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1 कुरिन्थियों 12:7-11 के आत्मिक वरदान - भाग 1
पिछले लेख में हमने देखा है कि न तो कोई आत्मिक वरदान और न ही कोई मसीही सेवकाई छोटी अथवा बड़ी, या कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण है; परमेश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं। सभी वरदानों का उपयोग किसी के निज प्रयोग अथवा भलाई के लिए नहीं वरन मण्डली के सभी लोगों की भलाई के लिए होना है। सभी वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर द्वारा नियुक्त सेवकाई को सुचारु रीति से पूरा करने के लिए दिए जाते हैं; किसको क्या वरदान मिलना है, यह व्यक्ति की इच्छा के अनुसार नहीं, अपितु पवित्र आत्मा के द्वारा निर्धारित किया जाता है। हमने यह भी देखा था कि 1 कुरिन्थियों 12:31 में वाक्यांश “बड़े से बड़े वरदान की धुन में रहो” का अभिप्राय मण्डली में परमेश्वर के लिए अधिक से अधिक उपयोगी होने की “धुन में रहने” या हार्दिक इच्छा बनाए रखने के लिए है, वरदानों को बड़ा या छोटा बताने और वरदानों में बदलाव करवाने के लिए नहीं। इस वाक्यांश के विषय यह भी ध्यान कीजिए कि “धुन में रहो” लिखा गया है; किन्तु यह नहीं कहा गया है कि ऐसा करने से पवित्र आत्मा हमारी “धुन में रहने” के अनुसार हमारे वरदानों और सेवकाई में कोई परिवर्तन कर देगा - जैसा कि बहुधा पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं सिखाने वाले अभिप्राय देते हैं, और इसके लिए इस पद का दुरुपयोग करते हैं।
आज से हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 के इन 5 पदों में दिए गए विभिन्न वरदानों को थोड़ा और गहराई से देखते हैं। यहाँ हर वरदान के साथ लिखा है, “किसी को...”; अर्थात हर किसी को सभी वरदान नहीं दिए गए हैं, और हर किसी को एक ही वरदान नहीं दिया गया है; वरन अलग-अलग सेवकों को, उनकी सेवकाई के अनुसार ही अलग-अलग वरदान दिए गए हैं। इसलिए किसी को भी किसी दूसरे के वरदान को लेकर ईर्ष्या या कोई अनुचित भावना नहीं रखनी चाहिए। यहाँ दिए गए वरदानों के अतिरिक्त भी पवित्र आत्मा के वरदान हैं, जो बाइबल की अन्य पुस्तकों में दिए गए हैं। अभी के लिए हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 में दिए गए वरदानों को ही देखना आरंभ करेंगे। इन 5 पदों में 9 विभिन्न वरदान दिए गए हैं; ये वरदान हैं: “बुद्धि का बातें”; “ज्ञान की बातें”; “विश्वास”; “चंगा करने का वरदान”; “सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”; “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना”। इस खंड का आरंभ इन सभी वरदानों के सभी लोगों के लाभ के लिए होने, और पवित्र आत्मा के द्वारा होने (पद 7), और अंत इनके पवित्र आत्मा की इच्छा के अनुसार दिए जाने तथा इनका उपयोग पवित्र आत्मा द्वारा ही करवाए जाने (पद 11) से होता है। अर्थात आत्मिक वरदानों से संबंधित सब कुछ - उनका उद्देश्य, उन्हें प्रयोग करने की क्षमता, किस को क्या वरदान दिया जाना है का निर्णय, आदि, सभी परमेश्वर पवित्र आत्मा के अधिकार में है, यह पूर्णतः उनकी ओर से और उनके द्वारा है; किसी मनुष्य की इसमें कोई भूमिका अथवा अधिकार नहीं है, जैसा कि इस खंड से पहले पद 4-6 में भी लिखा गया है।
इन वरदानों की उपयोगिता के बारे में समझते हैं:
“बुद्धि का बातें”: बुद्धि या बुद्धिमत्ता का अर्थ होता है किसी परिस्थिति या आवश्यकता के अनुसार उपलब्ध ज्ञान एवं संसाधनों का उपयुक्त उपयोग करना; किसी कार्य को भली-भांति या लाभदायक रीति से करना। इसे भजन 119:97-105 के साथ देखने से यह और अधिक स्पष्ट हो जाता है।
