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क्या 2 राजा 5:18-19 से नामान के उदाहरण के आधार पर मसीही विश्वासियों का गैर-मसीही उपासना तथा धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेना उचित माना जा सकता है?
परमेश्वर के वचन बाइबल के गलत अर्थ निकालने, गलत व्याख्या करने और उसकी गलत समझ रखने का प्रमुख और आम तौर से देखा जाने वाला कारण है बाइबल के अंशों को उनके संदर्भ से बाहर लेना, उन्हें छोटे भागों में विभाजित करके केवल उस विभाजित भाग मात्र को ही अपनी व्याख्या का आधार बनाना, और अपनी बात को मनवाने के लिए वचन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना। परमेश्वर के वचन के किसी भी भाग की शिक्षाओं को सही समझने और जानने के लिए उन्हें सदैव ही उनके संदर्भ में देखना और समझना चाहिए, न कि संदर्भ के बाहर।
यहाँ नामान के उपरोक्त कथन के अर्थ और उपयोगिता को समझने के लिए, उसे पद 17, “तब नामान ने कहा, अच्छा, तो तेरे दास को दो खच्चर मिट्टी मिले, क्योंकि आगे को तेरा दास यहोवा को छोड़ और किसी ईश्वर को होमबलि वा मेलबलि न चढ़ाएगा” के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसमें इसे समझने की कुंजी है।
एलीशा के निर्देशों का पालन – चाहे बहुत संकोच के साथ ही सही, करने के पश्चात स्वयँ नामान को ही आश्चर्य हुआ कि वह पूर्णतः चँगा हो गया है, और वह एलीशा के पास लौट कर आता है, इस बात के लिए बिलकुल दृढ़ और निश्चित कि इस्राएल के परमेश्वर को छोड़ और कोई परमेश्वर है ही नहीं (पद 15), और केवल वही परमेश्वर सभी आराधना और बलिदान के योग्य है, अन्य कोई नहीं। इस्राएल के परमेश्वर के प्रति नामान इतना निश्चित एवँ समर्पित हो गया कि उस परमेश्वर को अपने बलिदान चढ़ाने के लिए वेदी बनाने के लिए वह अपने मूर्तिपूजक देश, जहाँ वह रहता है, की मिट्टी भी प्रयोग करना नहीं चाहता है; वह चाहता है कि उसे “दो खच्चर मिट्टी” ले जाने की अनुमति दी जाए जिससे वह इस्राएल के परमेश्वर को अपनी भेंट चढ़ाने के लिए वेदी बना सके (इसे निर्गमन 20:23-26 के विचार के अन्तर्गत देखें)। नामान का यह आग्रह उसके प्रभु परमेश्वर, जिसमें वह अब विश्वास ले आया है और जिसे उसने उपासना और बलिदान के योग्य एकमात्र परमेश्वर स्वीकार कर लिया है, के प्रति उसके समर्पण और निष्ठा के विषय बहुतायत से ब्यान करता है।
परमेश्वर के प्रति नामान की इस निष्ठा और समर्पण को ध्यान में रखते हुए, अब हम 2 राजा 5:18-19 का आँकलन करते हैं। नामान के कथन में कुछ बहुत महत्वपूर्ण सत्य निहित हैं, जिनके आधार पर ही हम इन पदों से उचित और उपयोगी निष्कर्ष निकाल सकते हैं:
· नामान प्रभु परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास और समर्पण में अति-दृढ़ था। बिलकुल खुले रूप में, उसे अपने इस नए विश्वास का सबके सामने अंगीकार करने में न तो कोई संकोच था और न ही उसे अपने इस निर्णय के प्रति कोई संशय था कि अब से वह केवल इस्राएल के परमेश्वर ही की सेवा करेगा, किसी अन्य देवी-देवता की नहीं।
