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बाइबल और भौतिक-विज्ञान - 1
न केवल जीव-विज्ञान, वरन अन्य प्रकार के विज्ञान से संबंधित बातें भी परमेश्वर के वचन बाइबल की पुस्तकों में हजारों वर्ष पहले लिख दी गईं हैं। इनमें से कुछ को हम पहले सृष्टि की रचना, अंतरिक्ष, आदि शीर्षकों में देख चुके हैं। भौतिक विज्ञान से संबंधित कुछ अन्य बातों को हम आज से देखेंगे।
एक बहुत ही सामान्य सी बात से आरंभ करते हैं - पानी का चक्र - किस प्रकार पानी सागर, आकाश और पृथ्वी के मध्य एक निरंतर चलती रहने वाली क्रिया में घूमता रहता है, और सारी पृथ्वी की सिंचाई होते रहती है, तथा सभी के पीने के लिए पानी उपलब्ध बना रहता है। किन्तु मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए और “ज्ञान” के नाम पर परमेश्वर द्वारा बनाए गए और सुचारु रीति से चलते रहने वाले इस पूरे चक्र बिगाड़ दिया है जिससे आज स्थान-स्थान पर या तो सूखा पड़ रहा है, अथवा अप्रत्याशित और अनपेक्षित बाढ़ आ रही हैं, जिससे सभी के लिए बहुत खतरा उत्पन्न हो गया है। यह कि प्रकृति के विधान मनुष्यों के द्वारा इस प्रकार से बिगाड़ दिए जाएंगे भी परमेश्वर ने अपने वचन में पहले से ही लिखवा रखा है।
पहले पानी के चक्र को देखते हैं - आज यह सामान्य ज्ञान में स्कूलों में सिखाया जाता है कि सागर का पानी, सूर्य की गर्मी से भाप बनकर उठता है, हवा के साथ बहकर ठन्डे इलाकों, मैदानों, पहाड़ों आदि की ओर जाता है, ओस और वर्षा के रूप में उन सभी स्थानों पर पड़ता है। यहाँ से उसका कुछ भाग धरती में सोख लिया जाता है वह पृथ्वी के भीतरी भागों में स्थित जलाशयों में भी जाता है और सतह पर बहने वाली नदियों में भी जाता है, तथा फिर नदी के साथ बहकर सागर में जा मिलता है। आज जो खोज-बीन तथा उपकरणों आदि के माध्यम से उपलब्ध जानकारी हमें साधारण, सामान्य ज्ञान की बात लगती है, उसे आज से हजारों वर्ष पहले रहने वाले मनुष्यों के लिए जान पाना कितनी जटिल और असंभव सी बात रही होगी, इसकी कल्पना कीजिए। उस समय बहुत कम आबादी थी, शिक्षा बहुत सीमित थी, तथा मुख्यतः स्थानीय बातों से संबंधित होती थी; आज के समान यातायात के साधन नहीं थे, लंबी दूरी की यात्राएँ करना जान जोखिम में डालने की बात होती थी; जानकारी एकत्रित करके उसका परस्पर ताल-मेल बैठाने और विश्लेषण करने की ऐसी क्षमता नहीं थी जैसी आज है। जो पर्वतों पर या उनके आस-पास रहते थे उनमें से अधिकांश यह नहीं जानते होंगे कि सागर भी होते हैं। इसी प्रकार जो सागर तट के आस-पास रहते थे उन्हें पहाड़ों और पर्वतों की जानकारी होने की कम ही संभावना होगी, और जो विशाल मैदानी क्षेत्रों में रहते थे, उनके लिए पर्वत और सागर, दोनों के बारे पता भी होगा कि नहीं, यह कल्पना की बात है। ऐसे में पानी कहाँ से आया, कहाँ को गया, और कैसे, यह सब यदि उस समय के जीवन के आधार पर देखें, तो इसका विश्लेषण करना और उसकी सटीक जानकारी लिख दिया जाना, और वह भी ऐसे व्यक्ति के द्वारा जो न विज्ञान और न वैज्ञानिक जानकारी रखने वाला व्यक्ति हो, लगभग असंभव बात है।
अब बाइबल के कुछ पदों को देखिए:
अय्यूब 36:27-28 क्योंकि वह तो जल की बूंदें ऊपर को खींच लेता है वे कुहरे से मेंह हो कर टपकती हैं, वे ऊंचे ऊंचे बादल उंडेलते हैं और मनुष्यों के ऊपर बहुतायत से बरसाते हैं।
आमोस 9:6 जो आकाश में अपनी कोठरियां बनाता, और अपने आकाशमण्डल की नेव पृथ्वी पर डालता, और समुद्र का जल धरती पर बहा देता है, उसी का नाम यहोवा है।
यिर्मयाह 10:13 जब वह बोलता है तब आकाश में जल का बड़ा शब्द होता है, और पृथ्वी की छोर से वह कुहरे को उठाता है। वह वर्षा के लिये बिजली चमकाता, और अपने भण्डार में से पवन चलाता है
सभोपदेशक 1:7 सब नदियां समुद्र में जा मिलती हैं, तौभी समुद्र भर नहीं जाता; जिस स्थान से नदियां निकलती हैं; उधर ही को वे फिर जाती हैं।
