परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 8
परमेश्वर के वचन का भण्डारी होने की अपनी ज़िम्मेदारी के निर्वाह में उस से चूक करवाने के लिए शैतान ने मसीही विश्वासियों के विरुद्ध जो युक्तियाँ बनाई हैं, हमने उन में से तीन पिछले लेख में देखी थीं। ये थीं: पहली, लोगों को इस लालच में डालकर बहकाना कि यदि वे उसके कहे के अनुसार करेंगे तो बहुत लाभ पाएँगे, किन्तु वास्तविक दुष्परिणामों से अनभिज्ञ रखना; दूसरी, परमेश्वर के प्रतिबद्ध लोगों, कलीसिया के प्रमुख लोगों तथा अगुवों, बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि को भरमा कर उनसे बाइबल के लेखों को बाइबल के विपरीत अर्थों और अभिप्रायों के साथ दुरुपयोग करवाना; और तीसरा, मनुष्य की इस प्रवृत्ति का कि जो आकर्षक और रोचक दिखता है, तर्कपूर्ण होता है उसको स्वीकार करना और उसका पालन करना, परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार नहीं बल्कि अपनी ही समझ और बुद्धि के अनुसार कार्य करना; इनके द्वारा शैतान विश्वासियों से भी परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवाता रहता है।
हर तरह के ईसाइयों या मसीहियों में एक बहुत हानिकारक आदत सामान्यतः और सार्वजनिक रीति से पाई जाती है, और यह आदत शैतान के लिए अपनी न केवल उपरोक्त तीनों युक्तियों को, वरन हर एक युक्ति को सफलता से लागू करने में बहुत सहायक रहती है। यह हानिकारक आदत है परमेश्वर के वचन बाइबल से दूर रहना, या फिर बहुत हुआ तो थोड़ा सा समय निकालकर या तो उसे हलके में बस यूं ही पढ़ अथवा सुन लेना, या फिर लापरवाही से अथवा एक औपचारिकता निभाने के लिए यह करना; जबकि लोगों का मुख्य समय और उद्यम सँसार की बातों और कार्यों के लिए होता है, उन के लिए जो अन्ततः नष्ट होने ही वाली हैं। और इसीलिए लोग तथा विश्वासी शैतान की युक्तियों में सरलता से फंसते और गिरते रहते हैं, शैतान को उन्हें बहका कर हानि और नाश में ले जाने में कोई दिक्कत नहीं होती है (यशायाह 5:13; होशे 4:6)। बहुत ही कम ऐसे मसीही होते हैं जो अपने जीवनों में परमेश्वर के वचन को उसकी उचित प्राथमिकता, प्रधानता, और आज्ञाकारिता देते हैं।
मसीहियत में, शैतान ने उपरोक्त तीनों युक्तियों का बहुत सफल उपयोग किया है, और करता चला आ रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश मसीहियों में न तो यह क्षमता है, और न ही यह परवाह है कि उन्हें जो प्रस्तुत किया जाता है उसमें सत्य और असत्य में भिन्नता को कर सकें या पहचान सकें। परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग, अर्थात, बाइबल के सही लेखों का बाइबल के विपरीत उपयोग, शैतान बहुत चतुराई और चालाकी से करवाता है। वह बड़े चुपके से, उन्हें इस बात का एहसास भी न होने देने के साथ कि उन्हें गलती के लिए उपयोग किया जा रहा है, परमेश्वर के प्रतिबद्ध लोगों, कलीसिया के प्रमुख लोगों तथा अगुवों, बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि को भरमा कर उनसे बाइबल के लेखों को बाइबल के विपरीत अर्थों और अभिप्रायों के साथ प्रस्तुत करवाता है। आइए देखते हैं कि शैतान किस तरह से परमेश्वर के इन भक्त लोगों को ही परमेश्वर के लोगों को उनके उद्धार के बारे में बहकाने और भरमाने, तथा उद्धार के जीवन को जीने के लिए उन्हें परमेश्वर के अनुग्रह पर भरोसा रखने की बजाए उनके अपने ही कर्मों पर भरोसा रखने के व्यर्थ जाल में फँसा लेता है।
