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मसीही विश्वासी के जीवन में अलगाव - कैसे?
पिछले लेखों में हम पिन्तेकुस्त के दिन, पवित्र आत्मा से भर जाने के बाद पतरस द्वारा यरूशलेम में एकत्रित हुए “भक्त यहूदियों” को किए गए सुसमाचार प्रचार के प्रभावों को देखते आ रहे हैं। मसीह यीशु पर लाए गए विश्वास से प्राप्त होने वाली पापों की क्षमा, उद्धार, और मसीही शिष्यता से संबंधित सात व्यावहारिक बातों को पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस ने उनके सामने रखा, जिन्हें हम प्रेरितों 2:37-42 में से देख रहे हैं। पिछले लेख में हमने इन सात में से अंतिम, और लिखे गए क्रम के अनुसार तीसरी बात - मसीही विश्वासी के संसार और सांसारिकता की बातों से अपने आप को अलग करने के बारे में देखना आरंभ किया था। हमने देखा था कि ऐसा करना कितना महत्वपूर्ण है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी में आकर निवास करने वाला पवित्र आत्मा ऐसा करने में उसकी सहायता करता है। किन्तु मसीही विश्वास को मसीही या ईसाई धर्म बनाकर धर्म-कर्म-रस्म के पालन करने की धारणा रखने वाले, पतरस द्वारा कही गई क्रम की पहली बात - मन फिराओ अर्थात पश्चाताप करो, और क्रम की यह तीसरी बात - अपने आप को संसार और सांसारिकता के व्यवहार से पृथक करो पर न तो कोई विशेष ध्यान देते हैं और न ही मसीही शिष्यता के जीवन में इनके महत्व एवं अनिवार्यता को लोगों को सिखाते हैं।
मसीही विश्वास के प्रचार और प्रसार के आरंभिक समय में, प्रेरित पौलुस ने कुरिन्थुस में स्थित मसीही मण्डली को लिखा “अविश्वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो, क्योंकि धामिर्कता और अधर्म का क्या मेल जोल? या ज्योति और अन्धकार की क्या संगति? और मसीह का बलियाल के साथ क्या लगाव? या विश्वासी के साथ अविश्वासी का क्या नाता? और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर का मन्दिर हैं; जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उन में बसूंगा और उन में चला फिरा करूंगा; और मैं उन का परमेश्वर हूंगा, और वे मेरे लोग होंगे। इसलिये प्रभु कहता है, कि उन के बीच में से निकलो और अलग रहो; और अशुद्ध वस्तु को मत छूओ, तो मैं तुम्हें ग्रहण करूंगा। और तुम्हारा पिता हूंगा, और तुम मेरे बेटे और बेटियां होगे: यह सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर का वचन है” (2 कुरिन्थियों 6:14-18)। यह दिखाता है कि संसार और सांसारिकता से पृथक रहना मसीही विश्वासी के लिए कितना महत्वपूर्ण है, और अनिवार्य है। पतरस प्रेरित ने इसके विषय लिखा “हे प्रियो मैं तुम से बिनती करता हूं, कि तुम अपने आप को परदेशी और यात्री जान कर उस सांसारिक अभिलाषाओं से जो आत्मा से युद्ध करती हैं, बचे रहो” (1 पतरस 2:11)।
थिस्सलुनीकिया की मसीही मण्डली के मसीही विश्वास और व्यवहार की सराहना करते हुए पौलुस प्रेरित ने उनके जीवन में आए परिवर्तन और उनके द्वारा अपनी पुरानी बातों को छोड़कर सुसमाचार प्रचार करने तथा प्रभु की बातों पर मन लगाने के बारे में सराहना करते हुए लिखा “और तुम बड़े क्लेश में पवित्र आत्मा के आनन्द के साथ वचन को मान कर हमारी और प्रभु की सी चाल चलने लगे। यहां तक कि मकिदुनिया और अखया के सब विश्वासियों के लिये तुम आदर्श बने। क्योंकि तुम्हारे यहां से न केवल मकिदुनिया और अखया में प्रभु का वचन सुनाया गया, पर तुम्हारे विश्वास की जो परमेश्वर पर है, हर जगह ऐसी चर्चा फैल गई है, कि हमें कहने की आवश्यकता ही नहीं। क्योंकि वे आप ही हमारे विषय में बताते हैं कि तुम्हारे पास हमारा आना कैसा हुआ; और तुम कैसे मूरतों से परमेश्वर की ओर फिरे ताकि जीवते और सच्चे परमेश्वर की सेवा करो। और उसके पुत्र के स्वर्ग पर से आने की बाट जोहते रहो जिसे उसने मरे हुओं में से जिलाया, अर्थात यीशु की, जो हमें आने वाले प्रकोप से बचाता है” (1 थिस्स्लुनीकियों 1:6-10)।
