व्यवस्था के औपचारिक निर्वाह के दुष्प्रभाव – 2
पिछले लेख से हमने व्यवस्था के रीति और परंपरा के औपचारिक निर्वाह से होने वाले दुष्प्रभावों को देखना आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने देखा था कि इस प्रकार से व्यवस्था का पालन करने से व्यक्ति को कोई आत्मिक लाभ नहीं होता है; उसके अन्दर का खालीपन ही उसे इसके लिए परेशान करता है। आज हम दो अन्य उदाहरणों से इस प्रकार के व्यर्थ निर्वाह के बारे में देखेंगे।
यहूदियों का एक प्रधान धर्म-गुरु, फरीसियों का सरदार, निकुदेमुस भी रात के समय प्रभु यीशु के पास मन में कुछ प्रश्न लिए हुए आया था (यूहन्ना 3:1-21)। वह अभी प्रभु से बात करने के लिए भूमिका बांध ही रहा था (पद 2) कि प्रभु ने उसके मन की बात के अनुसार उसे उत्तर भी दे दिया (पद 3) – कि, परमेश्वर का राज्य देखने के लिए उसे नया जन्म लेना अनिवार्य था। उसके धर्म-ज्ञान, समाज में उसके धार्मिक ओहदे ओर इज़्ज़त ने उसे परमेश्वर की दृष्टि में स्वीकार्य नहीं बनाया था। निकुदेमुस फिर तर्क देने का प्रयास करता है (पद 4) और प्रभु फिर उसकी बात काटकर एक बार फिर स्वर्ग के राज्य में उसके प्रवेश के लिए नया जन्म लेने की अनिवार्यता को कह देता है (पद 5), और फिर उसे शरीर और आत्मा से जन्मे व्यक्तियों में भिन्नता के चिह्न बताता है (पद 6-8)। तात्पर्य स्पष्ट है, कि उसके सारे धर्म-ज्ञान और ओहदे के बावजूद, वह अभी तक परमेश्वर के साथ सही संबंध में नहीं आया था। उसके मन में अभी भी संदेह था कि यह कैसे हो सकता है (पद 9)। वह इन बातों को जानता था, किन्तु इनका पालन नहीं करता था, जैसा कि प्रभु ने उसे उलाहना देते हुए पद 10 में कुछ बहुत महत्वपूर्ण कहा। पद 10 में, ध्यान कीजिए प्रभु ने यह नहीं कहा कि “क्या तू इन बातों को नहीं जानता है?” वरन कहा, “... तू इस्राएलियों का गुरु हो कर भी क्या इन बातों को नहीं समझता?” अर्थात, वह इन बातों को जानता था, किन्तु समझता नहीं था, इसीलिए पालन भी नहीं करता था। धर्म-गुरु होने के नाते, वह लोगों को परमेश्वर की बातें बताता और सिखाता था, किन्तु उसके अपने जीवन में बेचैनी थी, क्योंकि वह धर्म की औपचारिकता तो निभा रहा था, किन्तु परमेश्वर के साथ सही संबंधों में नहीं आया था, जिनके बारे में प्रभु उसे पद 11-21 में बताता है। इसके लिए उसे परमेश्वर के प्रति पश्चाताप और समर्पण की आवश्यकता थी; और प्रभु उसे यही दिखा रहा था।
पौलुस जो पहले शाऊल के नाम से जाना जाता था, वह भी एक बहुत ज्ञानवान और परमेश्वर के लिए बहुत उत्साह रखने वाला फरीसी था। उसकी दृष्टि में जो भी परमेश्वर के विरुद्ध था, उसे वह सहन नहीं कर सकता था, उन्हें पकड़ कर दण्ड देने में वह बहुत सक्रिय रहता था (प्रेरितों 8:3; 9:1)। उसका यह व्यवहार, परमेश्वर के वचन और व्यवस्था के बारे में उसे मिली शिक्षा और समझ के द्वारा था। लेकिन प्रभु यीशु मसीह से साक्षात्कार और वार्तालाप होने के बाद (प्रेरितों 9:3-9) उसके जीवन और दृष्टिकोण में जो आधार-भूत परिवर्तन आया, उससे उसने व्यवस्था पालन की अपनी समझ की व्यर्थता और अपने महत्वहीन उत्साह को पहचाना, और तुरन्त उन्हें छोड़ दिया। उसने तुरंत ही परमेश्वर के साथ अपने संबंध ठीक किए, और परिणामस्वरूप मनुष्यों के साथ भी