on from here and see about how the term “Christian” came to be associated with those who were associated with the Lord Jesus, and its implications, in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.