साथ ही इस तथ्य पर भी विचार कीजिए कि अय्यूब आज से लगभग 4000 वर्ष पहले का एक समृद्ध जमींदार था; आमोस आज से लगभग 2750 पहले का एक चरवाहा था; यिर्मयाह आज से लगभग 2600 वर्ष पूर्व परमेश्वर का भविष्यद्वक्ता था; और सभोपदेशक के लेखक राजा सुलैमान ने यह पुस्तक लगभग 3000 वर्ष पहले लिखी थी। उस समय के इन लिखने वाले लोगों के जीवन, ज्ञान, और वैज्ञानिक समझ तथा विश्लेषण करने की क्षमता के बारे में विचार कर के, बाइबल के उपरोक्त पदों पर विचार कीजिए - क्या यह सामान्य, साधारण मानवीय बुद्धि में आने वाली, और उससे उत्पन्न होने वाली बात हो सकती है?
अब पृथ्वी को बिगाड़ने वालों के बारे में बाइबल में लिखा हुआ देखते हैं। आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व, जब प्रदूषण और उसके प्रभावों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, तब बाइबल की अंतिम पुस्तक, प्रकाशितवाक्य, जो जगत के अंत और संसार के सभी लोगों के न्याय किए जाने की भविष्यवाणी की पुस्तक है, उसमें परमेश्वर ने प्रभु यीशु मसीह के शिष्य यूहन्ना के द्वारा, जो प्रभु का शिष्य बनने से पहले मछुआरा हुआ करता था, यह लिखवाया था, “और अन्यजातियों ने क्रोध किया, और तेरा प्रकोप आ पड़ा और वह समय आ पहुंचा है, कि मरे हुओं का न्याय किया जाए, और तेरे दास भविष्यद्वक्ताओं और पवित्र लोगों को और उन छोटे बड़ों को जो तेरे नाम से डरते हैं, बदला दिया जाए, और पृथ्वी के बिगाड़ने वाले नाश किए जाएं” (प्रकाशितवाक्य 11:18)। विवाद उत्पन्न करने, और तर्क देने वाले यह कह सकते हैं कि जिस “बिगाड़” की बात की गई है वह नैतिक पतन और भ्रष्टाचार भी हो सकता है। किन्तु मूल यूनानी भाषा में जो शब्द प्रयोग किया गया है, और जिसका अनुवाद “बिगाड़ना” किया गया है, वह है “डायाफ्थीरियो” जिसका शब्दार्थ होता है पूर्णतः सड़ा-गला कर नष्ट कर देना। यह वही शब्द है जिससे घातक बीमारी ‘डिफथीरिया’ का नाम आया है।
क्रमिक विकासवाद (Evolution) कहता है कि मनुष्य, पृथ्वी, और सृष्टि सुधर रहे हैं, उन्नत होते जा रहे हैं; जबकि हमारे समक्ष विदित व्यावहारिक वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत, और परमेश्वर के वचन बाइबल की बातों के अनुरूप है - मनुष्य, पृथ्वी और सृष्टि बिगड़ते जा रहे हैं, अपने अंतिम दिनों में पहुँच चुके हैं। सारे संसार भर में हर जाति, हर सभ्यता का मनुष्य शारीरिक, भौतिक, नैतिक, और आध्यात्मिक, हर रीति से सुधरने की बजाए बिगड़ता ही जा रहा है।
अब यह आपके लिए विचार करने और निर्णय लेने का समय है - क्या आप परमेश्वर के उस अवश्यंभावी न्याय का सामना करने, उसके सामने खड़े होकर अपने जीवन के हर एक पल का हिसाब देने, अपने मन, ध्यान, विचार, और व्यवहार की हर बात, हर सोच, हर कल्पना का हिसाब देने को तैयार हैं? क्योंकि परमेश्वर के दृष्टि से कुछ छिपा नहीं है, कुछ अज्ञात नहीं है, जैसा दाऊद ने अपने पुत्र सुलैमान को समझाया “और हे मेरे पुत्र सुलैमान! तू अपने पिता के परमेश्वर का ज्ञान रख, और खरे मन और प्रसन्न जीव से उसकी सेवा करता रह; क्योंकि यहोवा मन को जांचता और विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है उसे समझता है। यदि तू उसकी खोज में रहे, तो वह तुझ को मिलेगा; परन्तु यदि तू उसको त्याग दे तो वह सदा के लिये तुझ को छोड़ देगा” (1 इतिहास 28:9); और बाद में इब्रानियों के लेखक ने भी कहा, “क्योंकि परमेश्वर का वचन जीवित, और प्रबल, और हर एक दोधारी तलवार से भी बहुत चोखा है, और जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग कर के, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है। और सृष्टि की कोई वस्तु उस से छिपी नहीं है वरन जिस से हमें काम है, उस की आंखों के सामने सब वस्तुएं खुली और बेपरदा हैं” (इब्रानियों 4:12-13)।