· नामान, रिम्मोन के भवन में, स्वेच्छा से नहीं वरन केवल राजा के प्रति उसके कार्य के निर्वाह की बाध्यता के अन्तर्गत ही जाता।
· रिम्मोन के सामने दण्डवत नामान को नहीं करना था वरन राजा को करना था; नामान उस दण्डवत की मुद्रा में तभी आता जब राजा को उसके हाथ के सहारे की आवश्यकता होती, अन्यथा नहीं।
· रिम्मोन के भवन में नामान की उपस्थिति न ही राजा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से होनी थी और न ही उपासना के लिए, परन्तु केवल राजा को सहारा देने वाले व्यक्ति के रूप में।
· इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह के प्रति भी नामान न तो सहमत था, और न ही इसे लेकर शान्ति से था, वरन अब उसके लिए यह एक मजबूरी थी, कोई स्वेच्छा से किया गया कार्य नहीं।
· ऐसा करने के प्रति वह अपने संकोच और अनमने होने को सबके सामने खुले रूप से कहता है, यह जानते हुए कि जब वह इस विषय में एलीशा से बात कर रहा था तब उसके देश के अन्य लोग भी वहाँ उपस्थित थे, और वह उन संभावित परिणामों से भी भली-भांति अवगत था जो इन बातों का उसके राजा के कानों तक पहुँचने से हो सकते थे। परन्तु फिर भी उन लोगों की उपस्थिति में वह ऐसा करने के प्रति अपने संकोच को व्यक्त करने, या अपने विश्वास के बारे में बात करने में निर्भय तथा निःसंकोच था।
उसके इस विश्वास और समर्पण के विषय एलीशा उसे प्रत्युत्तर देता है “कुशल से विदा हो”; दूसरे शब्दों में, एलीशा ने उसे आश्वस्त किया कि “चिन्ता मत कर, परमेश्वर तेरे विश्वास और समर्पण के बारे में, तथा इसके बारे में तेरे मन की भावनाओं के बारे में भली-भांति जानता है, और वह तेरे हृदय की दशा का अनुसार तेरा मूल्याँकन करेगा (इसे 1 शमूएल 16:7; 1 इतिहास 28:9; 2 इतिहास 16:9; नीतिवचन 16:2; यिर्मयाह 17:10; Jeremiah 20:12; लूका 16:15 के संदर्भ में देखें), इसलिए अपनी परिस्थितियों और मजबूरियों को लेकर परेशान न हो, केवल वह कर जो तेरे लिए सही है।”
इसलिए हम कह सकते हैं कि यहाँ पर एलीशा नामान को परमेश्वर के द्वारा अपने लोगों से बारंबार तथा बलपूर्वक कही गई बात – मूर्तियों और मूर्तिपूजा से बिलकुल परे और दूर रहो, के विरुद्ध जाने की अनुमति नहीं दे रहा था, और न ही बात को यूँ ही बिना गंभीरता से लिए कुछ कह रहा था। पुराने नियम में बहुधा दोहराए गए मूर्तिपूजा के विरुद्ध के इस सत्य के नए नियम के समानान्तर के लिए 2 कुरिन्थियों 6:14-18 देखें। परमेश्वर अपने वचन के विरुद्ध कभी नहीं जाएगा, और न ही किसी के भी लिए उसे किसी रीति से काटेगा या बदलेगा। स्मरण रखिए कि वचन स्वयँ देहधारी प्रभु यीशु मसीह ही है (यूहन्ना 1:1-4, 14) – स्वयँ परमेश्वर, मानव देह में, और बाइबल की बातों में कोई भी परस्पर विरोध, परमेश्वर द्वारा अपना ही प्रतिवाद करने के तुल्य है – जो कि बिलकुल असंभव बात है!