“ज्ञान की बातें”: ज्ञान किसी बात या विषय की जानकारी होने या उसे एकत्रित करने के लिए है। सामान्य व्यवहार में बुद्धिमत्ता और ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं, और साथ-साथ उपयोग होते हैं; एक के बिना दूसरा ठीक से उपयोग नहीं किया जा सकता है। किन्तु ज्ञान शारीरिक भी हो सकता है और ईश्वरीय भी; शारीरिक ज्ञान शैतानी होता है और स्वयं तथा औरों के लिए हानिकारक होता है, और ईश्वरीय ज्ञान आत्मा के फलों के अनुसार होता है (याकूब 3:14-17)। पवित्र आत्मा द्वारा दिया जाने वाला “ज्ञान” ईश्वरीय ज्ञान है, और इस ज्ञान का बुद्धि के साथ किया गया उपयोग व्यक्ति तथा औरों के लिए उन्नति लाता है।
“विश्वास”: बहुत सी ईश्वरीय बातें मनुष्य को अपनी सांसारिक बुद्धि से अविश्वसनीय लगती हैं, समझ में नहीं आती हैं। उदाहरण के लिए यह स्वीकार कर लेना कि प्रभु यीशु मसीह ने समस्त मानवजाति के पापों की पूरी-पूरी कीमत चुका दी है, अब उन पर लाए विश्वास के द्वारा मनुष्य अनन्तकाल के नरक के दण्ड से बचकर, परमेश्वर की संतान बनकर अनन्तकाल के लिए परमेश्वर के साथ स्वर्ग में रहने लगता है, मानवीय बुद्धि और ज्ञान के आधार पर बहुतों के लिए कठिन होता है। किन्तु पवित्र आत्मा इसे और परमेश्वर की अन्य अद्भुत और अविश्वसनीय प्रतीत होने वाली बातों को मानने के लिए आवश्यक विश्वास प्रदान करता है। इसीलिए याकूब ने लिखा है कि जिसे बुद्धि की घटी है वह परमेश्वर से मांगे और उसे दी जाएगी (याकूब 1:5-6); और इब्रानियों 11 अध्याय में पुराने नियम के उन विश्वास के दिग्गजों के नाम दिए गए हैं, जिन्होंने परमेश्वर की अविश्वसनीय प्रतीत होने वाली बातों पर भी विश्वास किया और ऐसे-ऐसे कार्य करे जो उनके अपने लिए तथा औरों के लिए असंभव थे।
“चंगा करने का वरदान”: प्रभु यीशु के शिष्यों के द्वारा शारीरिक रोगों से चंगाई भी पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से दी जाती है, और चंगाई का यह वरदान भी परमेश्वर पवित्र आत्मा किसी-किसी मसीही सेवक को देता है, हर किसी को नहीं। किन्तु जिस प्रकार से आज इस वरदान का प्रयोग किया जा रहा है, वैसा बाइबल में नहीं किया गया है। बाइबल में कहीं पर भी “चंगाई की सभाएं” आयोजित करने, चंगाई प्राप्त करने को लोगों को लुभाने और एकत्रित करने, और शारीरिक चंगाई की शिक्षा को आत्मिक चंगाई अर्थात सुसमाचार प्रचार पर प्रमुखता एवं प्राथमिकता दिए जाने का कोई उल्लेख या उदाहरण नहीं है। शारीरिक चंगाई, चाहे प्रभु यीशु के द्वारा, या फिर उनके शिष्यों के द्वारा, जब भी दी गई है, व्यक्तिगत रीति से, व्यक्ति विशेष को, उससे बात करने के बाद दी गई है। किन्तु आज चंगाई देना मनुष्यों के नाम के प्रचार और प्रशंसा प्राप्त करने का माध्यम बन गया है। इस वरदान का बाइबल की शिक्षाओं के अनुरूप उचित उपयोग करने के स्थान पर इसका प्रभु यीशु के नाम में व्यक्तिगत प्रशंसा और लाभ के लिए किया जाने वाला दुरुपयोग और इसे अनुचित शिक्षाओं के साथ मिलाकर लोगों में प्रदर्शन करना, आज मसीही विश्वास और सुसमाचार प्रचार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत और बाधा बना हुआ है।
“सामर्थ्य के काम करने की शक्ति”: यद्यपि यहाँ पर यह नहीं बताया गया है कि ये सामर्थ्य के काम कौन से हैं, किन्तु मूल यूनानी भाषा के शब्द का अंग्रेजी अनुवाद “miracles” किया गया है। अर्थात ऐसे कार्य जो सामान्य मानवीय योग्यता, शक्ति, एवं क्षमताओं के द्वारा किया जाना संभव नहीं है। इन विभिन्न प्रकार के कार्यों को हम इब्रानियों 11 अध्याय में दिए गए विश्वास के दिग्गजों द्वारा परमेश्वर और उसके वचन में विश्वास के द्वारा की गई बातों से भी समझ सकते हैं। उनके विश्वास को व्यावहारिक रूप में कार्यान्वित परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवाता रहा।
