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परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 1
हमने पिछले लेखों में देखा है कि प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, उसका, जो परमेश्वर ने उसे दिया है, एक भण्डारी भी है; और परमेश्वर द्वारा प्रत्येक विश्वासी को दी गई बातों में से एक है उसका वचन, बाइबल। हमने यूहन्ना 1:1, 14 से देखा था कि शब्द “वचन” का बाइबल में उपयोग प्रभु यीशु मसीह के एक नाम के समान भी हुआ है; और यही “वचन” आज हमारे हाथों में लिखित बाइबल के रूप में दिया गया है। प्रभु यीशु का एक स्वरूप होने के नाते, यह उतना ही संपूर्ण और सिद्ध है जितना प्रभु यीशु हैं; और इसीलिए इसके साथ कोई छेड़-छाड़, उसमें कुछ जोड़ना या उसमें से कुछ घटना, आदि बिलकुल नहीं किए जा सकते हैं। इस लिखित वचन के साथ ऐसा कुछ भी करना एक तरह से प्रभु परमेश्वर के साथ करना है, और इसीलिए यह करने के बहुत गंभीर दुष्परिणाम हैं; ऐसा करना परमेश्वर द्वारा वर्जित किया गया है (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। परमेश्वर के जीवित वचन, बाइबल, के भण्डारी होने के नाते यह प्रत्येक मसीही की ज़िम्मेदारी है कि यह सुनिश्चित रखे कि वचन के साथ कोई अनुचित व्यवहार, अर्थात, उसके साथ कोई दुर्व्यवहार, उसकी कोई गलत व्याख्या, उसका कोई गलत उपयोग न किया जाए। इसका यह निहितार्थ भी है कि यदि किसी मसीही को यह पता चलता है, या वह इस बात का एहसास करता है कि उसके अपने जीवन में, या कलीसिया में, या औरों के मध्य किसी रीति से परमेश्वर के वचन के साथ कोई दुर्व्यवहार, उसकी कोई गलत व्याख्या, उसका कोई गलत उपयोग किया जा रहा है, तो यह उसकी ज़िम्मेदारी है, भण्डारी होने का फ़र्ज़ है कि वह तुरन्त ही इसे सुधारने के लिए उपयुक्त कदम उठाए, और वचन के प्रति उचित व्यवहार को बहाल करे।
शैतान के शैतान बनने से पहले और उसके दूतों – वर्तमान में दुष्टात्माओं, के साथ उनके स्वर्ग से बाहर निकाले जाने से पहले, वह प्रधान स्वर्गदूत लूसिफर था। उसकी सुन्दरता, क्षमताओं, और उसे दी गई सामर्थ्य के कारण उसमें घमण्ड आ गया, और उसने अपने आप को परमेश्वर से ऊँचा करना चाहा। यही उसके पतन और स्वर्ग से निष्कासित किए जाने का कारण था। तब से ही वह किसी न किसी रीति से मनुष्य की दृष्टि में परमेश्वर को गिराने और असिद्ध दिखाने, तथा अपने आप को ऊँचा उठाने के प्रत्येक अवसर का भरपूरी से उपयोग करता आ रहा है। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने अनेकों युक्तियाँ बना रखीं हैं, कुछ दुष्टता की हैं, कुछ दिखने में सीधी तथा अहानिकारक सी लगती हैं, और कुछ ऐसी भी हैं जो बाहरी स्वरूप में देखने में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा और भक्ति पूर्ण प्रतीत होती हैं किन्तु वास्तविकता में इसके विपरीत हैं। जिस व्यक्ति के विरुद्ध उसे कार्य करना होता है, उसके स्वभाव के अनुसार शैतान इन में से कोई एक युक्ति अथवा कुछ युक्तियों को उपयोग करता है। कुल मिलाकर, उसका यही प्रयास रहता है कि मनुष्य को यह मनवाए कि परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया जा सकता है, और उस पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए, तथा मनुष्य की दृष्टि में परमेश्वर को नीचा दिखाए। जैसा कि हमने बाइबल के स्वरूप और स्वभाव पर पिछले लेखों में देखा है तथा बारंबार ज़ोर भी दिया है, यह जाँचने और परखने का कि जो हमें प्रस्तुत किया जा रहा है वह परमेश्वर की ओर से है कि नहीं, एकमात्र सही और अचूक तरीका है बाइबल के आधार पर उसकी जाँच-पड़ताल करना, यह देखना कि क्या वह बात बाइबल में दी गई है या नहीं, और यदि दी गई है, तो क्या उसी तरह से, उसी अर्थ के साथ दी गई है, जैसी वह हमारे सामने प्रस्तुत की जा रही है? यदि उस बात में बाइबल में दिए अनुसार से ज़रा सा भी परिवर्तन अथवा भिन्नता है, तो उसे तुरन्त ही स्वीकार नहीं करना चाहिए। बल्कि, बड़ी बारीकी से उसे परमेश्वर के अचूक, अटल, अपरिवर्तनीय, स्वर्ग में अनन्त काल के लिए स्थापित वचन, बाइबल, के आधार पर जाँच कर उसकी वास्तविकता की पुष्टि करनी चाहिए; और उस पर तब ही विश्वास करना चाहिए यदि वह बाइबल में लिखे के अनुसार पूर्णतः सही और उससे संगत पाई जाए।