तो क्या इसका तात्पर्य है कि मसीही विश्वासी को संसार के साथ कोई संपर्क, कोई व्यवहार, कोई मेल-जोल या बातचीत नहीं रखनी है; वरन अपने आप को सभी से बिल्कुल अलग-थलग कर के एक सन्यासी के समान जीवन बिताना है? नहीं! परमेश्वर का वचन बाइबल यह भी नहीं कहता है; और ऐसी धारणा रखना भी बाइबल की शिक्षाओं के अनुरूप नहीं है। प्रभु यीशु ने स्वयं अपने शिष्यों से कहा कि वे सारे जगत में जाकर मसीह यीशु में विश्वास द्वारा सेंत-मेंत उपलब्ध पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के संदेश को बताएं। यदि प्रभु यीशु मसीह के शिष्य संसार के लोगों से मिलेंगे-जुलेंगे नहीं, उनसे संपर्क नहीं रखेंगे, तो फिर प्रभु की यह आज्ञा कैसे पूरी करेंगे? पौलुस जब अथेने में अपने साथियों के आने की बाट जोह रहा था, तो यहूदियों और अन्यजाति लोगों से चर्चाएं किया करता था, उन्हें सुसमाचार सुनाया करता था “जब पौलुस अथेने में उन की बाट जोह रहा था, तो नगर को मूरतों से भरा हुआ देखकर उसका जी जल गया। सो वह आराधनालय में यहूदियों और भक्तों से और चौक में जो लोग मिलते थे, उन से हर दिन वाद-विवाद किया करता था। तब इपिकूरी और स्तोईकी पण्डितों में से कितने उस से तर्क करने लगे, और कितनों ने कहा, यह बकवादी क्या कहना चाहता है परन्तु औरों ने कहा; वह अन्य देवताओं का प्रचारक मालूम पड़ता है, क्योंकि वह यीशु का, और पुनरुत्थान का सुसमाचार सुनाता था” (प्रेरितों 17:16-18)। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस प्रेरित ने कुरिन्थुस की मण्डली को लिखा “मैं ने अपनी पत्री में तुम्हें लिखा है, कि व्यभिचारियों की संगति न करना। यह नहीं, कि तुम बिलकुल इस जगत के व्यभिचारियों, या लोभियों, या अन्धेर करने वालों, या मूर्तिपूजकों की संगति न करो; क्योंकि इस दशा में तो तुम्हें जगत में से निकल जाना ही पड़ता” (1 कुरिन्थियों 5:9-10)।
इन सभी बातों के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मसीही विश्वासी के लिए पृथक होकर रहने का अर्थ सन्यास ले लेना, अथवा सभी लोगों से हर प्रकार का संपर्क एवं व्यवहार समाप्त कर देना नहीं है। वरन, मसीही विश्वासी को संसार के लोगों के समान और सांसारिकता की मानसिकता नहीं रखनी है, उनके सदृश्य नहीं बनना है (रोमियों 12:2)। प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों को संसार में रहते हुए किस प्रकार व्यवहार रखना है सिखाया, जो स्पष्ट करता है कि उन्हें संसार के लोगों के साथ संपर्क रखना था, उनके बीच में अपनी सच्चाई और खराई के कारण एक गवाह बन कर रहना था। प्रभु संसार के लोगों के घरों में जाता था, उनके साथ खाता था, उनसे बातचीत करता था (मत्ती 9:11; 11:19 लूका 5:30; 15:2; 19:7), किन्तु उसने कभी भी उन लोगों के सोच-विचार, व्यवहार को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, कभी भी परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता और उसके अनुरूप व्यवहार के साथ कोई समझौता नहीं किया। प्रभु ने अपने शिष्यों को संसार के लोगों के मध्य एक गवाही का जीवन जीने के लिए कहा: “तुम पृथ्वी के नमक हो; परन्तु यदि नमक का स्वाद बिगड़ जाए, तो वह फिर किस वस्तु से नमकीन किया जाएगा? फिर वह किसी काम का नहीं, केवल इस के कि बाहर फेंका जाए और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाए। तुम जगत की ज्योति हो; जो नगर पहाड़ पर बसा हुआ है वह छिप नहीं सकता। और लोग दिया जलाकर पैमाने के नीचे नहीं परन्तु दीवट पर रखते हैं, तब उस से घर के सब लोगों को प्रकाश पहुंचता है। उसी प्रकार तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वे तुम्हारे भले कामों को देखकर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में हैं, बड़ाई करें” (मत्ती 5:13-16)। इसका परिणाम होगा “अन्यजातियों में तुम्हारा चालचलन भला हो; इसलिये कि जिन जिन बातों में वे तुम्हें कुकर्मी जान कर बदनाम करते हैं, वे तुम्हारे भले कामों को देख कर; उन्हीं के कारण कृपा दृष्टि के दिन परमेश्वर की महिमा करें” (1 पतरस 2:12)।
