आज से हम एक नई शृंखला का आरंभ कर रहे हैं। परमेश्वर के अनुग्रह और मार्गदर्शन में, हम उसके अटल, अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में स्थापित, कभी न बदलने वाले वचन में से एक और ऐसे विषय पर विचार करेंगे, जिसका प्रयोग तो बहुत किया जाता है, किन्तु समझा बहुत कम जाता है। साथ ही, जिसके विषय बहुत सी गलत धारणाएं और शिक्षाएं भी ईसाई या मसीही समाज में पाई जाते हैं। और ये गलत शिक्षाएं परमेश्वर के वचन की अनुचित, तथा पदों या वाक्यांशों को उनके संदर्भ से बाहर लेकर व्याख्या करने के द्वारा बनाई और फैलाई होती हैं। साथ ही व्यावहारिक जीवन में, मसीही समाज में पाई जाने वाली अन्य गलत शिक्षाओं के समान ही, इस विषय से संबंधित गलत शिक्षाओं के साथ भी यही गलत व्यवहार जुड़ा हुआ है। लोग परमेश्वर के वचन और उसकी शिक्षाओं को समझने और मानने की बजाए, अपने डिनॉमिनेशन या समुदाय द्वारा प्रचार की जा रही और सिखाई जा रही बातों का पालन करने पर अधिक विश्वास रखते हैं। क्योंकि वे अपने डिनॉमिनेशन या समुदाय के धर्म-अधिकारियों और अगुवों को नाराज़ नहीं करना चाहते हैं; चाहे परमेश्वर अप्रसन्न हो जाए; मनुष्यों को अप्रसन्न नहीं होना चाहिए!
आज से हम “बपतिस्मे” के बारे में वचन से सीखना आरंभ करेंगे। बपतिस्मे से संबंधित वचन में दी गई बातों को देखते, और समझते समय ध्यान दीजिएगा कि वचन में कहीं भी शिशुओं और बच्चों के बपतिस्मे का कोई उल्लेख या उदाहरण नहीं है। और बपतिस्मे से संबंधित बातें भी यह प्रकट कर देती हैं कि शिशुओं या बच्चों का बपतिस्मा न तो वचन के आधार पर है, और न ही उन्हें वचन में लिखे हुए के समान बपतिस्मा दिया जाना संभव है।
बपतिस्मा शब्द का अर्थ और उसकी समझ
बपतिस्मा शब्द, नए नियम लिखे जाने की मूल भाषा, यूनानी भाषा के शब्द “बैप्टिज़ो/Baptizo” से आया है। मूल यूनानी भाषा में इस शब्द का अर्थ होता है “किसी तरल पदार्थ के अन्दर कर देना या डुबो देना, या जिस वस्तु से बपतिस्मा दिया जा रहा है उस से पूर्णतः अंदर-बाहर से भिगो देना”। इस शब्द का प्रयोग किसी तरल पदार्थ में से कुछ निकालने या उस पदार्थ को ही निकालने के लिए किया जाता है; जैसे यदि हम आज अपनी भाषा के संदर्भ में से कहें, तो कुएं में से बाल्टी भरकर पानी निकालने के लिए कहा जाएगा “बाल्टी को कुएं में बैपटिज़ो करके भर लो”। मरकुस 7:4 में स्नान और धोना-माँजना भी बैप्टिज़ो/baptizo और बैप्टिज़मोस/baptismos शब्दों का अनुवाद है।
नए नियम की पुस्तकों में इसी, पानी में डुबो कर ही, डुबकी का बपतिस्मा देने के अभिप्राय से ही, विश्वासियों के लिए पानी में बपतिस्मा देने या लेने की बात का प्रयोग हुआ है। यद्यपि बाइबल में कहीं पर भी यूनानी भाषा के शब्द बपतिस्मे के लिए “डुबो देना” या “डुबकी देना” अनुवाद नहीं किया गया है, किन्तु जहाँ भी बपतिस्मा देने का उल्लेख आया है, साथ ही संकेत पानी में डुबकी देने का भी आया है। कहीं पर भी पानी के छिड़कने, या बच्चों के सिर अथवा माथे पर पानी से कोई चिह्न बनाने का, और उसे “बपतिस्मा देना” कह कर शिशुओं या बच्चों को बपतिस्मा देने का कोई उल्लेख नहीं है। साथ ही एक और बहुत महत्वपूर्ण बात है कि बाइबल में बपतिस्मा हमेशा ही वयस्कों को दिया गया है, वह भी केवल उनके स्वेच्छा से उसे लेने के लिए स्वतः ही आगे आने पर। यह एक स्वाभाविक और सामान्य ज्ञान की बात है कि शिशुओं और बच्चों को पानी में डुबकी देकर बपतिस्मा नहीं दिया जा सकता है। इसलिए जैसा शब्द baptizo के प्रयोग से प्रकट है, बपतिस्मा कभी भी शिशुओं और बच्चों का नहीं, हमेशा वयस्कों का ही हुआ है।
इस संदर्भ में बाइबल के कुछ पद देखिए:
मत्ती 3:6 “और अपने अपने पापों को मानकर यरदन नदी में उस से बपतिस्मा लिया।” - लोगों ने स्वयं आकर यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले से यरदन नदी में बपतिस्मा लिया।
