पवित्र आत्मा का बपतिस्मा – निहितार्थ भाग 2
कल के लेख में हमने परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय फैलाई जा रही गलत शिक्षाओं के मसीही विश्वासी के जीवन और उसकी सेवकाई पर आने वाले दुष्प्रभावों के निहितार्थों और घातक परिणामों के पहले भाग को देखा था। इस शृंखला के निष्कर्ष पर पहुँचने पर आज हम इन गलत शिक्षाओं में शैतान द्वारा छिपाए गए निहितार्थों के दूसरे और अंतिम भाग को देखेंगे।
यदि कुछ गंभीरता और ध्यान से इस धारणा पर विचार किया जाए तो यह प्रकट हो जाता है कि ऐसी शिक्षाएं एक शैतानी चाल हैं, लोगों को सच्चाई से भटकाने और वचन को ऐसे तोड़-मरोड़ कर सिखाने के लिए, जिससे अनजाने में और नासमझी में होकर (यशायाह 5:13; होशे 4:6) मनुष्य परमेश्वर से भी बढ़कर बनने का प्रयास करने लगे - वही कार्य जिसे करने के कारण लूसिफर को स्वर्ग से गिरा दिया गया और वह शैतान बन गया। इन गलत शिक्षाओं के द्वारा शैतान बारंबार एक प्रतीत होने वाली भक्ति और धार्मिकता का आवरण डालकर, यह दिखाने और सिखाने का प्रयास करता है कि मनुष्य अपने प्रयास से परमेश्वर को नियंत्रित तथा संचालित कर सकता है; परमेश्वर को अपने हाथ की कठपुतली बना सकता है।
ऊपर हम देख चुके हैं, कि यद्यपि यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि पवित्र आत्मा पाना और पवित्र आत्मा से बपतिस्मा एक ही बात को कहने के दो भिन्न तरीके हैं, फिर भी इन गलत शिक्षाओं को सिखाने और फैलाने वाले, ‘से’ के स्थान पर ‘का’ लगाकर यही सिखाने और दिखाने का प्रयास करते हैं कि यह एक अलग बात है, जो मनुष्य के अपने प्रयासों के द्वारा संभव है; इसलिए सेवकाई में लगे मसीही विश्वासियों को अवश्य ही इसके लिए प्रयास और प्रार्थना करनी चाहिए। यह न केवल उनका ध्यान और समय उनकी सेवकाई से हटाकर व्यर्थ बात में फंसाना और उन्हें प्रभु के लिए उपयोगी होने से बाधित करना, उनकी सेवकाई और प्रभु के लिए उनकी उपयोगिता में व्यर्थ का विलंब करवाना है; वरन उनके मनों में यह बात डालना भी है कि वे परमेश्वर को बाध्य कर सकते हैं कि वह उनके लिए उनकी इच्छा के अनुसार करे।
यदि यह कहा जाए कि पवित्र आत्मा का बपतिस्मा विश्वासी के अंदर उद्धार पाते ही आकर बस जाने वाले पवित्र आत्मा को प्राप्त करना नहीं अपितु उसे सक्रिय (activate) कर देना है; तो इसका अभिप्राय हो जाता है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो पश्चाताप और प्रभु में विश्वास करने के साथ ही विश्वासी को परमेश्वर की ओर से दे दिया गया, वह आकर विश्वासी के अंदर शांत और निष्क्रिय बैठा हुआ होता है, और तब तक इस स्थिति में रहेगा, जब तक कि विश्वासी उसे जागृत कर के सक्रिय और कार्यकारी न कर दे। अर्थात कार्य करवाने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा नहीं, वरन उसे नियंत्रित करने वाला मनुष्य है, जिसमें पवित्र आत्मा विद्यमान है। जबकि ऐसी कोई शिक्षा पवित्र आत्मा के बारे में प्रभु यीशु ने न तो यूहन्ना 14 और 16 अध्यायों में, न ही पत्रियाँ लिखने वाले प्रेरितों और शिष्यों ने किसी अन्य स्थान पर कभी भी, कहीं पर भी दी; न ही बाइबल में किसी अन्य स्थान पर ऐसी कोई बात कही गई है। यह केवल शैतान के बहकावे में आकर मनुष्य द्वारा परमेश्वर पर हावी होने का प्रयास करना है।
यदि यह कहा जाए कि पवित्र आत्मा मिलता तो सभी विश्वासियों को है, किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें उनकी सेवकाई के लिए कुछ अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, इसलिए उन्हें एक और अनुभव, पवित्र आत्मा का बपतिस्मा प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, तो यह भी वचन की किसी भी शिक्षा के साथ मेल नहीं खाता है। भक्ति और धार्मिकता के नाम पर यह मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का प्रयास है; उन्हें घमंड में गिराने का तरीका है। यदि इसे स्वीकार किया जाता है तो, इस विचारधारा के परिणाम समझना कुछ कठिन नहीं है:
