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आरम्भिक बातें – 3
परिचय - 3
मसीही जीवन में बढ़ोतरी और परिपक्वता के लिए, यह अनिवार्य है कि मसीही विश्वासी
परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को प्रार्थना के साथ नियमित एवं उचित रीति से ग्रहण करते
रहें, अर्थात, उसका अध्ययन करते, उसे सीखते रहें, और फिर उसका पालन करें, अपने जीवनों
में उसे लागू करें। जैसा कि पिछले लेख में उल्लेख किया गया था, यह करने में उनकी सहायता
करने के लिए, उनके नया-जन्म पाने, उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर ने उन्हें अपना
पवित्र आत्मा दे दिया है। वे पवित्र आत्मा की सहायता से जो भी सीखते हैं, उन्हें न
केवल उसे अपने जीवन में लागू करना है, वरन उसे औरों को भी सिखाना है। ऐसा करना उनकी
मसीही सेवकाई का एक भाग है जो प्रभु द्वारा उसके शिष्यों को दी गई महान आज्ञा में करने
के लिए कहा गया है। पिछले लेख में हमने देखा था कि बहुत संभव है कि जिन इब्रानी विश्वासियों
को यह पत्री लिखी गई थी, उन्होंने अपनी इन जिम्मेदारियों का निर्वाह करना छोड़ दिया
था। परिणामस्वरूप, अब वे अपने आत्मिक जीवनों में इतने गिर गए थे कि उन्हें परमेश्वर
के वचन की गूढ़ बातें सिखा पाना असंभव हो गया था। वे एक बार फिर से आत्मिक बच्चों के
समान हो गए थे, जिन्हें परमेश्वर के वचन की आरम्भिक बातों को सिखाना आवश्यक था, जैसा
कि इस पत्री का लेखक इब्रानियों 5:12(b) में लिखता है। आज हम परमेश्वर के वचन को सीखने के इसी
पक्ष तथा विश्वासी के जीवन में उसके तात्पर्य को देखेंगे।
पवित्र आत्मा की अगुवाई में, प्रेरित पतरस अपने पाठकों को, 1 पतरस 2:2 में लिखता
है, “नये जन्मे हुए बच्चों के समान निर्मल आत्मिक दूध की लालसा करो, ताकि
उसके द्वारा उद्धार पाने के लिये बढ़ते जाओ।” पतरस द्वारा उपयोग की गई यह आलंकारिक भाषा एक सामान्य ज्ञान के बात है जिसे
हम अपने आस-पास प्रतिदिन देखते हैं – शिशु और छोटे बच्चे दूध के अतिरिक्त और कुछ नहीं
लेने पाते हैं, उन में दूध के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु को पचा पाने की क्षमता ही नहीं
होती है; और यदि दूध के अतिरिक्त उन्हें कुछ और दिया भी जाए तो उस से उनकी बढ़ोतरी और
विकास नहीं होगा, वरन, हानि हो सकती है। इसी प्रकार से इस पत्री का लेखक इब्रानियों
5:12(b) में लिख रहा है कि ये विश्वासी एक बार फिर से आत्मिक शिशु और छोटे बच्चे बन
गए थे, जो “दूध,” अर्थात नवजात शिशुओं के आरंभिक भोजन, के अतिरिक्त और कुछ भी न तो
ग्रहण कर सकते थे और न ही पचा सकते थे। उनसे “…तुम्हें अन्न के बदले अब तक…” कहने के द्वारा,
लेखक उन्हें उनकी वास्तविक दशा से अवगत करवा रहा है; कि परमेश्वर के वचन की आरंभिक
बातें उनके लिए एक बार फिर से आवश्यकता बन गई हैं। न केवल वे कुछ भी ठोस, जो लेखक उन्हें
सिखाना चाहता था, लेने और पचाने में अक्षम हो गए थे, बल्कि उन्हें उस आत्मिक दूध, अर्थात
आरम्भिक बातों, के अतिरिक्त और कुछ भी देना व्यर्थ हो जाता क्योंकि वे न तो उसे पचाने
पाते और न ही उससे उनकी कोई बढ़ोतरी होती। इसलिए वह उन्हें उन छः आरंभिक बातों को जो
इब्रानियों 6:1-2 में लिखी हुई हैं, याद दिलाता है, जिनमें उन्हें अच्छे से स्थापित
होना है जिससे कि वे एक बार फिर से परमेश्वर के वचन की उन गूढ़ बातों को सीखने योग्य
बन सकें, जो परमेश्वर ने उनके लिए रखी हुई हैं।
फिर, इब्रानियों 5:13-14 में वह इस बात को और अच्छे से समझाता है, व्यक्ति द्वारा
लिए जाने वाले आत्मिक भोजन से सम्बन्धित कुछ बातों को कहने के द्वारा। पद 13 में वह
कहता है कि दूध पीने वाले बच्चों को तो धर्म के वचन की पहचान नहीं होती है, अर्थात,
वे जो केवल आत्मिक दूध ही पीने वाले हैं, वे लोग वह हैं जो वचन में अक्षम, अनुभवहीन,
उस से अनजान होते हैं। इसलिए, परमेश्वर के वचन की गहरी बातों से अनजान होना, उन्हें
ग्रहण न कर पाना, उन्हें समझ न पाना, मसीही जीवन में शिशु होने के, आत्मिक अपरिपक्वता
तथा बढ़ोतरी के अभाव के चिह्न हैं। फिर वह पद 14 में कहता है कि ठोस भोजन या अन्न, सयानों
के लिए है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के वचन की गहरी बातों को उन्हें देने का प्रयास
करना जो उन्हें ग्रहण कर पाने और पचाने योग्य नहीं हैं, व्यर्थ है क्योंकि वे बातें
उनके लिए हैं ही नहीं। और फिर पद 14 के दूसरे भाग में इस पत्री का लेखक उस आत्मिक परिपक्वता
– सयाने होने को परिभाषित करता है, जिस के बारे में वह पवित्र आत्मा की अगुवाई में
बात कर रहा है, अर्थात वे “...जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे
में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।” दूसरे
शब्दों में, आत्मिक परिपक्वता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियों का नियमित
और पर्याप्त रीति से भली और बुरी बातों की पहचान करने, उन बातों का आँकलन करने, का
अभ्यास करते रहना अनिवार्य है। यह कुछ उसके समान है जो पौलुस रोमियों 12:1-2 में परमेश्वर