मत्ती 3:16 “और यीशु बपतिस्मा ले कर तुरन्त पानी में से ऊपर आया, और देखो, उसके लिये आकाश खुल गया; और उसने परमेश्वर के आत्मा को कबूतर के समान उतरते और अपने ऊपर आते देखा।”; मरकुस 1:10 “और जब वह पानी से निकलकर ऊपर आया, तो तुरन्त उसने आकाश को खुलते और आत्मा को कबूतर के समान अपने ऊपर उतरते देखा।” - प्रभु यीशु पानी में से निकलकर ऊपर आया।
यूहन्ना 3:23 “और यूहन्ना भी शालेम् के निकट ऐनोन में बपतिस्मा देता था। क्योंकि वहां बहुत जल था और लोग आकर बपतिस्मा लेते थे।” - यूहन्ना बहुत जल के स्थान पर बपतिस्मा देता था। (पानी के छिड़काव करने मात्र के लिए उसे बहुत जल के स्थान की आवश्यकता क्यों होती?)
प्रेरितों 8:36-39 “36 मार्ग में चलते चलते वे किसी जल की जगह पहुंचे, तब खोजे ने कहा, देख यहां जल है, अब मुझे बपतिस्मा लेने में क्या रोक है। 37 फिलिप्पुस ने कहा, यदि तू सारे मन से विश्वास करता है तो हो सकता है: उसने उत्तर दिया मैं विश्वास करता हूं कि यीशु मसीह परमेश्वर का पुत्र है। 38 तब उसने रथ खड़ा करने की आज्ञा दी, और फिलिप्पुस और खोजा दोनों जल में उतर पड़े, और उसने उसे बपतिस्मा दिया। 39 जब वे जल में से निकलकर ऊपर आए, तो प्रभु का आत्मा फिलिप्पुस को उठा ले गया, सो खोजे ने उसे फिर न देखा, और वह आनन्द करता हुआ अपने मार्ग चला गया।” - खोजे ने जल का स्थान देखा और बपतिस्मा लेने की इच्छा व्यक्त की (पद 36), छिड़काव के लायक पीने का पानी तो उसके पास भी होगा, किन्तु डुबकी दिए जाने के योग्य नहीं। पद 38 - खोजा और फिलिप्पुस जल में उतर पड़े; पद 39, वे जल में से निकलकर ऊपर आए। यदि बपतिस्मा जल के छिड़काव से होता, तो उन्हें पाने में उतारने और पानी से बाहर आने की क्या आवश्यकता थी?
सभी स्थानों पर अभिप्राय पानी में जाने और पानी में से बाहर आने, तथा अधिक जल के स्थान जैसे कि नदी या किसी जलाशय या तालाब के प्रयोग करने का है। घर में रखे हुए पानी के द्वारा, या किसी कुएं से पानी लेकर, या छोटे नाले आदि से जल लेकर छिड़क देने के द्वारा बपतिस्मा देने का कोई उल्लेख नहीं है। अर्थात बपतिस्मा, जैसा कि उस शब्द का अर्थ है, डुबो कर, यानि डुबकी का ही दिया जाता था।
यदि आप मसीही हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः आपका न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा, क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए आपके लिए मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बनना अनिवार्य है, नहीं तो अनन्त जीवन में अनंतकाल की हानि उठानी पड़ेगी। अपने जीवन में गंभीरता से झांक कर देख लें, और जिन भी बातों को सही करना है, उन्हें अभी समय और अवसर रहते हुए सही कर लें; कहीं कल या “बाद में” पर टाल देने से बहुत विलंब और हानि न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
1 शमूएल 1-3
लूका 8:26-56
From today we are starting a new series. With God's grace and guidance, we will consider another subject that is much used but little understood, from His eternally established in heaven, unalterable Word. There are many misconceptions and erroneous teachings found in Christian society about this topic. And these erroneous teachings are caused by misinterpretation of God's Word and because of taking words or phrases from God’s Word out of their context. As is commonly seen with other erroneous teachings found in Christian society, the same incorrect attitude is also seen for the doctrinal teachings and practical application of this topic too. Rather than understand and obey God's Word and its teachings, people have more trust in following what is being preached and taught in their denominations or sects. They don't want to offend the religious leaders and important people of their sects and denominations or community leaders; even if God is displeased; but men should not be displeased!
