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निर्गमन 12:13 (7) - प्रभु की मेज़ - अनन्तकालीन सुरक्षा का अवसर
प्रभु भोज के बारे में इस अध्ययन में, जो फसह पर आधारित है, हम फसह के बारे में परमेश्वर के निर्देशों को देखते आ रहे हैं, क्योंकि प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के साथ फसह मनाते समय, फसह की सामग्री में से ही लेकर प्रभु भोज की स्थापना की थी। उन निर्देशों, और उनके साथ जुड़े हुए प्रतीकों और चिह्नों के द्वारा हम प्रभु की मेज़, कलवरी के क्रूस पर दिए गए प्रभु यीशु के बलिदान के अर्थ और अभिप्रायों को, तथा नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के द्वारा मेज़ में भाग लेने के महत्व को समझते आ रहे हैं। हमारे लिए यह करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि परमेश्वर और उसके वचन से संबंधित हर बात में शैतान ने बहुतेरी गलत शिक्षाएं और झूठे सिद्धांत घुसा दिए हैं, प्रभु भोज में भी। शैतान ऐसा इसलिए करने पाया है क्योंकि परमेश्वर के लोग उसके वचन के व्यक्तिगत अध्ययन के प्रति, परमेश्वर के साथ समय बिताने के प्रति, और यह जानने और मानने के प्रति कि परमेश्वर उनसे क्या चाहता है, उदासीन हो गए हैं। इसके स्थान पर अब वो पुल्पिट पर से परमेश्वर के नाम में जो भी उनसे कह दिया जाता है, बिना उसे जाँचे-परखे, और वचन से उसकी पुष्टि करे, स्वीकार करने और पालन करने में संतुष्ट हैं। लोग मनुष्यों - अपने धार्मिक अगुवों को प्रसन्न करने और उनकी बातों को मानने की अधिक परवाह करते हैं, न कि परमेश्वर को प्रसन्न करने और उसकी बात मनाने के।
अपने इस अध्ययन में अब हम निर्गमन 12:13 पर पहुँच गए हैं; इस पद, इसके अर्थ, और हमारे जीवनों में उसके पालन एवं महत्व को समझने के लिए हमें पहले के प्रतीकों और चिह्नों पर, तथा कुछ अन्य पर स्मरण और ध्यान करना पड़ेगा। प्रभु यहाँ पर फिर से इस्राएलियों से बल देकर वही बात दोहरा रहा है, जिसे वह पहले कह चुका है। यद्यपि परमेश्वर ने जो एक बार बोल दिया वह हो कर रहेगा (गिनती 23:19; मत्ती 24:35), परंतु परमेश्वर द्वारा किसी बात का दोहराया जाना इस बात का संकेत है कि वह बात बहुत महत्वपूर्ण है, अटल है (उत्पत्ति 41:32)। यहाँ पर परमेश्वर कह रहा है कि वे इस्राएली, अर्थात परमेश्वर के लोग, ही सुरक्षित रहेंगे, जिनके घर पर बलि किए हुए मेमने का लहू लगा होगा। प्रत्येक मसीही विश्वासी परमेश्वर पवित्र आत्मा का घर, उसका निवास स्थान, उसका मंदिर है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19)। किन्तु शैतान ने सभी “ईसाइयों” या “मसीहियों” को यह बात मानने के लिए बहका दिया है कि उनके द्वारा अपने समुदाय या डिनॉमिनेशन की कुछ रीतियों और परंपराओं को मान लेने के द्वारा वे वैसे ही “मसीही विश्वासी” या “नया जन्म” पाए हुए लोग बन जाते हैं, जैसा परमेश्वर चाहता है। यद्यपि यूहन्ना रचित सुसमाचार के आरंभ में ही - यूहन्ना 1:12-13 में बता दिया गया है कि यह किस प्रकार होता है, किसी समुदाय या डिनॉमिनेशन की रीतियों और परंपराओं के पालन के द्वारा नहीं, किन्तु व्यक्तिगत रीति से प्रभु यीशु को ग्रहण कर लेने और उसके नाम में विश्वास करने के द्वारा; किन्तु अधिकांश लोग इस पर कोई ध्यान नहीं देते हैं। अर्थात “घर” वही होगा, वही व्यक्ति सुरक्षित रहेगा जिस पर बलि के परमेश्वर के मेमने का लहू लगा होगा।