उसके संबंध और व्यवहार सही हो गया। फिलिप्पी की मसीही मण्डली को लिखी अपनी पत्री में, वह अपने पुराने व्यवहार की बातों को, जिन पर वह पहले बहुत घमण्ड करता था, अब हानि की बातें और कूड़ा कहता है, और उनके स्थान पर प्रभु यीशु की समानता में बढ़ने को ही प्राथमिकता देता है (फिलिप्पियों 3:7-11)। उद्धार से पहले का पौलुस का जीवन और उस समय के अन्य फरीसियों का जीवन दिखता है कि व्यवस्था के औपचारिक पालन ने उन्हें इतना अँधा बना दिया था कि जब प्रभु यीशु, जिसके बारे में व्यवस्था और सम्पूर्ण पुराना नियम बात करता है (लूका 24:25-27; यूहन्ना 5:39), साक्षात उनके सामने आ कर खड़ा हुआ, अपने जीवन, शिक्षाओं और कार्यों द्वारा अपनी वास्तविकता को उन्हें दिखाया, फिर भी वे प्रभु को पहचान नहीं सके, उसे स्वीकार नहीं कर सके। वरन, अपनी गढ़ी हुई धार्मिकता और भक्ति के निर्वाह के लिए उस प्रभु को ही मरवा दिया जिसकी भक्ति का वे दम भरते थे।
वचन के ये तीनों उदाहरण दिखाते हैं कि जो शैतान के ‘धर्म के निर्वाह’ (2 कुरिन्थियों 11:13-15) के चंगुल में फंसकर, शैतान के भ्रम, युक्तियों, और कुटिलता के द्वारा “व्यवस्था” का गलत अर्थ रखते हैं, और अनुचित मनसा से उसका पालन करते हैं, उनके लिए शैतान उसी व्यवस्था से बेचैनी और अशान्ति ही उत्पन्न करता है, उन्हें आत्मिक रीति से अन्धा तथा परमेश्वर के वचन को समझ नहीं सकने वाला बना देता है, उन्हें अपनी ही गढ़ी हुई धार्मिकता के जाल में फंसा देता है; और उन्हें इसका एहसास हुए बिना, उन्हें परमेश्वर के विरुद्ध कर देता है। उनके शैतान के चंगुल में फँसे होने का एक प्रमुख चिह्न है कि उन्हें व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर की निकटता में होने और उसकी शांति (यूहन्ना 14:27; 16:33) उनके साथ उन्हें उपलब्ध होने का एहसास नहीं। लेकिन जैसे ही व्यक्ति पश्चाताप और पाप क्षमा, अर्थात नया जन्म होने के द्वारा परमेश्वर के साथ सही संबंध में आता है, स्वतः ही उसका दृष्टिकोण भी बदल जाता है, और मनुष्यों के साथ उसके संबंध भी सुधरने जाते हैं। उसका बदला हुआ जीवन इस बात की गवाही देता है कि वह अब जीवन – अनन्त जीवन में प्रवेश कर गया है। यदि निकुदेमुस और पौलुस जैसे धर्म के ज्ञानियों को पश्चाताप करने और पापों की क्षमा पाना, नया जन्म प्राप्त करना अनिवार्य था, तो हमारे लिए यह कितना अधिक आवश्यक और अनिवार्य है, आप स्वयं समझ सकते हैं।
अगले लेख में हम व्यवस्था की उपयोगिता के बारे में देखेंगे। अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों अथवा अपने धर्म के पालन के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था अथवा धर्म के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Harmful Effects of Formal Observation of the Law – 2
From the previous article we have started to consider the harmful effects of the formal observance of the Law as mere rituals and traditions. We had seen in the previous article that this kind of observance provides no spiritual benefits to a person; the emptiness in him troubles him about this. Today we will see further about such vain observance, from two more examples.