मसीही विश्वास का जीवन एक व्यवहारिक जीवन है, निरंतर हर बात में प्रभु यीशु की आज्ञाकारिता में बने रहने, और अपनी हर बात के द्वारा परमेश्वर को महिमा देते रहने का जीवन है “सो तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो” (1 कुरिन्थियों 10:31)। किन्तु यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
अय्यूब 25-27
प्रेरितों 12
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Christian Believer’s Separation from the World - How?
We have been looking at the effects of the gospel preached by Peter on the day of Pentecost, to the devout Jews gathered in Jerusalem, by the power of the Holy Spirit. We have seen seven things from Acts 2:37-42 that are a feature of the Christian life after coming to faith in the Lord Jesus, receiving the forgiveness of sins, salvation, and become a disciple of Christ. In the last article we had started to consider the seventh of these things, a Christian Believer’s life of separation from the world and the ways of the world. We had seen how important this life of separation is, and that God the Holy Spirit residing within the Christian Believer helps him to do this. But, as we have already seen, those who believe in the Christian religion and think of being righteous through the following their religion, doing religious works, fulfilling rituals and ceremonies, they have converted five of these seven things into ritualistic formalities, doing away with their true meaning, significance and application in the Believer’s life. They pay scant attention, if any, to the remining two, i.e., repentance and separation from the world; and the importance and necessity of these two are never diligently taught and realistically emphasized upon the congregation by the religious leaders of the Christian religion.
In the initial phase of the preaching and spreading of the Christian faith, the apostle Paul wrote to the Christian Believer’s Assembly in Corinth, “Do not be unequally yoked together with unbelievers. For what fellowship has righteousness with lawlessness? And what communion has light with darkness? And what accord has Christ with Belial? Or what part has a believer with an unbeliever? And what agreement has the temple of God with idols? For you are the temple of the living God. As God has said: "I will dwell in them And walk among them. I will be their God, And they shall be My people." Therefore "Come out from among them And be separate, says the Lord. Do not touch what is unclean, And I will receive you. I will be a Father to you, And you shall be My sons and daughters, Says the Lord Almighty."” (2 Corinthians 6:14-18). This passage shows how important and necessary it is for a Christian Believer to stay separated from the world and ways of the world. The apostle Peter wrote about this, “Beloved, I beg you as sojourners and pilgrims, abstain from fleshly lusts which war against the soul” (1 Peter 2:11).