पद 13 के अगले वाक्य में, परमेश्वर बताता है कि वह इसकी पुष्टि किस प्रकार से करेगा - किसी मनुष्य के द्वारा नहीं, न ही व्यक्ति के द्वारा किए गए कुछ कार्यों और पूरी की गई धार्मिक बातों के द्वारा, किन्तु केवल तब जब “वह लहू को देखेगा” के द्वारा!” कोई भी परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकता है; उसकी आँखें प्रत्येक मनुष्य के हृदय अन्दर तक गहराई से जाकर देख सकती हैं (1 इतिहास 28:9), और वह प्रत्येक मनुष्य की वास्तविक दशा को भली-भांति जानता है। वह पहचान लेगा कि जो लहू लगाया गया है, वह वास्तव में उसके पुत्र प्रभु यीशु मसीह का लहू है जो सारी मानवजाति के उद्धार के लिए बलिदान हुआ; या यह रीतियों, रिवाजों, मनुष्य द्वारा बनाए गए नियमों, विधियों, और कार्यों, आदि को मिलाकर लहू के समान दिखने वाली कोई नकली वस्तु है जिसे लगाए गया है; जो लोगों को तो धोखा दे सकती है किन्तु परमेश्वर को नहीं। बहुत से लोग आज इस धोखे में जी रहे हैं कि क्योंकि वे अपनी, या अन्य मनुष्यों, या संसार की दृष्टि और रीति से पवित्र, धर्मी, तथा धर्म-शास्त्र के विद्वान और ज्ञाता भी हो सकते हैं, इसलिए वे “मसीही विश्वासी” भी हैं। लेकिन इनमें से कोई भी बात किसी को भी नया जन्म पाई हुई परमेश्वर की संतान तथा स्वर्ग में प्रवेश पाने के लिए योग्य नहीं बनाती है। यहूदियों और फरीसियों का विद्वान धार्मिक अगुवा, निकुदेमुस (यूहन्ना 3:1-10); वचन का ज्ञाता और परमेश्वर के लिए अत्यंत-उत्साही फरीसी, शाऊल (पौलुस), (प्रेरितों 9:1-6); जवान धर्मी व्यक्ति जो लड़कपन से आज्ञाओं को मानता आया था, किन्तु उसे फिर भी यह निश्चय नहीं था कि उसने उद्धार पा लिया है (मरकुस 10:17-30); इन पवित्र, धर्मी, वचन के ज्ञानी और विद्वान लोगों में से कोई भी नया जन्म पाया हुआ नहीं था। उनके धर्म, उनके द्वारा धार्मिक अनुष्ठानों, रीतियों, और परंपराओं के उत्साही निर्वाह, आदि, ने उन में से किसी को भी परमेश्वर को स्वीकार्य तथा स्वर्ग में प्रवेश के लिए योग्य नहीं बनाया था; और वे सभी अपने अन्दर इस बात को जानते और समझते थे। उन सभी को अपने पापों से पश्चाताप करना, और प्रभु यीशु के उद्धारकर्ता स्वीकार करना था, ताकि नया जन्म प्राप्त हो और वे स्वर्ग में प्रवेश के योग्य हो सकें। प्रभु यीशु मसीह ने कहा है कि नया जन्म पाए बिना स्वर्ग में प्रवेश करना तो दूर, कोई उसे देख भी नहीं सकेगा (यूहन्ना 3:3, 5), और प्रभु की बात अटल, अपरिवर्तनीय है।
बाइबल में दिए गए इन प्रमुख उदाहरणों के बावजूद, शैतान ने लोगों को इतना बहका और अंधा कर दिया है कि वे अभी भी अपने आप को धर्मी तथा परमेश्वर को स्वीकार्य इसलिए समझते हैं क्योंकि उन्होंने अपने कुछ धार्मिक अनुष्ठान पूरे कर लिए हैं। और उनके धार्मिक अगुवे भी उन्हें यही विनाशकारी, बाइबल के विपरीत सिद्धान्त पढ़ाते और उनसे पालन करवाते हैं; न तो वे अगुवे सत्य को जानते और समझते हैं, और न ही औरों को जानने और समझने देते हैं। यहाँ पर निर्गमन 12:13 में परमेश्वर कहता है वह स्वयं लहू को देखेगा; इसके विषय वह किसी की कही बात को स्वीकार नहीं करेगा। यदि वह लगे हुए लहू को देखकर संतुष्ट होगा, तब ही वह उस घर से आगे बढ़ जाएगा, अन्यथा जब वह मिस्र - जो कि शैतानी शक्तियों और परमेश्वर के लोगों को बंधुवाई में रखने वालों का प्रतीक है, का न्याय करेगा, तब साथ ही वह उस अनुचित लहू वाले घर का भी वैसा ही न्याय करेगा, मृत्यु उस घर पर भी वैसे ही आएगी। परमेश्वर द्वारा संसार का न्याय करने का समय निकट है। प्रत्येक “घर”, अर्थात,परमेश्वर का निवास-स्थान समझा जाने वाला स्थान, जो वास्तव में परमेश्वर के मेमने के लहू की अधीनता में नहीं आया है, वह भी परमेश्वर के न्याय के नीचे आएगा, और मृत्यु को भोगेगा।