इसके अतिरिक्त, बाइबल में कहीं पर भी, पुराने अथवा नए नियम में, इस घटना के आधार पर परमेश्वर के लोगों का मूर्तियों या मूर्तिपूजा से किसी भी रीति से जुड़ने को न्यायसंगत या उचित नहीं ठहराया गया है, जबकि ऐसा किया जा सकता था, यदि इस घटना के अनुसार ऐसा करना सही निष्कर्ष होता। पौलुस ने भे जब कुरिन्थियों को लिखी अपनी पहली पत्री में मूर्तियों और मूर्तियों को अर्पित भोजन वस्तुओं के विषय में निर्देश दिए, तो इस घटना का कहीं उपयोग नहीं किया।
इसलिए यह स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर ने मसीही विश्वासियों को कदापि यह अनुमति नहीं दी है कि वे अविश्वासियों की उपासना के रीति रिवाजों एवँ अनुष्ठानों का भाग हों; और नामान का उदाहरण, केवल उन अविश्वासियों को प्रसन्न रखने के लिए जिनके साथ या जिनके आधीन कोई विश्वासी काम कर रहा है, परमेश्वर के इस निर्देश से बचकर निकलने का मार्ग प्रदान नहीं करता है।
मैं इस बात को अपने जीवन के अनुभव से जानता हूँ। मैं भी गैर-मसीही और मूर्तिपूजक लोगों के साथ तथा उनके आधीन काफी समय से विभिन्न समय और स्थानों पर कार्य करता रहा हूँ। नौकरी के लिए प्रत्येक साक्षात्कार के समय मैं सदा ही साक्षात्कार लेने और मुझे नौकरी पर रखने वाले अधिकारियों से यह स्पष्ट कहा है कि मैं उनके यहाँ नौकरी करते समय कभी भी, किसी भी परिस्थिति में, किसी उपासना, भेंट, बलिदान या अन्य किसी भी धार्मिक गतिविधि अथवा अनुष्ठान में कोई भाग नहीं लूँगा; और परमेश्वर के अनुग्रह तथा सहायता से मैं आज तक अपनी इस बात पर कायम रहा हूँ; और इसके कारण न तो मेरे नौकरी पर रखे जाने और न ही बढ़ोतरी दिए जाने, या महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों को मुझे सौंपें जाने में कभी कोई बाधा आई है। मैं आज तक निःसंकोच मूर्तियों के आगे अर्पित की गई किसी भी वस्तु को खाने से मना करता आया हूँ – नम्रता के साथ और हाथ जोड़कर अपने विश्वास को व्यक्त करने के द्वारा, बिना किसी को कोई कटु या अपमानजनक व्यवहार दिखाए। और मैंने आज तक उन लोगों के द्वारा आयोजित किसी भी धार्मिक कार्यक्रम या मृतकों के नाम से किए जाने वाले भोज में भाग नहीं लिया है। परमेश्वर सदा मेरे साथ बना रहा है, और मुझे हर उस हानि से बचाता रहा है जिसका भय दिखा कर शैतान लोगों को ऐसे दृढ़ रवैये को अपनाने से रोकने का प्रयास करता रहता है।
इसलिए, परमेश्वर पर भरोसा रखिए, उसके वचन के अनुसार चलिए (इब्रानियों 13:5-6), और परमेश्वर की विश्वासयोग्यता तथा सामर्थ्य का स्वयँ अनुभव कीजिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Naaman's Example in 2 Kings 5:18-19 - can it be used to justify participating in idolatrous gatherings.
The major and predominant cause of misinterpreting and misunderstanding God’s Word the Bible is taking its portions out of their context, using them in bits and pieces, and extrapolating them to suit one’s fancy. To properly understand and make use of the teachings of any part of God’s Word, it always has to be seen and understood in its context.
Here, to understand the meaning and application of Naaman’s statement that has been quoted, please also refer to verse 17, which provides the key to the answer: “So Naaman said, "Then, if not, please let your servant be given two mule-loads of earth; for your servant will no longer offer either burnt offering or sacrifice to other gods, but to the Lord.”