Starting today, we will begin to learn from the Scriptures about "Baptism." When looking at and understanding what the Scriptures say about baptism, please take note that there is neither mention nor example of practicing baptism of infants and children anywhere in the Scriptures. And a consideration of things related to baptism in the Scriptures also reveal that the practice of baptism of infants or children is neither possible by adhering to God’s Word, nor has it ever been done.
Meaning of the word, and understanding “Baptism”
The word for baptism in Greek, the original language of the writings of the New Testament, is “baptizo”; and it means "to be immersed in a liquid, or to be completely soaked from inside and outside with the liquid one is being immersed into". This word is used to convey ‘to dip into a liquid’; e.g., if we say in the context of our language today, for drawing water from a well by filling a bucket, it will be said "Baptizo the bucket into the well". The words ‘wash’ and ‘washing’ in Mark 7:4 is also a translation of the words baptizo and baptismos.
In the books of the New Testament, the same word is used for Christians to be baptized or receive water baptism in the sense of their being immersed. Although nowhere in the Bible is the Greek word for baptism translated "to dip into" or "to immerse", but wherever it is used to refer to baptism, it is with the meaning of immersion in water. Nowhere is there any mention of baptizing infants or children by sprinkling water, or making a mark on children's heads or foreheads, with a finger dipped in water, and calling it "baptism." Also, another very important point is that baptism in the Bible has always been given to adults, that too only when they voluntarily asked for it, came forward to receive it. It is common sense that infants and toddlers cannot naturally be baptized by immersion in water. So as indicated by the use of the word baptizo, baptism has never been of infants and children, but always of adults.
We will see some Bible verses in this context:
Matthew 3:6 - “and were baptized by him in the Jordan, confessing their sins” The people themselves came and were baptized in the Jordan River by John the Baptist.
Matthew 3:16 “When He had been baptized, Jesus came up immediately from the water; and behold, the heavens were opened to Him, and He saw the Spirit of God descending like a dove and alighting upon Him”; Mark 1:10 “And immediately, coming up from the water, He saw the heavens parting and the Spirit descending upon Him like a dove” - The Lord Jesus came up out of the water, after His baptism.
John 3:23 “Now John also was baptizing in Aenon near Salim, because there was much water there. And they came and were baptized” - John used to baptize in a place of much water. (Why would he need a lot of water if baptism was just by sprinkling the water?)
Acts 8:36-39 “36 Now as they went down the road, they came to some water. And the eunuch said, "See, here is water. What hinders me from being baptized?" 37 Then Philip said, "If you believe with all your heart, you may." And he answered and said, "I believe that Jesus Christ is the Son of God." 38 So he commanded the chariot to stand still. And both Philip and the eunuch went down into the water, and he baptized him. 39 Now when they came up out of the water, the Spirit of the Lord caught Philip away, so that the eunuch saw him no more; and he went on his way rejoicing.” - The eunuch saw a location with plenty of water and expressed his desire to be baptized (verse 36), he would have been carrying enough drinking water to sprinkle, but not enough to be immersed into. Verse 38 - The eunuch and Philip went into the water; Verse 39, He came up out of the water. Why would they need to go into the water, and come up out of it, if baptism was by merely sprinkling of water?
At all places the implication is to go into and come out of water, or, to use a place of much water such as a river, or a reservoir, or pond. There is no mention of baptizing by using the water kept in the house, or by taking water from a well, or by sprinkling water from a small stream. That is, baptism, as that word implies, was given by immersion.
If you are a Christian, it is essential for you to follow the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, you will not be judged by any man, on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which are not only vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But everyone will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for you to be pleasing to God, instead of striving to please men; else you will have to suffer the loss of eternal life and eternity. Take a serious account of your life, and whatever things you need to rectify, do it right now, while you have the time and opportunity; procrastinating and postponing it for tomorrow or "later" may be very harmful.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely submit yourself to Him - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and sincerely, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and my redemption from sins. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
1 Samuel 1-3
Luke 8:26-56