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बपतिस्मा समझना - (8) – पवित्र आत्मा का बपतिस्मा के निहितार्थ
परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय फैलाई जा रही गलत शिक्षाओं के मसीही विश्वासी के जीवन और उसकी सेवकाई पर आने वाले दुष्प्रभावों को हमने पिछले लेखों में अध्ययन किया है। इस शृंखला के निष्कर्ष पर पहुँचने पर आज और कल हम इन गलत शिक्षाओं में शैतान द्वारा “सामर्थी धार्मिकता और सेवकाई” के भेस में छिपाए गए घातक और अति हानिकारक निहितार्थों को देखेंगे, जिनके द्वारा वह प्रभु यीशु मसीह का अनुसरण करने की इच्छा रखने वाले लोगों को बहका कर गलत विनाशकारी मार्गों में डाल देता है।
जैसे हम पहले भी देख चुके हैं, पवित्र आत्मा कोई वस्तु नहीं है जिसे विभाजित करके टुकड़ों में या अंश-अंश करके दिया जा सके। वह ईश्वरीय व्यक्तित्व है, और जब भी, जिसे भी दिया जाता है, उसमें वह अपनी संपूर्णता में ही वास करता है, टुकड़ों में नहीं। इसलिए जब मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा एक बार मिल जाता है, तो उसे पवित्र आत्मा उसकी सम्पूर्णता और में, संपूर्ण सामर्थ्य के साथ मिल जाता है। यदि पवित्र आत्मा का बपतिस्मा यदि कोई अलग अनुभव है, तो फिर उस संपूर्णता में मिले हुए परमेश्वर पवित्र आत्मा के विश्वासी में विद्यमान होने के बाद, उसके उद्धार के लिए अपने पुत्र को बलिदान कर देने के बाद, उद्धार पाने पर उसे अपनी संतान बनाकर स्वर्ग का वारिस और मसीह का संगी-वारिस (रोमियों 8:17) बना लेने के बाद, उसे अब परमेश्वर की ओर से और कौन सी स्वर्गीय आशीषों का दिया जाना शेष रह गया है?
यदि पवित्र आत्मा को मनुष्यों द्वारा बनाई गई कुछ विधियों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है तथा उसे कुछ लोगों को उसकी और भी अधिक सामर्थ्य प्रदान करवाई जा सकती है, तब तो फिर इन गलत शिक्षाओं के अनुसार पवित्र आत्मा तो फिर परमेश्वर नहीं रहा वरन मनुष्य के हाथों की कठपुतली हो गया। इस बात का और गहरा तथा खतरनाक अभिप्राय यह है कि क्योंकि त्रिएक परमेश्वर के तीनों स्वरूप – परमेश्वर पिता, परमेश्वर पुत्र और परमेश्वर पवित्र आत्मा हर एक बात में समान और एक ही मनसा के हैं, इसलिए फिर शेष दोनों स्वरूप भी मनुष्य के हाथों में उस कठपुतली के समान हो गए। यदि प्रभु यीशु की कही बात और दी गई शिक्षा के विरुद्ध, पवित्र आत्मा अलग से अपना एक पृथक बप्तिस्मा प्रदान करता है, तो फिर वह शेष दोनों ईश्वरीय व्यक्तित्वों से भिन्न है, पवित्र त्रिएक परमेश्वर में विभाजन है, तीनों समान, पूर्णतः सहमत, और एक नहीं हैं।
पवित्र आत्मा से संबंधित ‘पवित्र आत्मा का बपतिस्मा’ की इस गलत शिक्षा को स्वीकार करने का अर्थ है, मसीह की देह, उसकी कलीसिया को दो भागों में विभाजित करना – वे जिन के पास यह पवित्र आत्मा की भरपूरी या परिपूर्णता ‘है’, और वे जिन के पास यह ‘नहीं है।’ और फिर इस से, जिनके पास ‘है’ उन में ‘उच्च श्रेणी का होने,’ ‘बेहतर क्षमता और कार्य-कुशलता वाले होने,’ और ‘परमेश्वर से आशीष और प्रतिफल पाने पर अधिक दावा रखने’ की भावनाओं के द्वारा उनमें उनकी आत्मिकता के बारे में, उनके औरों से अधिक श्रेष्ठ और परमेश्वर के लिए उपयोगी होने के बारे में घमंड उत्पन्न करना। तथा जिनके पास ‘नहीं है’ उन्हें इस ‘विशिष्ट विश्वासियों’ के समूह में सम्मिलित होने और उस समूह के लाभ अर्जित कर पाने के निष्फल व्यर्थ प्रयासों को करते रहने के चक्करों में फंसा देना। दोनों ही स्थितियों में, अंततः परिणाम एक ही है – वास्तविक मसीही परिपक्वता और प्रभु के लिए प्रभावी होने में गिरावट आना, परस्पर ऊँच-नीच, अनबन, और कलह की स्थिति उत्पन्न होना (1 कुरिन्थियों 1:10-13; 3:1-3)। जिनके पास ‘है’ उन में इस के कारण उठने वाले घमंड, वर्चस्व, तथा औरों पर अधिकार रखने की भावनाओं तथा घमंड के कारण; और जिनके पास ‘नहीं है’ उन्हें एक पूर्णतः अनावश्यक और अनुचित कार्य में समय गंवाने और व्यर्थ प्रयास करने में लगा देने के द्वारा, मसीही विश्वास, परमेश्वर के वचन, और प्रभु के लिए प्रभावी होने में बढ़ने से बाधित कर देना। इस सारे व्यर्थ के प्रयास में हानि सुसमाचार प्रचार तथा प्रसार ही कि होगी; परस्पर मन-मुटाव, विरोध, ऊंच-नीच, और कलह में पड़े ऐसे “विश्वासियों” के जीवनों को देखकर लोग उद्धार के सुसमाचार को सुनने और मानने से संकोच करेंगे; और पवित्र आत्मा के प्रचार के द्वारा शैतान मसीह यीशु में पापों की क्षमा और उद्धार के प्रचार को दुर्बल और अप्रभावी करता रहेगा।
इस के अतिरिक्त, इस एक छोटी सी और अ-हानिकारक प्रतीत होने वाली बात से संबंधित गलत शिक्षा में शैतान ने एक बार फिर से परमेश्वर के विरुद्ध बहुत बड़ा षड्यंत्र लपेट कर ‘भक्ति की आदरणीय बात’ के रूप छिपा कर हम में घुसा दिया है। और हमारा इसलिए इस बात के प्रति सचेत होना, उस की सही समझ रखना, इस गलत शिक्षा से निकलना, और बच के रहना अनिवार्य है (2 कुरिन्थियों 2:11)। पवित्र आत्मा प्राप्त कर लेने के पश्चात, उस की प्रभावी उपस्थिति एवं सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए बाद में किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा पवित्र आत्मा से भर जाने अथवा ‘परिपूर्ण’ होने के एक भिन्न अनुभव का संभव होने की बात कहने से तो यही अर्थ निकलता है कि पवित्र आत्मा को बांटा जा सकता है, उसे घटाया या बढ़ाया जा सकता है, उसे किस्तों या टुकड़ों में लिया या दिया जा सकता है, मनुष्य पवित्र आत्मा की उपलब्ध ‘मात्रा’ और गुणवत्ता’ को प्रभावित तथा नियंत्रित कर सकता है; इत्यादि।
ये सभी बातें न केवल वचन के विरुद्ध हैं, वरन पवित्र आत्मा के त्रिएक परमेश्वर का स्वरूप होने का इनकार करने का प्रयास करती हैं, जिसका अर्थ हो जाता है कि पवित्र त्रिएक परमेश्वर का सिद्धांत झूठा है, और फिर इसलिए परमेश्वर का वचन जो कि यह सिद्धांत सिखाता है, वह भी झूठा ठहरा। यह गलत शिक्षा पवित्र आत्मा को पवित्र त्रिएक परमेश्वर के एक व्यक्ति के स्थान पर, एक वस्तु बना देती है जिसे काटा, छांटा, और बांटा जा सकता है और फिर मनुष्यों के प्रयासों द्वारा दिया या लिया जा सकता है। और सब से अनुचित यह कि यह शिक्षा, परमेश्वर पवित्र आत्मा को मनुष्य के हाथों का खिलौना बना देती हैं, जिसे मनुष्य अपने व्यवहार और आचरण, अर्थात अपने कर्मों के द्वारा निर्धारित और नियंत्रित कर सकता है कि पवित्र आत्मा कब, किसे, कैसे, और कितना दिया जाएगा, और फिर वह उस मनुष्य में क्या और कैसे कार्य करेगा!