परमेश्वर आपको अवसर दे रहा है; यदि आज तक भी आपने उसकी आपको दी जाने वाली पापों की क्षमा के इस अवसर को स्वीकार नहीं किया है, तो अभी फिर आपके पास मौका है। आप अभी स्वेच्छा से, सच्चे मन से, अपने पापों के लिए पश्चातापी मन के साथ यह छोटी सी प्रार्थना कर सकते हैं, “हे प्रभु यीशु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैंने मन, ध्यान, विचार, और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किया है। मैं यह भी मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों की सजा को अपने ऊपर उठाया लिया, और उसे पूर्णतः चुका दिया है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और अपना आज्ञाकारी शिष्य बना लें, और अपने साथ बनाकर रखें।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी यह छोटी सी प्रार्थना आपके मन और जीवन को बदल देगी, आपको परमेश्वर की संतान बनाकर, पापों के दण्ड से मुक्ति तथा अब से लेकर अनन्तकाल तक के लिए स्वर्गीय आशीषों का वारिस बना देगी। निर्णय आपका है।
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Bible and Physical Sciences - 1 - Water Cycle
Not just things related to Bio-sciences, but also related to the other sciences, have been written down in the books of God's Word, the Bible thousands of years ago. We have seen some of these earlier in the articles on Creation of Universe, Space, etc. We will now see some other things related to physical sciences.
Let's start with a very simple thing - the cycle of water - how water circulates between the ocean, the sky and the earth in a continuous cycle, irrigating the whole earth, and providing drinking water for all creatures. But man for his selfishness and in the name of "knowledge", like all other things, has spoiled this water cycle made by God and running smoothly since creation. Consequently, today there are either droughts at many places, or unexpected and unforeseen floods, that have posed great danger of existence for all. This too, that the laws of nature will be disturbed in this way by humans, and their consequences, God has already written in his Word.
First let's look at the water cycle - today it is taught in schools in “general knowledge” that ocean water, vaporizes by the heat of the sun, is carried by the wind towards cold areas, of the land plains, mountains etc., and it falls in the form of dew and rain over all those places. From here some part of it is absorbed into the earth, and goes into the water bodies located below the surface of the earth and some flows into the rivers flowing on the earth’s surface, and then flows back into the ocean. Today, because of the investigative equipment and tools etc. this information available through research done by various people at various places, seems to us to be a matter of simple, common sense. But imagine how complex and impossible it must have been for humans living thousands of years ago to know all this and put it together as parts one cycle. At that time the population was quite sparse, learning and education was not only very limited, but was mainly concerned with local matters; there were no means of transport or communication and exchange of information as we have today; traveling long distances was at a risk to life. There were no such facilities to collect, collate together and analyze information as are available today. Most of those who lived on or near mountains would not know that there are oceans. Similarly, those who lived near the sea coast quite likely would not be aware of hills and mountains, and those who lived in the vast plains would be not aware of either the mountains or the oceans. In such a situation, looking at all this on the basis of the life and circumstances of that time thousands of years ago, for anyone to know and accurately document this information, and that too by a person who was neither a scientist nor knew any science is almost impossible.