प्रभु की मेज़, प्रभु यीशु के बलिदान और मृत्यु के स्मरण करने के द्वारा, व्यक्ति को अवसर प्रदान करती है कि वह अपने जीवन को जांच-परख ले, और जो भी त्रुटियाँ या कमियां हों उन्हें प्रभु की उपस्थिति में मान कर सही कर ले। विशेषकर यदि कोई वास्तव में नया जन्म पाया हुआ नहीं है, उन्हें परमेश्वर अभी समय और अवसर दे रहा है कि वे अपने व्यर्थ, निष्फल रीतियों, परंपराओं, और कार्यों, जिन्होंने न तो कभी किसी का उद्धार किया है और न ही कभी करेंगे (प्रेरितों 15:10-11; 1 पतरस 1:18-19), में ढिठाई के साथ बने रहने की बजाए, अभी नया जन्म पा लें (इब्रानियों 3:7-19)।
ये सभी बातें स्पष्ट दिखाती हैं कि प्रभु भोज में भाग लेना उनके लिए नहीं है जो इसे एक धार्मिक रीति या औपचारिकता के समान लेते हैं, किन्तु उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार है। अगले लेख में हम निर्गमन 12 में से यहीं से आगे देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं कि नहीं? क्या आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु में एक नई सृष्टि बन गए हैं कि नहीं? क्या आप कलीसिया में विभाजनों और गुटों में बांटने में नहीं किन्तु एकता के साथ रहने में प्रयासरत रहते हैं कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु की मेज़ में उसी प्रकार से भाग ले रहे हैं जैसे परमेश्वर ने निर्देश दिये हैं, प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ, बड़ी गंभीरता से मेज़ के महत्व पर मनन करते हुए; या फिर आप किसी डिनॉमिनेशन की परंपरा अथवा किसी के मनमाने विचारों के अनुसार भाग ले रहे हैं? अपने आप को जांच कर देखें कि क्या आप प्रभु के सामने खड़े होकर अपने जीवन का हिसाब देने के लिए तैयार हैं कि नहीं? आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
होशे 12-14
प्रकाशितवाक्य 4
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Exodus 12:13 (7) - The Lord’s Table - An Opportunity to Be Safe
In this study on the Holy Communion, through its antecedent, the Passover, we have been seeing God’s instructions about the Passover, because the Lord Jesus established the Communion while having the Passover meal with His disciples, using the elements of the Passover. Through them, through the symbolisms and signs in those instructions, we have been understanding the meanings and implications of the Lord’s Table, the Lord Jesus’s sacrifice on the Cross of Calvary, and the Born-Again Christian Believer’s participation in the Table. We need to do this since Satan has brought in many wrong teachings and false doctrines about everything related to God and His Word, including the Holy Communion. Satan has been able to do this because God’s people have become disinterested in personal Bible study, in spending time with God, and in learning what God wants them to learn and apply in their lives. Instead, they are now content with accepting without any cross-checking and verification, whatever is told to them from the pulpit in God’s name. People are more interested in pleasing and obeying men - their religious leaders, rather than pleasing God and obeying Him.