निष्कर्ष यह कि इस गलत शिक्षा को स्वीकार करने का अर्थ है कि परमेश्वर का वचन संपूर्ण एवं पूर्णतः सत्य नहीं है - उसमें मनुष्यों द्वारा जोड़ा या घटाया जा सकता है, उसमें फेर-बदल की जा सकती है; तथा यह भी कि परमेश्वर मनुष्य की मुठ्ठी में किया जा सकता है; और मनुष्य उसे अपनी इच्छानुसार नियंत्रित और उपयोग कर सकता है! परमेश्वर इस घोर विधर्म के विचार से भी हमारी रक्षा करे, हमें इस के घातक फरेब में कभी भी न पड़ने दे। ये सभी गलत शिक्षाएं परमेश्वर और उसके पवित्र वचन को झुठलाने और उसे हमारे जीवनों में अप्रभावी करने के लिए बड़ी चतुराई तथा परोक्ष रीति से किए गए शैतान के हमले हैं; हमारे लिए इन शैतानी षड्यंत्रों को ध्यान दे कर समझना और उन से दूर रहना, और शैतान के इन छलावों में फँसने से बच कर रहना बहुत अनिवार्य है।
परमेश्वर ने हम मसीही विश्वासियों को अपनी पवित्र आत्मा के द्वारा, हमारे उद्धार पाने के साथ ही मसीही जीवन एवं सेवकाई के लिए आवश्यक सामर्थ्य तथा अपने वचन के द्वारा उपयुक्त मार्गदर्शन दे रखा है; अब यह हम पर है कि हम उसका सदुपयोग करें और प्रभु के योग्य गवाह बनें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 103-104
1 कुरिन्थियों 2
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Understanding Baptism - (8) – Implications of Baptism OF the Holy Spirit
We have been studying the wrong teachings, preaching, and doctrines related to the Holy Spirit, and their effects in the life and ministry of Christian Believers in the past articles. As we conclude this series, in this and the next article, we will look into the disastrous and extremely harmful implications, of these wrong teachings and doctrines, subtly placed by Satan in the garb of “empowered religiosity and ministry” to beguile and lead astray into destruction people desirous of following the Lord Jesus Christ.
As we have seen before, the Holy Spirit is not an object that can be divided or broken up, and then given out in bits and pieces. He is a divine personality, and whenever, to whomever He is given, He is given in His entirety; and wherever He resides, He resides as a whole person in His completeness, never in parts. Therefore, whenever a Christian Believer receives the Holy Spirit, he receives Him in His fullness and in all His power. If the so-called baptism of the Holy Spirit is a different or second experience, then what extra will, or can, the Believer get, having already once received the Holy Spirit in His fullness and complete power? If God has already given His only begotten Son for the salvation of person; has given him His Holy Spirit at the moment of his salvation; has declared him to be His child and a co-heir of the Lord Jesus Christ (Romans 8:17), then what else is left of the heavenly glories to be given to him as another and different experience by God?
If the Holy Spirit can be received and then made to give some extra power to a person through humanly devised methods, then according to these wrong teachings, the Holy Spirit is no longer God, but a puppet in the hands of man. The deeper and far more dangerous implication of this is that since all the three divine personalities in the Holy Triune God - God the Father, God the Son, God the Holy Spirit are in full agreement and equal in all aspects about everything, therefore, the other two divine personalities are also like puppets in the hands of man. If contrary to what the Lord Jesus has said and taught, the Holy Spirit gives a separate and different baptism, then the Holy Spirit is a different personality than the other two; and the three divine personalities of Triune God, the Holy Trinity is neither united, nor equal and nor in full agreement with each other about all things.