परमेश्वर के एक जन ने बहुत सही कहा है, “या तो बाइबल आप को पाप से दूर रखेगी; अन्यथा पाप आप को बाइबल से दूर रखेगा।” क्योंकि परमेश्वर का वचन बाइबल शैतान द्वारा उसकी युक्तियों को सफलता पूर्वक प्रयोग करने में सब से बड़ी बाधा है, इसलिए उसकी मुख्य युक्तियों में से एक है मनुष्य के हृदय में परमेश्वर के वचन के प्रति सन्देह उत्पन्न करना, और मनुष्य को परमेश्वर के वचन पर भरोसा रख कर अपने निर्णय लेने के लिए नहीं, वरन अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार निर्णय लेने और कार्य करने के लिए उकसाना। इसके बारे में हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Improper Behavior Towards God’s Word - 1
We have seen in the previous articles that every Born-Again Christian Believer is also a steward of whatever God has given him; and one of the things given to every Believer by God is His Word, the Bible. We saw from John 1:1, 14 that “The Word” is also a name used in the Bible for the Lord Jesus; and this “Word” has now been placed in our hands in the written form as The Bible. Being a form of the Lord Jesus, it is just as complete and perfect as the Lord Jesus is; and therefore, it cannot be tampered with, altered, added to or taken away from. Doing any of these to the written Word is tantamount to doing it to the Lord God, and therefore, has serious deleterious consequences; has been forbidden by God (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). As stewards of God’s Living Word, The Bible, as part of his stewardship it is every Christian Believer’s responsibility to ensure that God’s Word is not improperly used, i.e., is not mishandled, misinterpreted, and misused. This also implies that if it comes to his knowledge, or if he realizes that in his own life, or in his Church, or amongst others, God’s Word is in some way being mishandled, misinterpreted, and misused, then it is his responsibility as a steward, that he should immediately take corrective measures to restore the appropriate behavior towards it.
Satan, before becoming Satan and being cast out of heaven along with his angels – now demons, was the Archangel Lucifer. Because of his beauty, capabilities, and powers, pride came in him and he wanted to exalt himself above God. This was the cause of his downfall and being cast out of heaven. Since then, he has been using every opportunity, creating means and schemes to somehow denigrate God, show God to be imperfect, bring God down and exalt himself in the eyes of man and be worshipped. To try to accomplish this he has devised various strategies, some evil, some seemingly innocuous, and some that seem pious and reverential towards God, but in reality are just the opposite. Depending upon the nature of the person he has to work against, Satan uses one or the other, or a combination of these strategies. Overall, his effort is directed towards making man believe that God cannot be believed, should not be relied upon, and to bring God down. As we have seen and as has been repeatedly emphasized in the preceding articles on the substance and nature of the Bible, the one infallible method of identifying whether a thing being presented to us is from God, or not from God is to check whether or not it has been given in the Bible, in just the same way as it is being presented to us. If there is any variation from what is given in the Bible, and the way the thing is being told or presented to us, then it is not to be immediately believed. Instead, it has to be minutely evaluated and confirmed on the basis of the inerrant, infallible, unalterable, eternal Word of God forever settled in heaven, the Bible, and only believed if found consistent with what is written in the Bible.
It has very rightly been said by a man of God, “Either the Bible will keep you from sin; or, sin will keep you from the Bible.” Since God’s Word, The Bible, is the greatest hindrance for Satan to successfully implement his strategies, therefore one of his prime strategies is to create doubts about God’s Word in the heart of man, and induce him to rely not on God’s Word, but his own intellect and reasoning, and take his decisions accordingly. We will see more on this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.