शेष वरदानों, “भविष्यवाणी करने की शक्ति”; “आत्माओं की परख”; “अनेक प्रकार की भाषा”; “भाषाओं का अर्थ बताना” को हम अगले लेख में देखेंगे। यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो आपके लिए यह अति आवश्यक है कि आप अपनी सेवकाई को पहचानें और उस सेवकाई के लिए पवित्र आत्मा द्वारा आपको प्रदान किए गए वरदानों को भी पहचानें, उनके महत्व को समझें, और उनका उपयुक्त उपयोग करें, जिससे सुसमाचार का प्रचार और प्रसार, तथा परमेश्वर के नाम की महिमा हो। जो भी सेवकाई और वरदान परमेश्वर ने आप को प्रदान किए हैं, वही आपके ले सही और आशीषपूर्ण हैं। उन्हें बदलने के व्यर्थ प्रयासों और गलत शिक्षाओं में मत फंसें; वरन उन्हें पवित्र आत्मा के निर्देशानुसार उपयोग कीजिए और परमेश्वर की आशीषों से परिपूर्ण होते चले जाइए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 126-128
1 कुरिन्थियों 10:19-33
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Understanding the Gifts of the Holy Spirit of 1 Corinthians 12:7-11 - Part 1
In the previous article we have seen that neither any Spiritual Gift, nor any Christian Ministry is greater or smaller, or of greater or lesser importance; in the eyes of God all are equal. All the Spiritual Gifts are to be used not for anyone’s personal benefit, but for the benefit of the people of the Church. All the gifts are given by God the Holy Spirit, so that the Believer can do his God assigned work and ministry properly and worthily. It is the Holy Spirit who decides which gift to give to whom; these gifts are not according to the desires of any person and no man can demand any particular gift from Him. We had also seen that the phrase “But earnestly desire the best gifts” from 1 Corinthians 12:31 implies to be desirous of being of “best use” or as much use as possible in the Church of God. Contrary to popular interpretation and misuse, as is done by those who teach wrong doctrines and false teachings about the Holy Spirit, this phrase and this verse is not meant to say that any gift is greater or lesser than another, and Believers should strive to have their gifts changed or to obtain a particular gift.
From today we will see in a little more detail about the Spiritual gifts mentioned in the 5 verses, 1 Corinthians 12:7-11. Take note that in these verses, along with the gifts the phrase “to one/to another…” has been added. In other words, all the gifts have not been given to any one person, nor has one particular gift been given to all the persons; but according to their work and ministry, different people have been given different gifts. Therefore, no one should have any ill-feelings or jealousy about another’s gifts. Besides the gifts of the Holy Spirit mentioned over here, other gifts have also been mentioned in the other books of the Bible. But for now, we will concentrate upon only 1 Corinthians 12:7-11, where in these 5 verses, 9 different gifts have been mentioned. The gifts mentioned are: “word of wisdom,” “word of knowledge,” “faith,” “healing,” “miracles,” “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongue.” This section starts with the caution that all the gifts are given by the Holy Spirit for the benefit of all (verse 7) and concludes with the caution that these gifts are given as the Holy Spirit decides and are to be used as the Holy Spirit instructs (verse 11). In other words, everything related to the Spiritual gifts - their purpose, the ability to use them, who is to receive which gift, etc., are all completely controlled by the Holy Spirit; all these gifts are from Him and by Him. No man has any role or interference in this, as has been made clear in the immediately preceding section of verses 4-6.