In this study we have now come to Exodus 12:13; pondering over the symbolisms we have seen earlier, and some others, will help us to understand this verse, and its application in our lives, in our participation in the Lord’s Table. The Lord is re-emphasizing to the Israelites what He has said before. Though what God says will always come to pass (Numbers 23:19; Matthew 24:35), the repetition of an instruction from God is an indicator of the importance of the thing and of it being irrevocable (Genesis 41:32). God says here that the Israelites, the people of God, will be safe in the house that has the blood of the sacrificed lamb applied on it. Every Christian Believer is the house, the dwelling place, or the temple of God the Holy Spirit (1 Corinthians 3:16; 6:19). But Satan has beguiled the “Christians” into thinking and believing that their fulfilling certain rituals and traditions of their sects and denominations, makes them the “Christian Believers'', the “Born-Again” people that God wants. Although we have in the beginning of John’s Gospel - John 1:12-13, how this comes about - not by fulfilling sect and denomination rituals and traditions, but by personally receiving the Lord Jesus, and believing in His name, but not many pay heed to it. So, it is the person who has this sign of the blood of the sacrificed Lamb of God, the Lord Jesus, upon him, who will be the “house” which will remain safe.
In the next sentence of verse 13, God tells how He will affirm this - not through any man, not because of the person having done certain things, fulfilled certain requirements, but only when “He sees the blood!” No one can fool God; His eyes penetrate and see deep inside into the heart of every man (1 Chronicles 28:9), and He well knows every person’s actual state. He will know if the blood applied is the actual blood of His Son, the Lord Jesus, sacrificed for the salvation of mankind; or is it a counterfeit substance made up of rituals, traditions, man-made rules, regulations and procedures, etc., appearing like the blood, which may fool and beguile men, but not God. Many people are living under the false assurance of being “Christian Believers” because of their being pious, religious, and maybe even because of being knowledgeable about the Scriptures in their own eyes or in the eyes of men and the world. But none of these things make anyone a Born-Again child of God, worthy of entering heaven - the learned leader and religious teacher of the Pharisees, Nicodemus (John 3:1-10); the learned and zealous for God Pharisee, Saul (Paul), before his encounter with the Lord Jesus and conversion on the road to Damascus (Acts 9:1-6); the Rich Young man, who had fulfilled the Commandments from his childhood, but still did not have the assurance that he was saved (Mark 10:17-30); none of these learned, pious, zealous, deeply religious people were saved, were Born Again. Their religion, their zealous observances of religious rituals, practices and traditions etc., had not made them acceptable to God and worthy of entering heaven; and they all knew and felt it within them. They all had to repent of their sins, accept the Lord Jesus as savior, to be Born Again and made worthy of entering into heaven. Lord Jesus has said that without being Born-Again, no one can even see the Kingdom of God, let alone enter into it (John 3:3, 5), and what the Lord has said is unchangeable and irrevocable.
Despite these prominent examples in the Bible, Satan has so beguiled and blinded the people, that they are still caught up in vainly considering themselves to be righteous and acceptable to God because of their fulfilling the requirements of their religion. And their religious leaders only teach and affirm this unBiblical, eternally destructive dogma to them; neither do they themselves know and understand the truth, nor do they let others learn and obey the truth from the Word of God. God says here in Exodus 12:13, that He will see the blood; He will not take anyone’s word for it. Only if He is satisfied with the blood applied to the house, will He pass over it, else when He judges Egypt - the symbol of satanic forces bringing God’s people under bondage, every “house” which does not have the blood He wants to see, will also be judged and come under the same death penalty as the Egyptians. God’s time of judging the world and people of the world is at hand. Every “house”, i.e., every presumed dwelling place of God, that has not actually come under the saving blood of the Lamb of God, too will come under God’s judgment, will suffer death.
The Lord’s Table, through the remembrance of the sacrifice and death of the Lord Jesus, provides an opportunity to judge, or, evaluate one’s life, and in the presence of the Lord to rectify all the short-comings that have to be corrected. Especially, if one is not yet Born-Again, to do so now, when God is giving time and opportunity, instead of obstinately persisting in vain, inconsequential religious rituals, practices, and traditions, which never have (Acts 15:10-11; 1 Peter 1:18-19), and never will save anyone (Hebrews 3:7-19).
All these things show that participating in the Holy Communion is not for those who take it as a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, but is for those who willingly have chosen to live worthy of the Lord, in obedience to His Word, and are willing to pay the price for doing so. In the next article we will carry on from here and see more from these verses, Exodus 12:8-10. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word, are a new creation for the Lord. That you strive for unity, not divisions and factionalism in the Church, and have been participating as the Lord has instructed to be done, participating with full allegiance to the Lord, in all seriousness, and pondering over its significance; instead of doing it in any presumptive manner, or simply as a denominational ritual; and are ready and prepared to stand before the Lord and answer for your life. It is also necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Hosea 12-14
Revelation 4
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