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व्यक्तिगत जीवन के लिए पवित्र आत्मा के गुण - यूहन्ना 14:17
परमेश्वर पवित्र आत्मा के मसीही विश्वासियों में आकर बस जाने से संबंधित बातों को देखते हुए, पिछले लेख में हमने देखा था इस विषय पर अपने शिष्यों के साथ सबसे विस्तृत चर्चा प्रभु ने अपने पकड़वाए जाने से ठीक पहले, फसह के पर्व के भोज के समय की, जो यूहन्ना 14 और 16 अध्याय में दी गई है। यूहन्ना रचित सुसमाचार के 14 अध्याय में दी गई पवित्र आत्मा से संबंधित बातें, मसीही विश्वासियों के व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका के बारे में है, और 16 अध्याय में दी गई बातें विश्वासियों की सेवकाई में भूमिका के बारे में हैं। साथ ही हमने यूहन्ना 14:16 से तीन बातों को देखा था - पवित्र आत्मा परमेश्वर द्वारा प्रभु के शिष्यों को दिया जाता है; एक बार मसीही विश्वासी में आकर बस जाने के बाद वह सर्वदा विश्वासियों के साथ बना रहता है; और परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों का सहायक है, सेवक नहीं - वह उन्हें सिखाता है, मार्गदर्शन करता है, सामर्थी बनाता है किन्तु विश्वासियों के स्थान पर उनकी निर्धारित सेवकाई को कर के नहीं देता है। आज हम यूहन्ना 14:17 से परमेश्वर पवित्र आत्मा की मसीही विश्वासी के व्यक्तिगत जीवन में भूमिका के बारे में कुछ और बातों को देखेंगे।
यूहन्ना 14:17 - “अर्थात सत्य का आत्मा, जिसे संसार ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वह न उसे देखता है और न उसे जानता है: तुम उसे जानते हो, क्योंकि वह तुम्हारे साथ रहता है, और वह तुम में होगा।” इस पद में विश्वासी के जीवन से संबंधित परमेश्वर पवित्र आत्मा के तीन गुण दिए गए हैं:
वह 'सत्य का आत्मा' है; इस वाक्यांश के दो अभिप्राय हैं। एक तो यह कि परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का स्वरूप है; वह किसी असत्य, छल, कपट, परमेश्वर के वचन से मेल न रखने वाली बात में न तो सम्मिलित होगा, न सहमत होगा, न उसकी सलाह देगा। और दूसरा, प्रभु यीशु मसीह ने कहा, “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6)। क्योंकि इस कथन के अनुसार प्रभु यीशु मसीह ही ‘सत्य’ हैं, इसलिए ‘सत्य का आत्मा’ उनका आत्मा है। इन दोनों ही अभिप्रायों से यह स्पष्ट है कि जो भी शिक्षा परमेश्वर के वचन (यूहन्ना 1:1-2, 14), अर्थात प्रभु यीशु मसीह की शिक्षाओं से पूर्णतः मेल नहीं रखती है, वह कदापि पवित्र आत्मा की ओर से नहीं हो सकती है। फिर चाहे वह शिक्षा किसी बहुत विख्यात व्यक्ति, या किसी बहुत नामी और प्रभावी प्रचारक के द्वारा ही क्यों न दी गई हो, तथा ऐसे व्यक्तियों और प्रचारकों के द्वारा चाहे कितने भी और कैसे भी आश्चर्यकर्म क्यों न किए गए हों - इस संदर्भ में मत्ती 7:21-23, 2 कुरिनथियों 11:13-15, तथा 2 थिस्सलुनीकियों 2:9-10 को कभी न भूलें। पौलुस ने गलातियों 1:6-10 में गलातिया की मसीही मण्डली में फैलते जा रहे भ्रामक सुसमाचार प्रचार और गलत शिक्षाओं के विषय में लिखा, कि