मसीहियों में परमेश्वर की दृष्टि में सही होने, परमेश्वर को स्वीकार्य होने, और इस पार्थिव जीवन की समाप्ति पर परमेश्वर के साथ स्वर्ग में होने के बारे में दो बहुत प्रचलित, और सामान्य किन्तु बहुत गलत धारणाएँ व्याप्त हैं। एक है कि यह भले होने तथा भले काम करने के द्वारा किया जा सकता है; और दूसरी है कि यदि व्यक्ति भले होने तथा भले काम करने के द्वारा धार्मिकता की जीवन-शैली बनाकर नहीं रखे, तो वह अपने इस विशेषाधिकार को, जो उसने प्राप्त किया है, खो देगा। यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि इन दोनों गलत, बाइबल के विपरीत धारणाओं की कलीसिया, मण्डली, तथा मसीहियों में उपस्थिति होने, उनके बने रहने, प्रसार होते रहने में, अनजाने में अथवा जान बूझकर, परमेश्वर के प्रतिबद्ध लोगों, कलीसिया के प्रमुख लोगों तथा अगुवों, बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि का बहुत प्रमुख और महत्वपूर्ण योगदान है। इसे लागू करने की शैतान की युक्ति को समझने के लिए, हम पहले बहुत संक्षेप में, यह देख और समझ लेते हैं कि बचाए जाने, नया-जन्म या उद्धार पाने, मसीही होने का क्या अर्थ और अभिप्राय है। यह अपने आप में एक सम्पूर्ण विषय है जिसे पहले के लेखों में विस्तार के साथ लिखा जा चुका है। लेकिन बहुत संक्षेप में, इस से संबंधित प्रासंगिक बाइबल की शिक्षाएँ हैं:
· एक सच्चा मसीही, सच में प्रभु यीशु का शिष्य होता है (मत्ती 28:19-20; प्रेरितों 11:26)।
· बाइबल के अनुसार मसीहियत न तो कभी कोई धर्म थी, और न है, बल्कि यह हमेशा से ही प्रभु यीशु मसीह में विश्वास का जीवन जीना, उसे अपना जीवन समर्पण करना, और उस ही का अनुसरण करना रही है। जो प्रभु यीशु का अनुसरण करते थे, मसीहियत के आरम्भ में, उन्हें “पन्थ / मार्ग के लोग” कहा जाता था (प्रेरितों 9:2; 19:23; 22:4; 24:14, 22)।
· मसीही विश्वास कभी भी वंशागत नहीं होता है; कभी भी, कोई भी, स्वाभाविक जन्म से “मसीही” नहीं होता है। हर किसी को, उन्हें भी जो बहुत धार्मिक हैं तथा पवित्र शास्त्र के बहुत ज्ञाता हैं, जैसे कि निकुदेमुस, को भी परमेश्वर का राज्य देखने और उस में प्रवेश करने के लिए नया जन्म प्राप्त करना अनिवार्य है (यूहन्ना 3:3, 5)। और किसी भी तरीके से यह संभव नहीं है, किन्हीं रीतियों, परम्पराओं, नियमों, या पर्वों को मानने अथवा मनाने से भी नहीं। बाइबल के अनुसार नया जन्म पाने के अतिरिक्त परमेश्वर के राज्य में प्रवेश के लिए और कोई मार्ग नहीं है।
· यह नया जन्म प्राप्त करना केवल विश्वास ही के द्वारा है न कि किसी प्रकार के कर्मों के द्वारा। यह केवल पापों के पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने से परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा होता है, कर्मों से नहीं (रोमियों 10:8-10; इफिसियों 2:5, 8-9)।
· कलीसिया एक समूह है, उनका “जो मसीह यीशु में पवित्र किए गए, और पवित्र होने के लिये बुलाए गए हैं; और उन सब के नाम भी जो हर जगह हमारे और अपने प्रभु यीशु मसीह के नाम की प्रार्थना करते हैं” (1 कुरिन्थियों 1:2)। अर्थात कलीसिया कोई डिनॉमिनेशन, या मत नहीं है, और न ही उनका समूह है जो कुछ नियमों, रीतियों, और परंपराओं का निर्वाह करते हैं; बल्कि उनका जो प्रभु यीशु मसीह के प्रति पूर्णतः समर्पित और प्रतिबद्ध हैं।
· यह वास्तविक और बाइबल के अनुरूप कलीसिया एक ही है, सार्वभौमिक है, सारे सँसार भर और अपने इतिहास में एकमात्र है, और इसे ही ‘प्रभु की देह’ तथा ‘प्रभु की दुल्हन’ कहा गया है (1 कुरिन्थियों 12:12, 27; इफिसियों 5:23, 29-30)। प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ विश्वासी व्यक्तिगत रीति प्रभु की इसी देह का एक सदस्य है।
· केवल यही एकमात्र, सार्वभौमिक, विश्वव्यापी कलीसिया ही सँसार से स्वर्ग को उठाई जाएगी, अनंतकाल के लिए प्रभु परमेश्वर यीशु मसीह के साथ रहने के लिए। इसीलिए, हर एक के लिए जो बात सबसे महत्वपूर्ण है, वह है कि क्या वह इस कलीसिया का सदस्य है अथवा नहीं? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कौन किस डिनॉमिनेशन या मत का सदस्य है, कितनी पीढ़ियों से है, और कितने समय से है। महत्व केवल इस बात का है कि क्या आप ने नया जन्म पाया है और प्रभु की इस देह, इस दुल्हन, इस विश्वव्यापी कलीसिया के सदस्य बन गए हैं या नहीं!
