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आरम्भिक बातें – 2
परिचय - 2
मसीही विश्वासियों तथा कलीसिया की उन्नति एवं परिपक्वता के लिए, यह अनिवार्य है कि मसीही विश्वासी परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन से भली-भान्ति अवगत हो। हमने पहले के लेखों में देखा है कि तीन प्रकार की बाइबल की शिक्षाएँ इस उन्नति और परिपक्वता के लिए आधारभूत हैं। इन तीन में से एक, सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं को हम देख चुके हैं, और अब हमने आरम्भ की बातों से सम्बन्धित शिक्षाओं को देखना आरम्भ किया है, जिनकी रूप-रेखा इब्रानियों 6:1-2 में दी गई है। वहाँ दी गई छः आरम्भ की बातों पर आने से पहले, पिछले लेख से हमने, एक परिचय के समान, इब्रानियों 5:11-14 को देखना आरम्भ किया है, जहाँ पर इन छः आरम्भ की बातों के उल्लेख का कारण दिया गया है। पिछले लेख में हमने इब्रानियों 5:11 से देखा था कि मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन की समझ और ज्ञान में बढ़ भी सकते हैं और नीचे गिर भी सकते हैं, और इसी अनुपात में उनकी आत्मिक बढ़ोतरी और परिपक्वता पर भी प्रभाव आता है। आज हम इस पद 11 से आगे देखेंगे।
इब्रानी विश्वासियों को लिखी अपनी इस पत्री का लेखक आगे, पद 12 में, उन से वह कहता है जिस की उन से अपेक्षा रखी गई थी - कि अब तक उन्हें परमेश्वर के वचन के शिक्षक हो जाना चाहिए था, लेकिन इसके विपरीत, परमेश्वर के वचन के अपने ज्ञान और समझ में वे इतने नीचे आ गए हैं कि यह आवश्यकता हो गई थी कि “कोई तुम्हें परमेश्वर के वचनों की आदि शिक्षा फिर से सिखाए।” यह आज के मसीही विश्वासियों के सामने दो बातों को लाता है, जो आज उन पर उसी प्रकार से लागू हैं, जैसे उस समय उन इब्रानी विश्वासियों पर थी। इन में से पहले बात है कि परमेश्वर की अपने लोगों से, अपनी सन्तानों से कुछ अपेक्षाएँ हैं, और जितना समय उन्होंने उस के साथ उस के परिवार के सदस्य बनकर बिताया है, ये अपेक्षाएँ उसी के अनुपात में हैं, तथा परमेश्वर इन अपेक्षाओं को बहुत गम्भीरता से लेता है। परमेश्वर का उन इब्रानी विश्वासियों के गुरु या शिक्षक हो जाने की अपेक्षा रखना यह दिखाता है कि वे परमेश्वर के परिवार का इतने पर्याप्त समय से सदस्य बने हुए थे कि औरों को सिखाने के लायक परिपक्व और उन्नत हो जाएँ। दूसरी बात है कि यह पत्री सभी विश्वासियों को लिखी गई है, न कि केवल किसी विशेष प्रकार की सेवकाई में लगे हुए विश्वासियों को। इसलिए, निहितार्थ है कि परमेश्वर की कुछ निर्धारित विश्वासियों से नहीं बल्कि उन सभी से अपेक्षा थी कि वे शिक्षक या गुरु होने योग्य हो गए होंगे। अवश्य ही बाइबल में विभिन्न प्रकार की सेवकाइयों का उल्लेख है (रोमियों 12:6-8; 1 कुरिन्थियों 12:8-11, 28), और वचन की सेवकाई से सम्बन्धित सेवकाइयाँ भी दी गई हैं (इफिसियों 4:11)। लेकिन इस का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये सभी सेवकाइयाँ, प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई “महान आज्ञा” (मत्ती 28:19-20; प्रेरितों 1:8) के अन्तर्गत ही आती हैं।
इस महान आज्ञा के अन्तर्गत, प्रभु यीशु के सभी शिष्यों को सँसार के छोर तक जा कर औरों को शिष्य बनाना था, और जो शिष्य बनते उन्हें बपतिस्मा देना था, और, जैसा कि इस चर्चा के लिए प्रासंगिक है, उन्हें प्रभु द्वारा सिखाई गई सभी बातों को मानना सिखाना था। इसलिए परमेश्वर के वचन का “शिक्षक” या “गुरु” होना, प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य है। इसके लिए प्रश्न यह नहीं है कि किसी ने परमेश्वर के वचन को सिखाने का प्रशिक्षण लिया है कि नहीं, या कोई परमेश्वर के वचन को सिखाने में कितना निपुण है। वरन बात यह है कि परमेश्वर ने व्यक्ति को जो भी सिखाया है, क्या वह उसे दूसरों के साथ बाँटने की इच्छा रखता है कि नहीं। स्मरण कीजिए कि उस के उद्धार पाने के पल से ही पवित्र आत्मा प्रत्येक विश्वासी में निवास करता है (प्रेरितों 19:2; रोमियों 8:9; 1 कुरिन्थियों 12:3; गलतियों 3:2; इफिसियों 1:13-14), और पवित्र आत्मा का एक कार्य है परमेश्वर की सन्तानों, मसीह यीशु के शिष्यों को परमेश्वर के वचन को सिखाना (यूहन्ना 14:26; 1 कुरिन्थियों 2:11-13)। तात्पर्य यह है कि यदि मसीही विश्वासी अपने मसीही जीवन पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और आज्ञाकारिता (गलतियों 5:16, 25) में जीते आ रहे हैं, तो फिर वे उस से परमेश्वर का वचन भी सीखते रहे होंगे, और जो भी उन्होंने सीखा है उसे औरों को पहुँचाने में उनकी रुचि और योग्यता भी होगी, चाहे वह बात उन्हें कितनी भी छोटी और कम महत्व वाली ही क्यों न प्रतीत हो। जब वे नियमित रीति से ऐसा करेंगे, तब पवित्र आत्मा उन्हें और भी अधिक सिखाएगा, और परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं में और अधिक उन्नति करने, परिपक्व होने में उनकी सहायता करेगा। परमेश्वर के वचन की जानकारी न होने, या उसे पर्याप्त न जानने का बहाना बनाना केवल यही दिखाता है कि अपने मसीही जीवनों में वे पवित्र आत्मा से सीख नहीं रहे हैं, तथा उसके आज्ञाकारी बने हुए नहीं हैं।
संभवतः, यही उन इब्रानी विश्वासियों के साथ भी हुआ होगा, और अन्ततः अपेक्षाओं के अनुरूप न होने, तथा उनकी अयोग्यता एवं अपरिपक्वता के लिए परमेश्वर को उन्हें डाँटना पड़ा। क्योंकि न तो वे स्वयं ही सीख रहे थे, और न ही औरों को सिखा रहे थे, परिणामस्वरूप, उनके मसीही जीवन गिर कर बालकों के स्तर पर आ गए थे, और उन्हें परमेश्वर के वचन की आदि शिक्षा को फिर से सिखाए जाने की आवश्यकता हो गई थी। अगले लेख में हम यहीं से आगे बढ़ेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 2