जो कोई मूल सुसमाचार से कुछ भी भिन्न सुसमाचार सुनाता है, वह श्रापित है, चाहे वह ‘भिन्न सुसमाचार’ सुनाने वाला कोई स्वर्गदूत या फिर स्वयं पौलुस ही क्यों न हो: “मुझे आश्चर्य होता है, कि जिसने तुम्हें मसीह के अनुग्रह से बुलाया उस से तुम इतनी जल्दी फिर कर और ही प्रकार के सुसमाचार की ओर झुकने लगे। परन्तु वह दूसरा सुसमाचार है ही नहीं: पर बात यह है, कि कितने ऐसे हैं, जो तुम्हें घबरा देते, और मसीह के सुसमाचार को बिगाड़ना चाहते हैं। परन्तु यदि हम या स्वर्ग से कोई दूत भी उस सुसमाचार को छोड़ जो हम ने तुम को सुनाया है, कोई और सुसमाचार तुम्हें सुनाए, तो श्रापित हो। जैसा हम पहिले कह चुके हैं, वैसा ही मैं अब फिर कहता हूं, कि उस सुसमाचार को छोड़ जिसे तुम ने ग्रहण किया है, यदि कोई और सुसमाचार सुनाता है, तो श्रापित हो। अब मैं क्या मनुष्यों को मनाता हूं या परमेश्वर को? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूं? यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता, तो मसीह का दास न होता।” हमें मसीही प्रचार को किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा अथवा किसी प्रचलित और आकर्षक मत या डिनॉमिनेशन की शिक्षाओं के आधार पर नहीं, वरन बेरिया के विश्वासियों के समान वचन से उस प्रचार और शिक्षा की सत्यता को परखने के बाद ही ग्रहण करना है “ये लोग तो थिस्सलुनीके के यहूदियोंसे भले थे और उन्होंने बड़ी लालसा से वचन ग्रहण किया, और प्रति दिन पवित्र शास्त्रों में ढूंढ़ते रहे कि ये बातें यों ही हैं, कि नहीं। सो उन में से बहुतों ने, और यूनानी कुलीन स्त्रियों में से, और पुरुषों में से बहुतेरों ने विश्वास किया” (प्रेरितों 17:11-12)।
इस पद में दिया गया परमेश्वर पवित्र आत्मा का दूसरा गुण है, कोई सांसारिक व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं कर सकता है, क्योंकि न ऐसा व्यक्ति उसे देखता है और न ही जानता है। अर्थात, जब तक व्यक्ति ‘सांसारिक’ है, यानि कि, उद्धार पाया हुआ नहीं है, वह पवित्र आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता है। सांसारिक व्यक्ति चाहे जितनी भी उपवास-प्रार्थनाएं कर ले, प्रतीक्षा कर ले, कुछ भी अन्य विधि अपना ले; परमेश्वर पवित्र आत्मा व्यक्ति में तब ही आकर निवास करेगा जब वह सांसारिक से स्वर्गीय जन, अर्थात उद्धार पाया हुआ व्यक्ति बन जाएगा - और तब वह उस व्यक्ति में तुरंत ही, स्वतः ही आकर बस जाएगा, उस व्यक्ति को अलग से कुछ नहीं करना पड़ेगा। अभिप्राय यह कि यदि कोई व्यक्ति अपने आप को उद्धार पाया हुआ कहे, और उसमें पवित्र आत्मा के गुण और फल (गलातियों 5:22-23) न दिखाई दें, तो फिर वह चाहे जितने भी प्रयास कर ले, उसे पवित्र आत्मा तब तक नहीं मिलेगा, जब तक वह वास्तविकता में उद्धार नहीं पा लेगा। इसलिए ऐसे व्यक्ति से पवित्र आत्मा पाने के लिए उपवास-प्रार्थना आदि करने के लिए नहीं, वरन सच्चे मन से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु पापों की क्षमा माँगकर, अपना जीवन वास्तविकता में प्रभु को समर्पित कर देने और प्रभु की आज्ञाकारिता में बने रहने का निर्णय करने के लिए कहना चाहिए।