Paul, appreciating and commending the life and behavior of the Christian Assembly in Thessalonica, wrote about this separation they had exhibited “And you became followers of us and of the Lord, having received the word in much affliction, with joy of the Holy Spirit, so that you became examples to all in Macedonia and Achaia who believe. For from you the word of the Lord has sounded forth, not only in Macedonia and Achaia, but also in every place. Your faith toward God has gone out, so that we do not need to say anything. For they themselves declare concerning us what manner of entry we had to you, and how you turned to God from idols to serve the living and true God, and to wait for His Son from heaven, whom He raised from the dead, even Jesus who delivers us from the wrath to come” (1 Thessalonians 1:6-10).
Then, does this mean that a Christian Believer has to have no contact, no interaction, no company or conversation with the people of the world? Are they supposed to keep away from the world as an ascetic? No! God’s Word the Bible does not say this at all; neither is harboring any such notion in accordance with the Biblical teachings on this subject. The Lord Jesus Himself has commanded His disciples to go into the world and preach the gospel of forgiveness of sins and salvation through faith in the Lord Jesus. If the disciples of the Lord Jesus do not meet and interact with the people of the world, not remain in touch with them, how can they fulfill the Lord’s command? When Paul was waiting for his colleagues to join him in Athens, he spent his time meeting and discussing with the Jews and Gentiles, preached the gospel to them, “Now while Paul waited for them at Athens, his spirit was provoked within him when he saw that the city was given over to idols. Therefore, he reasoned in the synagogue with the Jews and with the Gentile worshipers, and in the marketplace daily with those who happened to be there. Then certain Epicurean and Stoic philosophers encountered him. And some said, "What does this babbler want to say?" Others said, "He seems to be a proclaimer of foreign gods," because he preached to them Jesus and the resurrection” (Acts 17:16-18). Under the guidance of the Holy Spirit, Paul wrote to the Believer’s Assembly in Corinth, “I wrote to you in my epistle not to keep company with sexually immoral people. Yet I certainly did not mean with the sexually immoral people of this world, or with the covetous, or extortioners, or idolaters, since then you would need to go out of the world” (1 Corinthians 5:9-10).
In view of the above teachings and passages from God’s Word the Bible, we can surmise that the command to be separated from the world for Christian Believer is not a command to become an ascetic, nor is it to be understood as a commandment to cut himself off from every contact and interaction with the world. Rather, they have been commanded to stay away or separated from the mentality and life of the world and worldly people, not to be conformed to them (Romans 12:2). The Lord Jesus Christ, during His stay in the world, demonstrated and taught to His disciples how this has to be done. He went to their houses, ate with them and talked with them (Matthew 9:11; 11:19; Luke 5:30; 15:2; 19:7), but never let their way of thinking and living gain an upper hand, never compromised on His values and obedience to God’s Word. The Lord asked His disciples to live an exemplary life amongst the people of the world, one that would witness to their faith in Him, “You are the salt of the earth; but if the salt loses its flavor, how shall it be seasoned? It is then good for nothing but to be thrown out and trampled underfoot by men. You are the light of the world. A city that is set on a hill cannot be hidden. Nor do they light a lamp and put it under a basket, but on a lampstand, and it gives light to all who are in the house. Let your light so shine before men, that they may see your good works and glorify your Father in heaven” (Matthew 5:13). The effect of their leading such a life will be, “having your conduct honorable among the Gentiles, that when they speak against you as evildoers, they may, by your good works which they observe, glorify God in the day of visitation” (1 Peter 2:12).
The life of Christian Believer should be a life of practically living and demonstrating the faith, a life that glorifies God through every aspect of life, “Therefore, whether you eat or drink, or whatever you do, do all to the glory of God” (1 Corinthians 10:31). But if you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Job 25-27
Acts 12