Naaman, having being miraculously healed of his leprosy, by following Elisha’s instructions – albeit quite reluctantly, to his own surprise gets completely healed, and returns to Elisha absolutely convinced that there is no god other than the God of Israel (vs. 15), and it is that God alone who is worthy of all worship and offering sacrifices to. Naaman is so convinced about and dedicated to the God of Israel, that to offer his sacrifices to Him he does not want to build an altar for his sacrifices to the Lord God from the earth of the pagan land that he resides and works in; he wants to carry “two mule-loads” of earth to his home to be able to build that altar for offering sacrifices (see in context of Exodus 20:23-26). This speaks volumes about the sincerity and depth of his commitment to the Lord God, whom he has come to believe in and accept as the one true God, the only God worthy or worship and sacrificing to.
Keeping this sincerity and commitment in mind, now let us evaluate 2 Kings 5:18-19. Implied in Naaman’s statement are important truths that need to be taken in consideration while drawing any conclusions from it:
· Naaman was steadfast in his faith and commitment to the Lord God, openly, not shying away from openly stating his new-found faith and his decision to henceforth serve only the God of Israel, and no other deity.
· Naaman would not go to the house of Rimmon voluntarily, but under compulsion to his duties to the King.
· Naaman was not the one bowing to Rimmon, it was the King; Naaman was going to move into that posture of bowing only if the King required his support to do so.
· Naaman’s presence there in the house of Rimmon was neither for worship nor to appease the King, but only as a “supporting appendage” for the King.
· Naaman was neither willing, not at peace within himself at all about having to carry out this possibility.
· He openly expresses his reluctance about it, knowing full well that there were other people from his country present there with him as he was expressing himself about this to Elsiha, and was well aware of the potential consequences if the thing were reported to the King, and yet he was not hesitant to express his reservations about it, or speak about his faith commitment in their presence.
It is to this faith and commitment that Elisha responds by saying “Go in peace”, in other words – “don’t worry, God knows about your faith, about the state of your commitment to Him, and the feelings in your heart about it, and God evaluates you according to what is in your heart (see in context of 1 Samuel 16:7; 1 Chronicles 28:9; 2 Chronicles 16:9; Proverbs 16:2; Jeremiah 17:10; Jeremiah 20:12; Luke 16:15), so don’t worry about your compulsions and circumstances, and just do what is right for you to do.”
Hence, Elisha is not giving Naaman a casually expressed immunity from something that goes against what God has repeatedly and forcefully stated to His people – stay absolutely away from idols and idolatry. See 2 Corinthians 6:14-18 for a New Testament version of this often repeated truth of the Old Testament. God will never contradict His Word, for anyone or anything; don’t forget, that the Word incarnate is the Lord Jesus Christ Himself (John 1:1-4, 14) – God Himself in human form, and any contradiction of the anything in the Bible is contradicting God Himself – an absolute impossibility for God to do!
Moreover, at no place in the Bible, whether in the Old Testament or the New Testament, has this incidence ever been used to provide any justification of any sort for God’s people associating themselves with idols or idolatry in any manner, whereas it could have well been used in this manner, if it were the right conclusion to draw from this incidence.
Hence it should be quite evident that God does not allow Believers to be a part of worship with the unbelievers, and Naaman’s example is no excuse for seeking a way to bypass God’s instructions, just to appease unbelievers we are working with.
I know this from my own life and example. I too have been working with and under non-Christian idolaters and unbelievers for a long time, and in different jobs, at different places. At every job interview and selection, I have made it openly clear to the interview board and my employer that I will never participate in any worship, offerings or any religious activity of any sort; and by God’s grace, to date I have stuck to it, and this has never come in the way of either my being selected, or promoted, or considered worthy of greater responsibilities than others. I unhesitatingly do not accept anything offered to idols, politely refusing it, with folded hands, not giving any offense in any manner to the one offering it to me, yet firm in my decision of not accepting things offered to idols, and I never participate in any religious functions or gatherings or occasions organized by them to commemorate their deities or their deceased. God has remained at my side, and kept me safe from any potential harm that Satan tries to frighten people about when they take such resolute steps.
Therefore take God at His Word (Hebrews 13:5-6) and see for yourself the faithfulness of God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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