इस पद में दिया गया तीसरा गुण है पवित्र आत्मा का शिष्यों के साथ सदा रहना। उपरोक्त, सांसारिक व्यक्ति की तुलना में, प्रभु ने अपने शिष्यों से पवित्र आत्मा के विषय कहा कि वह 'तुम्हारे' अर्थात प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों के साथ है भी और उनमें रहेगा भी। ध्यान कीजिए, प्रभु ने फिर यहाँ पर शिष्यों को पवित्र आत्मा के उनमें आकर बसने के लिए अलग से कोई प्रयास या कार्य करने के लिए नहीं कहा, वरन स्पष्ट कहा कि वह उन शिष्यों के साथ है, और बना भी रहेगा। बारंबार वचन यह स्पष्ट दिखाता है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा किन्हीं मानवीय उपायों या प्रयासों से नहीं, वरन पापों से पश्चाताप करने और उद्धार पाने से ही प्रभु के जन में आकर बस जाता है। इससे हम यह शिक्षा भी प्राप्त करते हैं कि जो लोग, या मत अथवा डिनॉमिनेशन पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए उद्धार पाने के बाद अलग से कुछ विशेष करने के लिए कहते हैं, वे कितनी गलत शिक्षाएं लोगों में फैला रहे हैं। और यद्यपि वे ‘पवित्र आत्मा’ के नाम पर और उसे महत्व देने के लिए ऐसा करते हैं, किन्तु ‘सत्य का आत्मा’ वाली उपरोक्त पहली शिक्षा के अनुसार, पवित्र आत्मा उनके साथ हो ही नहीं सकता है, क्योंकि पवित्र आत्मा प्रभु यीशु के वचन की पुष्टि ही करेगा, कभी उससे अलग या उसके विरुद्ध बात नहीं करेगा। ऐसी सभी शिक्षाएं भ्रामक हैं, और जैसा पौलुस ने गलातीयों को लिखा, श्रापित है वह व्यक्ति जो इन गलत शिक्षाओं को मानता और सिखाता है।
आप 2 कुरिनथियों 13:5, के अनुसार अपने आप को जांच कर देख सकते हैं कि क्या आप वास्तव में उद्धार या नया जन्म पाए हुए व्यक्ति, प्रभु यीशु के सच्चे शिष्य हैं या नहीं। जो उद्धार या नया जन्म पाते हैं, वास्तव में प्रभु के शिष्य बन जाते हैं, उनके जीवन में पाए जाने वाले गुण हैं:
वह व्यक्ति अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु का अनुसरण करने में प्रयासरत रहता है (1 कुरिनथियों 11:1; 1 यूहन्ना 2:6).
वह व्यक्ति परमेश्वर के वचन में बना रहता है (1 यूहन्ना 2:3-5); हर कीमत पर परमेश्वर के वचन को सीखना और मानना उसके जीवन की प्राथमिकता बन जाते हैं (यूहन्ना 14:21, 23; Acts 4:19-20; 5:29; 1 पतरस 2:1-2).
वह अपने आप को संसार और सांसारिकता की बातों और लालसाओं से अलग कर लेता है (प्रेरितों 2:40; 2 कुरिनथियों 6:14-18; याकूब 4:4; 1 यूहन्ना 2:15-17)
उद्धार पा लेने के बाद उसके जीवन में आया परिवर्तन प्रकट दिखाई देने लग जाता है (रोमियों 12:1-2).
वह अंश-अंश करके प्रभु की समानता में ढलता चला जाता है (2 कुरिनथियों 3:18).
पवित्र आत्मा के फल उसके जीवन में दिखाई देते हैं (गलातियों 5:22-23).
प्रभु ने जो उसके जीवन में किया है वह उसके बारे में लोगों को बताता है (मरकुस 5:19; यूहन्ना 4:28-29, 39)और सुसमाचार के प्रचार तथा प्रसार में संलग्न रहता है (1 कुरिनथियों 9:16).
