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प्रभु की मेज़ - अनुचित भाग लेने के लिए न्याय (2)
प्रभु भोज में अनुचित रीति से भाग लेने से संबंधित पिछले लेख में हमने देखा था कि यदि भाग लेने वाले परमेश्वर के निर्देशों को हलके में लेते हैं, अपने आप को ठीक से नहीं जाँचते हैं, अपने पापों का अंगीकार नहीं करते हैं, उनके लिए परमेश्वर से क्षमा नहीं मांगते हैं, योग्य रीति से मेज़ में भाग नहीं लेते हैं; यदि भाग लेने वाले मेज़ में एक रीति के अनुसार औपचारिकता निभाते हुए भाग लेते हैं, अपने आप को ठीक नहीं करते हैं, तो फिर अन्ततः परमेश्वर को हस्तक्षेप करना ही पड़ता है और उनका न्याय करके उनकी ढिठाई के लिए उन्हें ताड़ना देनी ही पड़ती है। हम 1 कुरिन्थियों 11:27 में ताड़ना के स्तरों को देखते हैं - परमेश्वर के ढीठ और पथभ्रष्ट व्यवहार में बने रहने वाली संतान की ताड़ना का आरंभ निर्बल हो जाने से होता है, जो आगे बढ़कर रोगी हो जाने पर आती है, और अन्ततः मृत्यु तक चली जाती है। किन्तु परमेश्वर चाहता है कि पहले परमेश्वर के बच्चे स्वयं अपने आप को जाँच लें, अपने पापों, गलतियों, और कमजोरियों के बारे में ईमानदार हो जाएं, बजाए इसके कि उसे हस्तक्षेप करके उनकी ताड़ना भी करनी पड़े।
फिर हमें पद 32 में परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले न्याय और दी जाने वाली ताड़ना के कारण को बताया गया है - “इसलिये कि हम संसार के साथ दोषी न ठहरें।” ध्यान कीजिए यह पद यह नहीं कह रहा कि “इसलिये कि हम संसार के साथ नाश हो जाएं।” बल्कि, कहने का अभिप्राय है कि परमेश्वर को ढिठाई से बुराई में बने रहने वाली अपनी संतान के साथ, जो अयोग्य रीति से प्रभु भोज में भाग लेते रहते हैं, संसार के अविश्वासी लोगों के समान वैसी ही कठोरता के साथ व्यवहार न करना पड़ जाए। एक बार फिर, यद्यपि यह संभव नहीं लगता है कि परमेश्वर उसकी संतानों के लिए ऐसा कुछ भी करेगा, परंतु जैसे कि हम पहले इब्रानियों 12:8, अर्थात ताड़ना के बारे में देख चुके हैं, ढिठाई से बुराई में बने रहने पर परमेश्वर द्वारा अपने बच्चों के न्याय की ऐसी कठोरता के भी बाइबल में पर्याप्त ही नहीं उससे भी कहीं अधिक स्पष्ट उदाहरण और प्रमाण विद्यमान हैं। पौलुस इसी बात को रोमियों 8:6, 13 में व्यक्त करता है - रोम के मसीही विश्वासियों को संबोधित करते हुए कहता है कि यदि वे शरीर के अनुसार जीएंगे, तो मृत्यु को भी सहना पड़ेगा। प्रेरितों 5:1-11 में हनन्याह और सफीरा का उदाहरण है - उन्हें परमेश्वर से झूठ बोलने और अवसर दिए जाने पर पश्चाताप न करने के लिए मृत्यु को झेलना पड़ा। पौलुस, 1 कुरिन्थियों 5:1-5 में घोर व्यभिचार को सहन करने के लिए कलीसिया को डाँटता है और उस पाप में पड़े हुए कलीसिया के सदस्य के लिए कहता है, “शरीर के विनाश के लिये शैतान को सौंपा जाए, ताकि उस की आत्मा प्रभु यीशु के दिन में उद्धार पाए” - अर्थात शैतान के हाथों शरीर को दुख उठाने दो जिससे आत्मा अनन्त काल के लिए उद्धार पाए।
इसी प्रकार से हम पुराने नियम में भी देखते हैं कि व्यवस्थाविवरण अध्याय 28-30 में मूसा इस्राएलियों के सामने परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता के लिए आशीषों और अनाज्ञाकारिता के लिए श्रापों को बताता है। परमेश्वर के लोगों इस्राएल की अनाज्ञाकारिता में बने रहने के कारण उनपर आने वाले श्राप 28:15-68 में दिए गए हैं, और अध्याय के अंत तक तीव्रता में बढ़ते ही जाते हैं। परमेश्वर मूसा के द्वारा 29:18-28 में कहता है कि न केवल लोग, वरन उनका देश भी श्रापित और उजाड़ हो जाएगा (29:23)। जब मूसा यह बात इस्राएलियों से कह रहा था, वे दूध और मधु की बहती धाराओं वाले देश में (गिनती 13:27) प्रवेश करने के लिए तैयार हो रहे थे; परन्तु परमेश्वर उन्हें चेतावनी देता है कि यदि वे उसे हल्के में लेंगे, उसकी अनाज्ञाकारिता करेंगे, और चिताए जाने पर भी पश्चाताप नहीं करेंगे, तो फिर उन्हें तथा उनके देश दोनों को ही परिणाम भुगतने पड़ेंगे, और उनकी आशीषें दुख और उजाड़ होने में बदल जाएंगी। हमें इसी