की इच्छा जानने के बारे में कहता है – सम्पूर्ण समर्पण और परमेश्वर की आज्ञाकारिता
में चलते रहने के अनुभवों के द्वारा। अनुभव जितने अधिक होंगे, सँख्या तथा विभिन्नता
दोनों में, परमेश्वर की इच्छा जान पाने की क्षमता उतनी ही अधिक बेहतर होगी। इसलिए,
आत्मिक परिपक्वता प्राप्त करने के लिए, मसीही विश्वासी को भली और बुरी, दोनों ही प्रकार
की परिस्थितियों, उनमें परखे जाने और जयवन्त होने से होकर निकलना पड़ेगा।
किसी को भी इस से डरने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मसीही विश्वासियों में
न केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा निवास करता है, उनकी सहायता एवं मार्गदर्शन करके पार
ले जाने के लिए, बल्कि परमेश्वर की प्रतिज्ञा भी है कि वह अपने बच्चों को उनकी क्षमता
से अधिक किसी भी परीक्षा में नहीं पड़ने देगा, वरन उस स्थिति में भी उसके साथ निकासी
का मार्ग भी देगा (1 कुरिन्थियों 10:13)। इसलिए, एक प्रकार से इन भली-बुरी परिस्थितियों
और अनुभवों से होकर निकलना उन्हें और अधिक फलवन्त करने के लिए की जाने वाली छँटाई (यूहन्ना
15:2) के समान है, या सुनार द्वारा आग से ताए जाने के समान जिसके द्वारा वह सोने या
चाँदी में से अशुद्धताओं को जलाता और बाहर निकालता है, और उसे परिशुद्ध करता है (जकरयाह 13:9; मलाकी 3:3; 1 पतरस 1:7)। तात्पर्य
यह है कि आत्मिक परिपक्वता और परमेश्वर के वचन की गूढ़ बातों को सीखने एवं समझने की
क्षमता प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को निरन्तर विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों का
सामना करने के अभ्यास से होकर निकलते रहना पड़ता है। और इसके लिए एक सक्रिय मसीही जीवन
अनिवार्य है, बजाए इसके कि केवल “इतवार के मसीही” बने रहें, जो केवल कुछ धार्मिक रीतियों
और परम्पराओं के पालन करते रहने में ही रुचि रखते हैं, किन्तु इस से उनके आत्मिक जीवनों
में कभी भी कोई भी आत्मिक बढ़ोतरी या परिपक्वता नहीं आती है।
लगता है कि यह नहीं करने के कारण, अपने शिक्षक एवं सहायक, पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता
एवं मार्गदर्शन में जीवन व्यतीत न करने के कारण, ये इब्रानी विश्वासी अपने आत्मिक जीवन
में गिर कर अपरिपक्वता की इस दशा में आ गए थे कि उन्हें फिर से इब्रानियों 6:1-2 में
दी गई आरंभिक बातों को सिखाने की आवश्यकता पड़ गई थी। अगले लेख से हम एक-एक कर के इन
बातों को देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने
अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष
में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और
पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए
क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता
में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको
स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए
आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा
और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर
क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज
जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे
अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के
हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके
वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल
के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 3
Introduction - 3
For
Christian growth and maturity, the Christian Believers need to feed on the
whole of God’s Word prayerfully, regularly, and systematically, i.e., study and
learn it, and then practise it or live by it. As was mentioned in the last
article, to help them in doing this, God has provided them His Holy Spirit
since the moment of their being Born-Again or saved. They should not only
endeavour to apply whatever they learn with the help of the Holy Spirit in
their lives, but also teach others whatever they have been taught. Doing so is a
part of their Christian ministry, entrusted to them in the Great Commission
commanded by the Lord Jesus to His disciples. In the last article we had seen
that quite likely the Hebrew Believers, to whom the New Testament letter to the
Hebrews had been written, had failed to fulfil these responsibilities. Consequently,
they were now so fallen back in their spiritual lives and maturity, that it had
become impossible to teach them the deeper things of God’s Word. They had reverted
to a childlike stage, where it had become necessary to teach the elementary
principles of God’s Word once again to them, as the author of this letter says
in Hebrews 5:12 (b). Today we will consider this aspect of learning God’s Word
and its implications in a Believer’s life.
