मसीही विश्वासी के व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका (नवंबर 5 से 8 तक के लेखों का सारांश)
यूहन्ना 13 अध्याय से लेकर 17 अध्याय तक, क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले, फसह के पर्व को मनाते हुए, अपने
शिष्यों के साथ किया गया प्रभु यीशु मसीह का अंतिम वार्तालाप है। प्रभु जानते थे
कि उनकी पृथ्वी की सेवकाई के ये अंतिम पल हैं, और वे अपने
शिष्यों को उनके जाने के बाद सेवकाई संभालने के लिए तैयार कर रहे थे, अंतिम निर्देश दे रहे थे, भविष्य में उनके लिए बहुत
उपयोगी होने वाली कुछ बातें बता और समझा रहे थे। इन बातों में से एक थी प्रभु यीशु के जाने के बाद शिष्यों
में परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य का आ जाना, जिनकी अगुवाई और सामर्थ्य के द्वारा
फिर शिष्यों ने सुसमाचार प्रचार की सेवकाई को सारे संसार में करना था। परमेश्वर
पवित्र आत्मा के शिष्यों के साथ होने, और शिष्यों में होकर
कार्य करने के विषय प्रभु यीशु ने जो बातें शिष्यों से कहीं वे हमें यूहन्ना के 14
तथा 16 अध्याय में मिलती हैं। यूहन्ना 14
अध्याय में दी गई शिक्षाएं मुख्यतः शिष्यों के व्यक्तिगत जीवन में
पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित हैं; और 16 अध्याय की शिक्षाएं मुख्यतः उनकी सार्वजनिक सेवकाई में पवित्र आत्मा की
भूमिका से संबंधित हैं। दुर्भाग्यवश, आज परमेश्वर पवित्र
आत्मा, और मसीही विश्वासियों के साथ उनके संबंध तथा मसीही
सेवकाई में उनकी भूमिका को लेकर गलत शिक्षाओं, मिथ्या प्रचार
और व्यर्थ शारीरिक हाव-भाव एवं शोर-शराबे की बातों का इतना अधिक बोल-बाला हो गया
है कि लोग परमेश्वर के वचन बाइबल की स्पष्ट और सीधी सच्चाइयों को भी ठीक से देखने
और समझने नहीं पा रहे हैं। वे प्रभु यीशु की कही इन बातों पर ध्यान देने के स्थान
पर मनुष्यों द्वारा बनाए गए मत-समुदायों-डिनॉमिनेशंस की बातों और उनके प्रचारकों
की भरमाने वाली बातों के धोखे में फंसे हुए हैं। आज हम नवंबर 5 से 8 तक यूहन्ना 14 अध्याय के
लेखों के सारांश को देखेंगे, जो मुख्यतः मसीही विश्वासी के
व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका से संबंधित हैं।
इन लेखों में सबसे पहली बात हमने देखी थी
कि यूहन्ना 14:16 के
अनुसार, परमेश्वर पवित्र आत्मा किसी भी व्यक्ति में किसी
मनुष्य की युक्ति या प्रयास से आकर नहीं निवास करते हैं। वे प्रभु यीशु के कहे
अनुसार, प्रभु के शिष्यों में आकर रहते हैं। और हमने आरंभिक
लेखों में, तथा कल के सारांश में देखा था, कि यह व्यक्ति के उद्धार पाते ही, तुरंत ही उसी पल
होने वाली बात है। किसी को भी पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए अलग से कोई कार्य
या प्रयास या प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है; उद्धार
पाते ही, स्वतः ही पवित्र आत्मा प्रभु यीशु के उस नवजात
शिष्य में आकर निवास करने लगते हैं। साथ ही प्रभु यीशु उन्हें “सर्वदा साथ रहने” के लिए भेजता है। एक बार जिस शिष्य
में पवित्र आत्मा आकर निवास करने लगता है, वह फिर सदा के लिए
जीवन पर्यंत उसके साथ रहने के लिए उसमें निवास करता है। इसलिए बारंबार पवित्र
आत्मा के आने के लिए प्रार्थना करना वचन से संगत नहीं है। साथ ही, परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी का सहायक बनकर आते हैं, सेवक बनकर नहीं। वे प्रभु के शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं, उसे सिखाते हैं, सेवकाई के लिए समझ और सामर्थ्य
प्रदान करते हैं, किन्तु उस शिष्य के कार्य को उसके स्थान पर
नहीं करते हैं; करना शिष्य को ही होता है, तरीका पवित्र आत्मा बताते हैं।
फिर, यूहन्ना 14:17 से
हमने देखा था कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, सत्य का आत्मा है;
वे संसार में और संसार के लोगों में नहीं रह सकते हैं। अभिप्राय यह
कि जो वास्तव में उद्धार पाया हुआ सच्चा विश्वासी है, उसमें
पवित्र आत्मा स्वतः ही आकर निवास करेंगे; और जिसने वास्तव
में पश्चाताप नहीं किया उद्धार नहीं पाया, वह चाहे कोई भी
कार्य या प्रयास कर ले, उसमें पवित्र आत्मा का निवास कदापि
नहीं होगा। उनके “सत्य का आत्मा’” होने
का तात्पर्य है कि उनकी हर बात, हर शिक्षा, हर व्यवहार बाइबल में दी गई सत्य की परिभाषा - प्रभु यीशु मसीह (यूहन्ना 14:6),
और परमेश्वर का वचन (भजन 119:160), के अनुसार