बात को हाग्गै की पुस्तक में, हाग्गै 1:5-11; 2:15-17 में दिखाया गया है, क्योंकि इस्राएलियों ने परमेश्वर के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी को हलके में लिया और उसे एक-किनारे कर दिया था। न्यायियों की पुस्तक, शिमशोन का उदाहरण, इस्राएल का 70 वर्ष के लिए राजा नबूकदनेस्सर तथा कसदियों के हाथों बंधुवाई में जाना (2 इतिहास 36:14-21), आदि, सभी इस बात के उदाहरण हैं कि परमेश्वर अपने लोगों पर भी बहुत कठोर दण्ड लाता है, यदि वे अपनी ढिठाई में बने रहें और परमेश्वर को हलके में लेते रहें, उसकी अनाज्ञाकारिता में बने रहने, और यह मानकर चलते रहें कि परमेश्वर तो दयालु, अनुग्रहकारी, विलंब से कोप करने वाला है, इसलिए वे किसी हानि में पड़ने से बचे रहेंगे। वे लोग यह भूल जाते हैं कि परमेश्वर विलंब से कोप करने वाला तो है, किन्तु कभी कोप नहीं करने वाला नहीं है; परमेश्वर भस्म करने वाली आग भी है (व्यवस्थाविवरण 4:24; इब्रानियों 12:29)। यह बहुत आवश्यक है कि सदा ही परमेश्वर के बारे में एक संतुलित दृष्टिकोण रखा जाए, उसके वचन में दिए गए उसके गुणों, निर्देशों, और उसे गंभीरता से ना लेने वालों के लिए उसके द्वारा दी गई चेतावनियों के आधार पर।
परमेश्वर ने नूह के दिनों में, मनुष्य की दुष्टता को देखते हुए कहा था, “मेरा आत्मा मनुष्य से सदा लों विवाद करता न रहेगा” (उत्पत्ति 6:3)। पौलुस ने रोम के मसीही विश्वासियों को अविश्वासी इस्राएलियों के परिणाम, तथा विश्वास करने वाले अन्य-जातियों की आशीष को उन्हें याद दिलाते हुए कहा, “इसलिये परमेश्वर की कृपा और कड़ाई को देख! जो गिर गए, उन पर कड़ाई, परन्तु तुझ पर कृपा, यदि तू उस में बना रहे, नहीं तो, तू भी काट डाला जाएगा” (रोमियों 11:22)। प्रभु की मेज़ केवल प्रभु यीशु को, उसके पापी मनुष्यों के प्रति प्रेम और उसके बलिदान के द्वारा मनुष्यों के पापों की क्षमा और उद्धार के उपलब्ध किए जाने को याद करने ही के लिए नहीं है। यह उनके लिए, जो प्रभु यीशु मसीह के अनुयायी होने का दावा करते हैं, स्वयं को प्रभु के लोग और परमेश्वर की संतान कहते हैं, और इसलिए अपने आप को प्रभु की मेज़ में भाग लेने के हकदार समझते हैं, उनके लिए मेज़ में भाग लेने से पहले अपने आप को सही प्रकार से जाँच लेने और अपने आप को ठीक कर लेने के लिए आह्वान भी है, कहीं ऐसा न हो कि परमेश्वर को उन्हें जाँचना और उनके साथ व्यवहार करना पड़ जाए। कभी भी किसी को भी, विशेषकर नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को, इस पूर्व-धारणा के साथ नहीं रहना चाहिए कि परमेश्वर उनके अनुचित और पथभ्रष्ट व्यवहार के साथ निभाने के लिए अपने स्तर और मानकों में फेर-बदल करेगा। बल्कि, परमेश्वर के मानकों और निर्देशों के अनुसार, जो उसके वचन में दिए गए हैं, उन्हें अपने आप को ठीक करना है, नहीं तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 43-45
मत्ती 12:24-50
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The Lord’s Table - Judgment for Unworthy Participation (2)
In the previous article regarding God’s judgment for unworthily participating in the Holy Communion we had seen that if the participant takes God’s instructions lightly, fails to properly examine himself, to confess his sins, to seek God’s forgiveness for them, and only then partake worthily; if the participant does it perfunctorily as a ritual, and fails to correct himself, then eventually, God has to intervene, judge him and chasten him for his recalcitrance. In 1 Corinthians 11:27 we had seen the gradation of God’s chastening - starts with weakness, worsens to sickness, and ultimately can even result in death of the stubbornly errant child of God. But God desires that first, the children of God should judge themselves, be honest about their sins, errors, and short-comings, instead of Him having to intervene and chasten them.