In 1
Peter 2:2, through the Holy Spirit, the Apostle Peter writes to his readers, “as
newborn babes, desire the pure milk of the word, that you may grow thereby.”
This analogy used by Peter, is a common-sense thing that we see around us every
day – infants and babies cannot partake of anything else, other than milk; they
are inherently incapable of digesting anything else, and even if something
other than milk is given to them it does not help in their growth and
development, rather, it may harm them. Similarly, the author of Hebrews is
writing in Hebrews 5:12 (b), that these Believers have now once again become spiritual
infants and babies, who cannot partake and digest anything other than “milk,”
i.e., the initial basic food of the new-borns. The author by saying “…you
have come to need…” shows them their actual spiritual condition; that the basic
teachings of God’s Word had once again become a necessity for them. Not only
had they become incapable of partaking and digesting anything solid which the
author was wanting to share with them, but feeding them anything other than the
spiritual milk, i.e., the basics, would have been futile; since they would
neither be able to digest it, not grow by it. Hence, he reminds them of the six
elementary principles mentioned in Hebrews 6:1-2, in which they ought to be
well versed, so that they may once again become capable of receiving the deeper
teachings of God’s Word that God had kept for them.
Then in
Hebrews 5:13-14 he explains it further by emphasizing certain points about the kind
of spiritual food a person is partaking. In verse 13 he says that babies, i.e.,
those unskilled, meaning inexperienced or ignorant, in the Word of God, they partake
only milk. So being incapable of comprehending the deeper truths of God’s Word
is a sign of infancy in Christian life; implying spiritual immaturity and lack
of growth in their Christian lives. Then, in verse 14 he says that solid food
is meant for those who are mature. In other words, trying to feed the deeper things of God’s Word to those
incapable of taking and digesting them, is a waste since those things do not belong
to them. And then, in the second half of verse 14 the author of this letter
defines the spiritual maturity – those who are of full age, or those who are
mature are the ones, that he is talking about under the guidance of the Holy
Spirit, i.e., they “…who by reason of use have their senses exercised to
discern both good and evil.” In other words, to attain spiritual maturity
one’s senses have to be regularly and amply exercised, to discern i.e.,
evaluate and judge the good as well as the bad things. This is something like
what Paul said in Romans 12:1-2 about learning to discern God’s will – by full
submission to God and through the experiences of living in obedience to Him;
the more the experiences in both variety and number, the better the ability to
learn and know God’s will. So, to attain spiritual maturity, the Christian
Believer will need to go through and be tested, in both kinds of circumstances –
good as well as bad or evil, and come out victorious in them.
No one
need be afraid of this, since not only do Christian Believers have God’s Holy
Spirit residing in them to help and guide them through, but God has also
promised that His children will never be tried beyond their capabilities, and even
then, a way out will also be provided to them (1 Corinthians 10:13). So, in a
sense going though the various circumstances, good or bad, is like the pruning
process to make a person more fruitful (John 15:2), or the refining through
fire that a goldsmith or silversmith does to the metal to burn and remove its
dross, and purify it (Zechariah 13:9; Malachi 3:3; 1 Peter 1:7). The
implication is that to attain spiritual maturity and discernment, to be able to
learn and understand the deeper things of God’s Word, one has to continually be
exercised through various kinds of circumstances, and therefore have to live an
active Christian life, instead of merely being the “Sunday Christians” interested
only in fulfilling certain religious formalities and rituals, which will never
result in any growth and maturity in spiritual lives.
Apparently,
because of not doing this, not living in obedience to and under the guidance of
their teacher and helper, the Holy Spirit of God, these Hebrew Believers, from
a mature state, had fallen into this state of immaturity, and had come to require
being taught the elementary principles all over again. In the next article, we will start on the
elementary principles given in Hebrews 6:1-2, one by one.
If you
have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor
of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where
there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His
Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your
sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and
sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and
heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord
Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time
completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer
and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and
repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them
through your life. Because of them you died on the cross in my place,
were buried, and you rose again from the grave on the third day for my
salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me
the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please
forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit
my life into your hands."
Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and
future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for
eternity.