Introduction - 2
For the spiritual growth and maturity of the Christian Believers and the Church, it is essential that the Christian Believers be well versed in all of God’s Word, and learn to apply it in their day-to-day lives. We have seen in the earlier articles that there are three kinds of Biblical teachings that are fundamental for this growth and maturity. Of these three, we have already seen the teachings related to the gospel, and have now started on teachings related to the elementary principles outlined in Hebrews 6:1-2. Before coming to the six elementary principles mentioned there, since the last article, as an introduction, we have started to consider Hebrews 5:11-14, where the reason for the mention of these six elementary principles has been given. In the last article, we have seen from Hebrews 5:11 that Christian Believers can both, grow as well as decline in their knowledge and understanding of God’s Word, proportionately affecting their spiritual growth and maturity. Today we will consider ahead of verse 11.
The author of the letter to the Hebrew Believers, then states in verse 12, something that was expected of them – that by now they should have become teachers of God’s Word, but to the contrary, they have so declined in their knowledge and understanding of God’s Word, that they “need someone to teach you again the first principles of the oracles of God.” This brings before today’s Christian Believers two things, which are applicable to them today, just as they were applicable to those Hebrew Believers then. These are, firstly, God has expectations from His people, His children, the expectations are in proportion to the time they have been in fellowship with Him as members of His family, and God takes fulfilling the expectations seriously. God’s expecting the Hebrew Believers to be teachers shows that they had been part of God’s family for a sufficient amount of time to have matured and grown enough to be teaching others. The second thing is, notice that this letter has been addressed to all Believers, not just to those having a particular kind of ministry. Therefore, by implication, God’s expectation of their being teachers is for all of them, not just a designated few. For sure, the Bible mentions various kinds of ministries (Romans 12:6-8; 1 Corinthians 12:8-11, 28), and also specifies some ministries related to the ministry of God’s Word (Ephesians 4:11). But it is to be noted that all of these come under the umbrella of the “Great Commission” given by the Lord Jesus to His disciples (Matthew 28:19-20; Acts 1:8).
Under this Great Commission, all disciples of the Lord Jesus, i.e., all Christian Believers are to go to the ends of the world and make other disciples, and those that became the disciples, to baptize them and, as is relevant to this discussion, teach them all things that the Lord has taught to them. So, being a “teacher” of God’s Word for others, is compulsory for every Christian Believer. It is not a question of whether or not one has taken any training to teach God’s Word, or how expert or learned one is in God’s Word. The idea is to be being willing to share whatever God has taught a person. Remember, God the Holy Spirit resides in every Believer since the moment of his salvation (Acts 19:2; Romans 8:9; 1 Corinthians 12:3; Galatians 3:2; Ephesians 1:13-14), and one of the purposes of the Holy Spirit is to teach God’s Word (John 14:26; 1 Corinthians 2:11-13) to God’s children, the disciples of Christ Jesus. The implication is that if the Christian Believers have been living their Christian lives under the guidance and obedience of the Holy Spirit (Galatians 5:16, 25), then they will be learning God’s Word from Him, and would have the interest and ability to pass on what they have learnt, however little or insignificant it may seem to them, to others as well. When they start doing this regularly, the Holy Spirit will teach them more and more, help them grow and mature in the teachings of God’s Words. Pleading inability to do so because of not knowing God’s Word or not knowing enough of it, only indicates their not learning from the Holy Spirit and not being obedient to Him in their Christian lives.
Apparently, that is what had happened to these Hebrew Believers, and eventually God had to reprimand them for not being up to the expectations, and for their immaturity and inability. Because they were neither learning themselves, nor teaching others, therefore, they lost whatever they had learnt in their Christian lives, and came down to the level of children, needing to be taught the basics once again. We will take this up from here in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.