और अनुरूप ही होगा। वे कभी प्रभु यीशु और बाइबल में लिखी हुई बातों से भिन्न या
बाहर कुछ नहीं कहेंगे या सिखाएंगे। इस बात की पुष्टि प्रभु ने यूहन्ना 14:26 में भी कर दी, जब उन्होंने बिलकुल स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि पवित्र आत्मा आकर केवल
प्रभु की दी हुई शिक्षाओं को ही स्मरण करवाएंगे और सिखाएंगे। इसलिए आज पवित्र
आत्मा के नाम से जो विचित्र व्यवहार, शारीरिक क्रियाएं,
हाव-भाव और शोर-शराबा किया जा रहा है, जिसका
कोई उदाहरण या शिक्षा बाइबल में नहीं मिलती है, वह कभी
पवित्र आत्मा की ओर से नहीं हो सकता है।
बाइबल में सम्मिलित किए जाने वाले सारे
लेख प्रथम शताब्दी की समाप्ति से पहले ही लिखे जा चुके थे। बाद में इन्हीं लेखों
को संकलित करके नया नियम बना। साथ ही, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस ने 2 पतरस 1:3-4 में लिख दिया था कि जीवन और भक्ति से
संबंधित सभी बातें, प्रभु यीशु मसीह की पहचान में होकर हमें
उपलब्ध करवा दी गई हैं; तथा साथ ही इस संसार की सड़ाहट से
बचने और ईश्वरीय स्वभाव के संभागी होने का मार्ग भी दे दिया गया है। तात्पर्य यह
कि परमेश्वर का वचन आरंभिक कलीसिया के समय से ही पूर्ण हो चुका है, उसमें और कुछ जोड़ने, कुछ नया बताने की कोई आवश्यकता
नहीं है। ऐसा करना परमेश्वर के वचन की अनाज्ञाकारिता है, परमेश्वर
द्वारा दण्डनीय है (व्यवस्थाविवरण 12:32; नीतिवचन 30:6;
प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। परमेश्वर को
स्वीकार्य और उसे प्रसन्न करने वाला जीवन जीने के लिए मानवजाति के लिए जो कुछ भी
आवश्यक है, वह सब परमेश्वर पवित्र आत्मा ने लिखवा दिया है,
उपलब्ध करवा दिया है। इसलिए आज के उन ‘नए’
दर्शनों, भविष्यवाणियों, शिक्षाओं, चमत्कारिक बातों, आदि
का कोई औचित्य अथवा आवश्यकता नहीं है; और न ही परमेश्वर के
वचन बाइबल से उनके लिए कोई समर्थन है, जिन्हें ‘पवित्र आत्मा की ओर से’ प्राप्त करने का दावा आज
बहुत से मत और समुदाय, या डिनॉमिनेशन के अनुयायी करते हैं,
जिन गलत बातों के बारे में औरों को भी सिखाते हैं, तथा औरों को भी करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यदि पवित्र आत्मा से
संबंधित बाइबल की शिक्षाएं, प्रभु यीशु की कही बातें सही हैं,
तो इन लोगों के ऐसे सभी दावे बेबुनियाद हैं, व्यर्थ
हैं, झूठे हैं, और उनमें पड़ने या
उन्हें स्वीकार करने का कोई आधार नहीं है।
फिर यूहन्ना 14:30 में प्रभु ने
शिष्यों को सचेत किया कि प्रभु के चले जाने के पश्चात, उनका
सामना 'संसार का सरदार' अर्थात
शैतान से होना था, जो उन पर टूट कर पड़ने वाला था। इसलिए
उन्हें उसका सामना करने, और उसपर जयवंत होने के लिए, प्रभु के लिए सेवकाई पर निकालने से पहले पवित्र आत्मा की सामर्थ्य की
अनिवार्यता थी।
इसीलिए, यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर के वचन, को जानने और मानने में अपना समय
और ध्यान लगाइए; अपनी मन-मर्जी और पसंद के अनुसार नहीं,
अपितु प्रभु की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करें। प्रत्येक मसीही
विश्वासी को व्यक्तिगत रीति से पवित्र आत्मा की सामर्थ्य दिए जाने का उद्देश्य यही
है कि वह शैतान की युक्तियों को समझे, उनके प्रति सचेत रहे,
और परमेश्वर के वचन को सीख समझ कर अपनी मसीही सेवकाई के लिए सक्षम,
तत्पर, और तैयार हो जाए, उस सेवकाई में लग जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में
अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके
वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा
भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा
से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और
स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु
मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना
जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी
कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने
मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े
गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें।
मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और
समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए
स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- यहेजकेल
14-15
- याकूब 2