Then, in verse 32, is given to us the reason God judges and chastens His children - “that we may not be condemned with the world.” Take note, this verse is not saying “that we may not perish with the world.” Rather, what it implies is that the stubbornly resistant children of God, who persist in their disobedience and unworthily participating in the Lord’s Table, will be judged and punished just as harshly, or with the same severity as the people of world will be for their unbelief. Again, while this may seem to be an unlikely thing to come from God for His children, His people, but as we have seen for Hebrews 12:8 i.e., for chastening, this expression of the severity of God’s judgment too has ample and enough Biblical support. There are very clear unambiguous warnings and examples of varying degrees of severity of punishment given by God to His people for their persistence in sins. Paul echoes the same thought in Romans 8:6, 13 - addressing the Roman Believers, he tells them that if they live in the flesh, live with a carnal mind, then they will suffer death. In Acts 5:1-11, we have the example of Ananias and Sapphira - they suffered death for lying to God and not repenting when the opportunity was given to them. In 1 Corinthians 5:1-5, Paul admonishing the Church for tolerating gross sexual immorality, says for that errant Church member “deliver such a one to Satan for the destruction of the flesh, that his spirit may be saved in the day of the Lord Jesus” - let the body suffer at the hands of Satan so that the spirit is saved for eternity.
Similarly, in the Old Testament we see in Deuteronomy chapters 28-30, that Moses recounts to Israel the blessings and curses for their obedience and disobedience to God. The curses upon God’s people Israel for their persistent disobedience to God are given in 28:15-68, and continually increase in severity till the end. In 29:18-28 God says through Moses that not only the people, but even their land will be cursed and become waste (29:23). When Moses is speaking this to the Israelites, they were getting ready to enter a land flowing with milk and honey (Numbers 13:27), but God warns them that if they treat Him lightly, disobey Him and refuse to repent when admonished for their disobedience, then they as well as their land will suffer the consequences, their blessings will be replaced with wasting and suffering. We see the same thing stated in Haggai 1:5-11; 2:15-17 for Israel’s taking their responsibility towards God lightly and side-tracking it. The book of Judges, the example of Samson, Israel’s 70-year captivity and dispersion at the hands of Nebuchadnezzar and the Chaldeans (2 Chronicles 36:14-21), are all examples of God inflicting severe chastisement upon His people for their taking God lightly, persistently disobeying Him, while thinking they can get away with it since God is merciful, gracious, longsuffering God. They forgot that though He is longsuffering, but He is not ‘forever-suffering’ God; He is also a consuming fire (Deuteronomy 4:24; Hebrews 12:29). It is imperative to always maintain a balanced view of God, His characteristics, His instructions, and the warnings He has given for those who do not take Him and His Word seriously.
God, seeing the wickedness of mankind, had said in the days of Noah “My Spirit shall not strive with man forever” (Genesis 6:3). Paul reminds the Roman Believers about the fate of the unbelieving Israelites, and about the grace they who had believed have experienced, “Therefore consider the goodness and severity of God: on those who fell, severity; but toward you, goodness, if you continue in His goodness. Otherwise, you also will be cut off” (Romans 11:22). The Lord’s Table is not only a call for remembering the Lord Jesus, His love for sinful man, and the forgiveness of sins for the salvation of mankind made available through His sacrifice because of that love. It is also a call for all who claim to be followers of the Lord Jesus, those who call themselves the people and children of God and therefore feel entitled to participate in His Communion, to learn to properly examine and correct themselves before participating in the Lord’s Table, lest God has to judge and deal with them. No one, least of all the Born-Again children of God should presume that God will alter His standards to accommodate their wayward behavior. Instead, they have to set themselves right according to God’s standards and instructions, given in His Word, else suffer the consequences.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 43-45
Matthew 12:24-50
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