Accepting this wrong teaching about the baptism of the Holy Spirit also means to divide the Church, the Body of Christ into two parts - those who have the Holy Spirit in His fullness and power - the ‘haves’, and those who do not have - the ‘have nots’. This then naturally leads to the tendency that the ‘haves’ will think of themselves of being superior or of a better category, being people with better ability and effectivity in ministry, and therefore having a claim to better rewards and blessings from God than the ‘have nots’; knowingly or unknowingly these ‘haves’ will develop a spiritual pride about themselves, about their ministry, and about their being useful for the Lord; and the Lord God can neither accept, nor tolerate, nor work with any pride. This will effectively reduce them to being nothing more that puppets in the hands of Satan, people working in the name of the Lord but not accomplishing anything for the Lord God. This division will also drive the ‘have nots’ into making vain efforts to join these ‘elite Believers’, the ‘haves’, so that they too can receive similar blessings and rewards. The ‘haves’ will live with a sense of spiritual superiority and pride, and will try to dominate the ‘have nots’; while the ‘have nots’ instead of growing in the Lord will be spending their time and efforts to catch up with the ‘haves.’ The net result will be the same for both - the Christian Believer will fall in his spiritual maturity and effectiveness for the Lord, there will be disagreements, feelings of superiority-inferiority, quarrels, and the Church breaking up (1 Corinthians 1:10-13; 3:1-3). The looser in this game of vanity will be the preaching and propagation of the Gospel; the lives and activities of these “Believers” will only serve to discourage people from listening to and accepting the Gospel of salvation; and Satan, through the preaching of the Holy Spirit will keep undermining and nullifying the preaching of salvation through the Lord Jesus.
Through this seemingly innocuous and harmless but wrong teaching, Satan has subtly brought in a serious conspiracy against God, in the garb of an attractive religious teaching. It is very important for us to be aware of this (2 Corinthians 2:11), to understand this wrong teaching, to realize its harmful effects, to come out of it and to bring others out as well. To accept and believe that the receiving of the Holy Spirit, and to accept the teaching that the power and efficacy of the working of the Holy Spirit can be manipulated by man through some man-made methods, only implies that the quantity and quality of the Holy Spirit can be made subject to man. Which means that either the Holy Spirit is not God; or God can be made a puppet in the hands of man.
Not only are all these teachings contrary to the Word of God, but they also cast a doubt upon the Holy Spirit being a divine personality, and therefore upon the doctrine of the Triune God, the Holy Trinity. Which means, that the Word of God is erroneous, its major and basic doctrines are unreliable and false. This wrong teaching renders the Holy Spirit into an object which can be cut, broken trimmed, distributed in parts by men. It all ends up implying that man can direct what the Holy Spirit will do – when, where, and how; instead of the Holy Spirit guiding and directing the lives of men.
The conclusion is that accepting this wrong doctrine is accepting that the Word of God is neither complete, nor fully reliable - people can add to it, take away from it, misinterpret and misuse it as per their own understanding and convenience; and that God can be made a puppet in the hands of man. May the Lord our God keep us away from even the thought of such blasphemy, and safe from the disastrous results of such teachings. All these wrong teachings are ways and methods of getting us to subtly and indirectly deny the truth and facts of God and His Word and fall away from them into seemingly religious but vain and unBiblical things. It is very important for us to understand and stay away from this satanic conspiracy.
If you are a Christian Believer, then it is mandatory for you to learn the teachings related to the Holy Spirit from the Word of God, seriously ponder over them, understand them, and obey them. You should learn the truth and accordingly live and behave appropriately and worthily, and should teach only the truth from the Bible. You will have to give an account of everything you say to the Lord Jesus (Matthew 12:36-37). When you have God’s Word in your hand, and the Holy Spirit is there with you to teach you, then how will you be able to answer for yourself for getting deceived by wrong doctrines and false preaching and teachings? How will you justify your giving credibility to the persons, sects, and denominations teaching and preaching wrong things in the name of the Holy Spirit, and being part of their false teachings?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 103-104
1 Corinthians 2