Let us now understand the utility of these gifts:
“Word of wisdom”: Wisdom is the ability to properly use the knowledge and available resources in any given situation; to be able to do a job well, and in a beneficial manner. Consider this along with Psalm 119:97-105 and the meaning will become clearer.
“Word of knowledge”: Knowledge is accumulating what is known about a topic or thing. In general behavior, wisdom and knowledge complement each other, and are used along with each other; one cannot be used well without the other. But knowledge can be temporal or physical as well as godly; temporal or physical knowledge can be satanic, is harmful for the person as well as others, whereas godly knowledge is in accordance with the fruits of the Holy Spirit (James 3:14-17). The knowledge given by the Holy Spirit is godly, and its use with wisdom brings benefits for the person as well as others.
“Faith”: Many godly things seem impossible or unbelievable by the worldly wisdom, and are very difficult to understand. For example, to accept that the Lord Jesus has paid in full the price of the sins of the entire mankind, and now by coming into faith in Him man can be saved from the eternal punishment in hell, and spend eternity in heaven with God as his child, is very difficult if not impossible by man’s own knowledge and wisdom. But the Holy Spirit gives the requisite faith to accept this and other seemingly too wonderful and unbelievable things of God. That is why James has written that the one who lacks wisdom should ask God for it, and it will be given to him (James 1:5-6). In Hebrews 11 we have listed for us the names of the Heroes of Faith from the Old Testament who believed even on the seemingly impossible things of God and then through their faith in God and His Word did things which were impossible for others.
“Gifts of Healing”: The physical healings done by the disciples of the Lord Jesus are done by the power of the Holy Spirit, and this gift of healing is given by God to some, not to everyone. But the way this gift is being promoted and used today, has never been done in the Bible. In the Bible there is no mention of any “Healing Campaigns or Meetings” being organized and advertised; there is no mention in the Bible of people being enticed for physical healings, and this preaching of healings taking precedence over the preaching of the Gospel, the message of salvation, i.e., the ‘healing’ of the spirit. The pattern we see throughout God’s Word is that any physical healing given to any person, has always been given personally, and after talking with that person. But today, physical healing has become a method of preaching about and promoting persons, acquiring name and fame. Instead of using this gift in accordance with the Biblical teachings about it, it is being misused to gain name, fame, and temporal benefits in the name of the Lord Jesus, and to preach many wrong doctrines and false teachings along with it. And this has become a big problem for the actual Christian Faith and for preaching and propagating the Gospel of Salvation.
“Working of Miracles”: The kinds of miracles have not been specified here, the term generally means those works or things that are not possible through human ability, power, and skills. What these kinds of works are can be well understood from the works done by the Heroes of Faith mentioned in Hebrews 11, because of their faith in God and His Word. It was the Spirit of God who gave a practical working to their faith.
We will see about the remaining gifts, “prophecy,” “discerning of spirits,” “different kinds of tongues,” and “interpretation of tongue” in the next article. If you are a Christian Believer then it is very essential for you to know and understand your ministry, and the gifts the Holy Spirit has given to you to fulfill the work and ministry. You should understand the importance of the gifts, and how to use them appropriately and effectively, so that through you and your ministry the Gospel of salvation is preached and propagated worthily and God’s name is glorified. Whichever gifts the Holy Spirit has given to you, they are the best, most beneficial, and most rewarding for you. Do not get caught up in the false teaching and vain efforts of trying to change them or acquire some other gifts. Rather, use your gifts for your God assigned works and ministry and you will grow and be filled with the blessings of the Lord God.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 126-128
1 Corinthians 10:19-33