Nicodemus, a very senior religious official of the Jews, the ruler of the Pharisees, came to the Lord Jesus during the night with some questions in his mind (John 3:1-21). He was just preparing the grounds to tell his troubling thoughts to the Lord (verse 2) when the Lord interjected and gave him the answer to what was troubling his mind - whether or not he would enter the Kingdom of God (verse 3) - the Lord told him point-blank, that he had to be Born Again to even see the kingdom of God. Neither his religious knowledge, nor his religious status and prestige in the society had made him acceptable to God. Nicodemus tries to reason again (v. 4) and the Lord again cuts him off and again pointedly says that he must be Born Again for him to enter into the kingdom of heaven (v. 5). And from here onwards the Lord tells him how to identify those born naturally and those Born Again by the Spirit of God (verses 6-8). The implication is clear, that despite all his theology and religious status, he had not yet come into a proper relationship with God, and he felt within himself the restlessness of lacking this right relationship with God. But he still had doubts about how this could happen (verse 9). Though he knew these things, but did not obey them, as is clear from the Lord’s rebuke for him (verse 10). In verse 10, the Lord says something very important to him; notice that the Lord did not say, "Don't you know these things?" But he said, "... you, being the teacher of the Israelites, do you not understand these things?" That is, though he knew these things, but he did not understand their practical application, that is why he did not fulfil them. As a religious leader, he used to speak of and teach the things of God to the people. But, while he was engaged in performing the formalities of religion, there was deep restlessness in his own life. Since his formal engagement in fulfilling the obligations of his religion had not brought him into the right relationship with God. To come into this right and satisfying relationship, he needed to be Born Again, i.e., to repent of his sins and submit himself fully to God. And this is what the Lord was showing and explaining to him in verse 11-21.
Paul, formerly known as Saul, was also a very knowledgeable Pharisee and was very zealous for God. He could not bear anything against God, as per his own understanding, and he was very active in capturing and punishing those whom he thought were going contrary to God’s Law (Acts 8:3; 9:1). His behavior was based upon the teachings he received and the understanding about God's Word and Law he had developed. But his vision of the Lord Jesus Christ and conversation with Him on the road to Damascus brought about a fundamental change in his life and outlook (Acts 9:3-9); it made him recognize the futility of his own understanding of keeping the Law, and he immediately let go of his vain understanding and worthless zeal. He immediately corrected his relationship with God, and consequently his relationship, behavior, and attitude towards fellow human beings also got corrected. In his letter to the Christians in Philippi, he refers to these old attitudes, which he once was proud of, but now speaks of them disparagingly, calling them harmful and rubbish, preferring instead to grow in the likeness of the Lord Jesus. (Philippians 3:7-11). The life of Paul before he was Born Again, and that of the other Pharisees of that time shows that the formal, ritualistic observance of the Law had so blinded them that when the Lord Jesus, about whom the Law and the whole of the Old Testament testified (Luke 24:25-27; John 5:39), came before them in person, and through His life, teachings, and works showed to them who He really was, they still could not recognize or accept Him. Instead, for the sake of their contrived religiosity and reverence, and for living by it, they had the Lord, whom they professed to revere, killed.
These three examples of Scripture show that for those who remain entrapped in Satan’s deception, devices, and devious machinations of being ‘religious’, or, ‘following their religion’ (2 Corinthians 11:13-15), he makes them misinterpret and misunderstand the "Law," and follow it inappropriately; for them that Law only creates restlessness and lack of peace in their lives; makes them spiritually blind and unable to understand God’s Word; he traps them in their own contrived reverence and religiosity; and without their realizing it, he turns them into being contrary to God. One major sign about their being entrapped by Satan is that they do not have a sense of personally being in close proximity to God and of having His peace in their lives (John 14:27; 16:33). But as soon as a person comes into the right relationship with God through repentance and seeking forgiveness of his sins, i.e., is Born Again, automatically his outlook also changes, and his relationship with fellow humans also changes, and improves. His changed life bears open and clear testimony to the fact that he has now entered life - the eternal life promised by God. If for religious scholars and leaders like Nicodemus and Paul it was mandatory to repent and seek forgiveness of sins, and be Born Again, then you can see for yourself how necessary and imperative it is for us as well.
In the next article, we will look at the utility of the Law. For now, if you are a Christian, and are hoping to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God by being ‘good’ through the works of the flesh and religion; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the Law or any religion, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take the right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.