With this background, now consider some verses from the Bible:
Job 36:27-28 “For He draws up drops of water, Which distill as rain from the mist, Which the clouds drop down And pour abundantly on man.”
Amos 9:6 “He who builds His layers in the sky, And has founded His strata in the earth; Who calls for the waters of the sea, And pours them out on the face of the earth-- The Lord is His name.”
Jeremiah 10:13 “When He utters His voice, There is a multitude of waters in the heavens: "And He causes the vapors to ascend from the ends of the earth. He makes lightning for the rain, He brings the wind out of His treasuries."”
Ecclesiastes 1:7 “All the rivers run into the sea, Yet the sea is not full; To the place from which the rivers come, There they return again.”
Now, also consider the facts that Job was a prosperous landlord who lived about 4000 years ago; Amos was a shepherd from about 2750 ago; Jeremiah was God's prophet about 2600 years ago; And King Solomon, the author of Ecclesiastes, wrote this book about 3000 years ago. Considering their life, their knowledge, and their inability of scientific understanding, interpretation and analysis of scientific data by these writers of those times, think again about the above verses of the Bible — is it at all possible that these simple, unlearned, unscientific people could have known and written down this information by themselves?
Now let's see what is written in the Bible about the “destroyers”, i.e., the corrupters and spoilers of the earth. About 2000 years ago, when there was no information about environmental pollution and its effects, in the last book of the Bible, Revelation, which is the book of the prophecy about the end of the world and the judgment of all the people of the world, it was written by the guidance of God by John, a disciple of the Lord Jesus Christ, who was a fisherman before becoming a disciple of the Lord that, "The nations were angry, and Your wrath has come, And the time of the dead, that they should be judged, And that You should reward Your servants the prophets and the saints, And those who fear Your name, small and great, And should destroy those who destroy the earth” (Revelation 11:18). Those who engage in debates and arguments, may say that the "destroy" spoken of can be moral degradation and even corruption. But the word used in the original Greek and translated "destroy" is "diaphtherio" which means to destroy completely by rotting. It is the same word from which the name of the deadly disease 'Diphtheria' has come.
Evolution says that humans, the earth, and creation are improving, becoming advanced and better. Whereas the evident, practical reality before us is quite the opposite, and is in line with what God's Word the Bible says - man, the earth and creation are deteriorating; the world has reached its last days. All over the world, human beings of every race and every civilization, are only deteriorating instead of improving physically, morally, and spiritually, in every conceivable manner.
Now it's time for you to reflect and decide - are you ready and prepared to face that inevitable judgment of God? To stand before Him and give an account of every single moment of your life, of everything in your mind, attitude, thought, and behavior? For nothing is hidden from God, nothing is unknown to Him, as David explained to his son Solomon, “As for you, my son Solomon, know the God of your father, and serve Him with a loyal heart and with a willing mind; for the Lord searches all hearts and understands all the intent of the thoughts. If you seek Him, He will be found by you; but if you forsake Him, He will cast you off forever" (1 Chronicles 28:9); And later the author of Hebrews also said, "For the word of God is living and powerful, and sharper than any two-edged sword, piercing even to the division of soul and spirit, and of joints and marrow, and is a discerner of the thoughts and intents of the heart. And there is no creature hidden from His sight, but all things are naked and open to the eyes of Him to whom we must give account” (Hebrews 4:12-13).
God is giving you the opportunity; If till today you have not accepted this opportunity of forgiveness of your sins, that has been given to you, then you still have this opportunity available to you. You can utilize it just now by voluntarily, sincerely, with a repentant heart for your sins, saying this short prayer, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You and sinned in mind, attitude, thought, and behavior. I also believe that you have taken upon yourself the punishment for my sins by your sacrifice on the Cross, and have paid for them in full. Please forgive my sins, take me under your care, make me your obedient disciple, and keep me with you." This small prayer of yours, said with a sincere and committed heart will transform your mind and life, make you a child of God, free you from the punishment of your sins, and make you an heir of heavenly blessings from now to eternity. The decision is yours.