यह मसीही विश्वासियों को विभाजित करती है - पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए और न पाए हुए में बाँट देती है। वचन स्पष्ट दिखाता है कि जब भी किसी भी आधार पर लोगों ने अपने आप को भिन्न देखने या दिखाने का प्रयास किया है, तो कलीसिया में परेशानियाँ ही आई हैं, फूट ही पड़ी है, कभी कोई उन्नति नहीं हुई - (i) अगुवों के नाम और अनुसरण पर विभाजन के कारण कुरिन्थुस की मंडली में फूट पड़ी (1 कुरिन्थियों 1:11-13)। (ii) इब्रानी और यूनानी विश्वासी कहलाए जाने से फूट और बैर आया, जिसका बुरा प्रभाव प्रेरितों के प्रार्थना और वचन की सेवा पर पड़ने लगा (प्रेरितों 6:1-4)। (iii) यहूदी और गैर-यहूदी मसीही विश्वासियों के मध्य खींच-तान और अलगाव से सभी प्रेरितों और पौलुस को भी जूझते ही रहना पड़ा (प्रेरितों 15:1-2, 5, 10-11; इफिसियों 2:17-22)। यही स्थिति, इस प्रकार बपतिस्मा पाए और न पाए हुओं के मध्य उत्पन्न होकर प्रभु के लोगों में और उसकी कलीसिया में फूट और मतभेद उत्पन्न करती है।
जो अपने आप को अलग से पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए समझते हैं, वे अपने आप को अन्य विश्वासियों से कुछ उच्च श्रेणी का समझने लगते हैं; घमंड में आ जाते हैं, जो उनकी मसीही सेवकाई, तथा संसार में मसीही गवाही और कलीसिया के काम के लिए घातक है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के घमंड के साथ नहीं निभा सकता है, उसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। इसके विपरीत जिन्होंने यह तथाकथित बपतिस्मा नहीं पाया है, और बहुत प्रयास करने के बाद भी उन्हें यह अनुभव नहीं मिला है, और क्योंकि ऐसा कुछ है ही नहीं इसलिए कभी मिलेगा भी नहीं, उनमें निराशा और हीन भावना आने लगती है, और वे अपनी सेवकाई में कमज़ोर पड़ने लगते हैं। दोनों ही स्थितियों में हानि प्रभु के लोगों और उनकी सेवकाई तथा परमेश्वर के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार ही की होती है, और लाभ शैतान को मिलता है।
इस विचारधारा से यह समझ भी फैलती है कि अलग सेवकाइयों के लिए अलग वरदानों ही की नहीं वरन अलग अतिरिक्त सामर्थ्य की भी आवश्यकता होती है; जिसका अभिप्राय यह निकलता है कि कुछ सेवकाई प्रमुख हैं, जिनके लिए विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, और शेष हलकी या गौण हैं, जिनके लिए किसी विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं है। यह फिर से मसीही सेवकों में दरार और ऊँच-नीच की भावना को जन्म देता है। यह सेवकाई के लिए दिए जाने वाले पवित्र आत्मा के वरदानों की शिक्षा के बिल्कुल विरुद्ध है। वरदान कोई भी हो, सब मिलकर एक ही देह के अंग हैं, कोई बड़ा या छोटा, अथवा महत्वपूर्ण या गौण नहीं है (रोमियों 12:3-5)। परमेश्वर प्रत्येक को उसे सौंपी गई सेवकाई के आधार पर प्रतिफल देगा, न कि वरदानों के अधिक अथवा कम महत्वपूर्ण होने की धारणा के अनुसार (मत्ती 20:9-15)। पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता से ही उसकी सामर्थ्य उपलब्ध है।
परमेश्वर ने हम मसीही विश्वासियों को अपनी पवित्र आत्मा के द्वारा, हमारे उद्धार पाने के साथ ही मसीही जीवन एवं सेवकाई के लिए आवश्यक सामर्थ्य तथा अपने वचन के द्वारा उपयुक्त मार्गदर्शन दे रखा है; अब यह हम पर है कि हम उसका सदुपयोग करें और प्रभु के योग्य गवाह बनें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहेजकेल 42-44
1 यूहन्ना 1