परमेश्वर के वचन के आधार पर यह सुनिश्चित कर लीजिए कि आप वास्तव में उद्धार या नया जन्म पाए हुए हैं कि नहीं, और यदि किसी सुधार की आवश्यकता है, तो अभी समय और अवसर रहते हुए उसे कर लीजिए। कहीं ऐसा न हो कि जब तक आप की आँख खुले और आपको अपनी वास्तविकता का बोध हो तब तक बहुत देर हो चुकी हो, सदा काल के लिए अवसर और समय आपकए हाथ से निकाल चुका हो।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे, फिर आप में होकर अपने कार्य करे, जिससे आपको आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करके प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 37-39
प्रेरितों 26
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Characteristics of the Holy Spirit for Personal Life - John 14:17
In the previous article, while considering the coming of God the Holy Spirit to reside in a Christian Believer, we had seen that the Lord Jesus talked about this most extensively while celebrating the Passover feast with His disciples, just before His being caught for being crucified. This discussion is recorded in John chapters 14 and 16; in chapter 14 we have the discussion about the role of the Holy Spirit in the personal life of a Christian Believer, and in chapter 16 the role in a Believer’s ministry is given. We have seen from John 14:16 three things about the role of the Holy Spirit in a Believer’s life - the Holy Spirit is given by the Lord God; once He comes in a Believer, He always stays with him for life; the Holy Spirit is a Helper for the Christian Believers, not their servant - He teaches, guides, empowers, and encourages the Believers for their work, life, and ministry but never becomes the person’s substitute, to fulfill his responsibilities in his stead. Today we will look at John 14:17 to learn some more things about the role of the Holy Spirit in a Believers life.
John 14:17 - “the Spirit of truth, whom the world cannot receive, because it neither sees Him nor knows Him; but you know Him, for He dwells with you and will be in you.” In this verse we have three characteristics of the Holy Spirit, relevant to the life of Believers:
He is “the Spirit of truth;” this phrase can be understood in two ways. One is that God the Holy Spirit is a form or expression of ‘truth’; He will never ever say or suggest or advise, or be associated with, or involved in any manner with anything that is untrue, false, deceitful, not consistent with God’s Word; everything from Him will be the truth and nothing but the truth. The second is that, as the Lord Jesus has said, “Jesus said to him, "I am the way, the truth, and the life. No one comes to the Father except through Me".” (John 14:6) - Lord Jesus is truth personified, and the Holy Spirit is His Spirit – the Spirit of The Truth. From both of these aspects about the Holy Spirit being “the Spirit of truth”, it is evident that any teaching or exposition of the Word of God, that is not fully in accordance with the teachings of the Living Word, the Lord Jesus Christ (John 1:1-2, 14) cannot ever be from the Holy Spirit. It is of no consequence, who has given that teaching or exposition; his stature, renown, knowledge, acceptability amongst the people and in the world, works and miracles done done by him, etc. notwithstanding - in this context never forget to keep in mind Matthew 7:21-23, 2 Corinthians 11:13-15, and 2 Thessalonians 2:9-10. Paul wrote in Galatians 1:6-10, about the wrong teachings and gospel preaching that had begun to take hold in the Church at Galatia, “I marvel that you are turning away so soon from Him who called you in the grace of Christ, to a different gospel, which is not another; but there are some who trouble you and want to pervert the gospel of Christ. But even if we, or an angel from heaven, preach any other gospel to you than what we have preached to you, let him be accursed. As we have said before, so now I say again, if anyone preaches any other gospel to you than what you have received, let him be accursed. For do I now persuade men, or God? Or do I seek to please men? For if I still pleased men, I would not be a bondservant of Christ.” We should be very careful in receiving and believing any preaching and teaching about the Lord and God’s Word. Our acceptance of it should neither based upon the reputation of the preacher nor because of it’s being according to the beliefs and teachings of our or some popular sect or denomination. But we should only accept every teaching and preaching as the Berean Believers did - after first testing and confirming it from the Word of God, “These were more fair-minded than those in Thessalonica, in that they received the word with all readiness, and searched the Scriptures daily to find out whether these things were so. Therefore, many of them believed, and also not a few of the Greeks, prominent women as well as men” (Acts 17:11-12).