शैतान बाइबल के इन तथ्यों का किस प्रकार से परमेश्वर के प्रतिबद्ध लोगों, कलीसिया के प्रमुख लोगों तथा अगुवों, बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों आदि के द्वारा गलत व्याख्या करवाता है, उनका दुरुपयोग करता है, ताकि लोग परमेश्वर के सच्चे और खरे भरमाए और भटकाए जा सकें, इसे हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Altering God’s Word – 8
In considering the strategies of Satan to make a Christian Believer falter in his stewardship towards God’s Word the Bible, in the previous article, we had seen about three amongst the various strategies that Satan has devised against the Christian Believers. These were: first, enticing people through promising them great benefits through doing what he says, but hiding the actual harmful consequences; second, induce God’s committed Believers, Church leaders and elders, Bible preachers and teachers, etc., into misusing the Bible texts by giving them unBiblical meanings and implications; and third, he takes help of the human tendency of falling for something that seems appealing and logical; Satan makes Believers disobey God, by making them trust more on their own thinking and logic, than on God’s instructions.
A very strong habit, universally and uniformly rampant amongst all varieties of Christians, immensely helps Satan in implementing not only these three, but all of his other strategies as well. This pernicious habit rampant amongst Christians is of either staying away from God’s Word the Bible, or at the most according it a little time of a casual reading or merely listening, perfunctorily, or as a formality; while their main priority for their time and efforts are the things and works of the world, that will soon perish anyway; and therefore, they remain gullible to Satan’s ploys. Therefore, it is not surprising at all that Satan can so easily misguide and mislead most Christians into loss and destruction (Isaiah 5:13; Hosea 4:6). Rare are the Christians who give God’s Word its due priority, prominence, and obedience in their lives.
In Christendom, Satan has very successfully employed the three above-mentioned strategies, and continues to do so. This is because most Christians have neither the ability, nor the care or concern to discern the truth from the untruths that he gets presented to them. In the misuse of God’s Word – using the right Biblical texts and facts, in the wrong unBiblical way, Satan very cleverly and subtly, without their even realizing they are being misused, uses God’s committed Believers, Church leaders and elders, Bible preachers and teachers, etc. Let us see how he gets these godly people to misguide God’s people about their salvation, and thereby entangle them in vain efforts of relying upon their works rather than God’s grace regarding living their life of salvation.
There are two very common but very wrong notions amongst the Christians regarding being right with God, being acceptable to God, and being qualified to be in heaven with God after one’s temporal life on earth comes to an end. One is that this can be achieved by being good and doing good works; the second is that if a person does not maintain a righteous life through being good and doing good, he will lose this privilege, this special status he has attained. Very unfortunately, for the presence, continuation, and propagation of these false, unBiblical notions in the Churches or Assemblies, knowingly or unknowingly, God’s committed Believers, Church leaders and elders, Bible preachers and teachers, etc. have a major role to play. To understand Satan’s manipulation in implementing this, let us first understand, very briefly, what it means and implies to be saved, or Born-Again, or have salvation, and be a Christian. This is an entire subject in itself, that has been dealt with earlier in some preceding articles. But, in short, the relevant Biblical teachings are that:
· A true Christian is a truly a disciple of Christ (Matthew 28:19-20; Acts 11:26).
· Biblical Christianity never was and never is a religion, rather it always has been a way of life of Faith the Lord Jesus, of surrendering one’s life to Him, and following Him. Those who followed the Lord Jesus, at the beginning of Christianity, were known as ‘people of the Way’ (Acts 9:2; 19:23; 22:4; 24:14, 22).
· The Christian Faith is never inherited; No one is ever born a ‘Christian’, by natural birth. Every one, including the most religious and those most knowledgeable about the Scriptures, e.g., Nicodemus, must be Born-Again to be able to see and enter into the Kingdom of God (John 3:3, 5). According to the Bible, nothing else, no observance or fulfilment of any rituals, traditions, rules, or festivals, nothing other than being Born-Again will ever qualify anyone to be in the Kingdom of God.
· This, being Born-Again is by faith and not by any works of any kind. It is only by the grace of God through repentance of sins and coming to faith in the Lord Jesus Christ (Romans 10:8-10; Ephesians 2:5, 8-9).
· The Church is the collective group of “those who are sanctified in Christ Jesus, called to be saints, with all who in every place call on the name of Jesus Christ our Lord, both theirs and ours” (1 Corinthians 1:2); i.e., the Church is not a denomination, or sect, nor those who fulfil certain rules, rituals and traditions, but those who are completely committed and surrendered to the Lord Jesus.
· This true and Biblical Church is one, is universal, is the same all over the world and all throughout its history, and has been called the ‘body of Christ’ and the ‘Bride of Christ’ (1 Corinthians 12:12, 27; Ephesians 5:23, 29-30). Every Born-Again Christian Believer is individually a member of this Body of Christ.
· It is only this one universal Church, this Body and Bride of Christ which will be delivered from the world and taken up into heaven, to eternally be with the Lord God Jesus Christ. Therefore, for everyone, what matters is not whether they are members of any particular denomination or sect, nor for how many generations and for how long they have been the members, but whether or not they have been Born-Again and become a member of this Church, this Body, this Bride of Christ.
How Satan misinterprets and misuses these Biblical facts to misguide people through God’s committed Believers, Church leaders and elders, Bible preachers and teachers, etc. we will see in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.