The second characteristic of the Holy Spirit given in this verse is “whom the world cannot receive, because it neither sees Him nor knows Him”; in other words, unless a person is truly Born-Again or saved, he can never receive the Holy Spirit. An unsaved or worldly person may do any number of fasting-prayers, tarry for as long as he wants, adopt any other method to receive the Holy Spirit, but God’s Holy Spirit will come to reside in him only when he changes from being a worldly to a heavenly person, i.e., is saved or is Born-Again. As soon as this happens, the Holy Spirit will immediately come and reside in him, he will not have to do anything to have Him come into him. The implication is that if a person considers himself and claims to be Born-Again or saved person, but the characteristics and fruits of the Spirit (Galatians 5:22-23) are not evident in his life, then howsoever much efforts he may do, he will never receive the Holy Spirit till he is truly saved or Born-Again. Therefore, it is futile to advise such a person to do fasting-prayers, tarrying, or any other things. Rather, he should be told to truly repent of sins with a sincere heart, ask forgiveness for his sins from the Lord, surrender his life to the Lord and decide to live a life obedient and committed to the Lord and His Word.
The third characteristic given here is addressed to the disciples, “for He dwells with you and will be in you.” In contrast to a worldly person, the Lord Jesus assured His disciples that the Holy Spirit will always be with and in them. Once again take note that here the Lord Jesus never asked or implied in any manner that the Holy Spirit will come into them as a result of any of their or any other human’s efforts; rather the Lord has very clearly stated about the Holy Spirit that “or He dwells with you” and will come to reside in them. Time and again, God’s Word very clearly says that the Holy Spirit is not received through any human efforts or methods, but automatically and immediately comes to reside in every Christian Believer the moment he is saved or Born-Again. From this characteristic of the Holy Spirit, we can safely infer and say that those sects and denominations that preach and teach having to do something else, something extra to receive the Holy Spirit after being saved, they are not teaching the correct facts and interpretation of God’s Word, their teachings are inconsistent with God’s Word. Even though they do this in the name of and to emphasize about the “Holy Spirit”, but as we have seen in the aforementioned first characteristic, in light of the Holy Spirit being “the Spirit of Truth”, what they preach and teach cannot be from the Holy Spirit. Neither can the Holy Spirit be with them, since He will only affirm, remind, and teach what the Lord Jesus has said; He will never say anything other than or contrary to what the Lord has already said. All such preaching and teachings are deceptions, and as Paul wrote to the Galatians, cursed is the one who believes in and preaches wrong things about God’s Word.
In accordance with 2 Corinthians 13:5, you can evaluate and see for yourself whether you actually are a Born-Again, saved person, a disciple of the Lord Jesus or not. The signs of a person’s being saved or Born-Again and become a disciple of the Lord Jesus are:
He strives to emulate his savior, the Lord Jesus (1 Corinthians 11:1; 1 John 2:6).
He abides in God’s Word (1 John 2:3-5); learning and obeying God’s Word at all costs are his priority (John 14:21, 23; Acts 4:19-20; 5:29; 1 Peter 2:1-2).
He separates himself from the world and the things of the world (Acts 2:40; 2 Corinthians 6:14-18; James 4:4; 1 John 2:15-17)
There is an evident change in his life since being saved (Romans 12:1-2).
He is gradually, bit by bit, progressively being transformed into the likeness of the Lord (2 Corinthians 3:18).
The fruits of the Holy Spirit are evident in his life (Galatians 5:22-23).
He engages in witnessing about what the Lord has done in his life (Mark 5:19; John 4:28-29, 39) and is involved in the spread of the gospel (1 Corinthians 9:16).
Confirm on the basis of God’s Word whether you truly are saved or Born-Again or not, and if any rectification has to be done, do it now while you have the time and opportunity, lest by the time you wake up to the reality, it is too late. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 37-39
Acts 26