व्यवस्था के औपचारिक निर्वाह के दुष्प्रभाव – 1
पिछले लेखों में हमने देखा है कि यद्यपि रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करना, या पर्व मनाना, या भेंट-बलिदान चढ़ाना परमेश्वर द्वारा मूसा में होकर इस्राएलियों को दी गई उसकी व्यवस्था में दिया गया है, किन्तु इनका मात्र रीति के अनुसार, औपचारिक निर्वाह वास्तव में व्यवस्था का पालन करना नहीं है। जैसा प्रभु यीशु मसीह ने कहा है, व्यवस्था परमेश्वर और मनुष्यों के साथ परमेश्वर द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार संबंधों को बनाना और निभाना है। परमेश्वर के साथ सही संबंध में होने और बने रहने का अर्थ उससे सारे मन, ध्यान, विचार, और धन से प्रेम करना तथा उसे पूर्णतः समर्पित रहना और उसकी आज्ञाकारिता में रहना है। जब परमेश्वर के साथ संबंध ठीक होगा, तो यह मनुष्यों के साथ भी सही संबंध बनाने और निभाने में भी प्रकट होगा। यही व्यवस्था का पालन है। प्रकट है कि इसमें किसी प्रकार की औपचारिकता का कोई स्थान नहीं है। औपचारिकता केवल वहीं होती है जहाँ व्यवस्था को रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करना, या पर्व मनाना, या भेंट-बलिदान चढ़ाना मान लिया जाता है, और फिर निर्धारित समय पर निर्धारित विधि के अनुसार ये बातें पूरी कर दी जाती हैं, चाहे व्यक्ति की उन में कैसी और कितनी भी आस्था या श्रद्धा हो, या न हो। साथ ही हमने यह भी देखा और समझा था कि चाहे पुराने नियम के लोग हों अथवा नए नियम के, जिन्होंने भी परमेश्वर के साथ सही संबंध बनाए, वे सभी उसे स्वीकार्य हुए, उन सभी ने जीवन में प्रवेश किया, जैसा परमेश्वर ने आश्वस्त किया है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा लोगों को जीवन में प्रवेश मिलेगा।
लेकिन व्यवस्था को उसके सही स्वरूप, परमेश्वर और मनुष्यों के साथ सही संबंधों को बनाने और निभाने के लिए परमेश्वर के निर्देशों में देखने और मानने के स्थान पर यदि व्यक्ति उसे रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करना, या पर्व मनाना, या भेंट-बलिदान चढ़ाना आदि मानकर, और इनका भी सही मनसा के साथ निर्वाह नहीं करता है, तो यह उसके लिए बेचैनी और अशान्ति का कारण बन जाता है। हम इस बात को परमेश्वर के वचन बाइबल के नए नियम भाग में से तीन उदाहरणों से देखते हैं; इनमें से एक उदाहरण हम आज के लेख में देखेंगे, और शेष दो को अगले लेख में।
अनन्त जीवन की लालसा रखने वाले एक धनी जवान अधिकारी से हुई प्रभु की बातचीत (मत्ती 19:16-22) से दो बातें स्पष्ट हैं; पहली बात तो यह कि वह अभी भी अपने जीवन में कुछ कमी अनुभव कर रहा था। यद्यपि वह व्यक्ति, अपनी दृष्टि और मानकों के अनुसार, बचपन से ही व्यवस्था का पालन करता आ रहा था; किन्तु प्रभु से किया गया उसका प्रश्न, और प्रभु को दिया गया उसका प्रत्युत्तर दिखाते हैं कि अपने अन्दर वह जानता था कि उसके द्वारा किए गए “व्यवस्था पालन” ने उसे परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं बनाया है, वह अभी भी अनन्त जीवन से दूर है। दूसरी बात, प्रभु द्वारा उसे दिए गए निर्देशों से यह प्रकट है कि उसका “व्यवस्था पालन” अधूरा था, और सही मनसा से नहीं था। ध्यान कीजिए, मत्ती 19:18-19 में प्रभु यीशु जिन आज्ञाओं के पालन की बात करता है, वे दस आज्ञाओं का भाग तो हैं, किन्तु इनमें पहली चार आज्ञाओं का, जो मनुष्यों के परमेश्वर के साथ संबंध के बारे में हैं, कोई उल्लेख नहीं है। और न ही उस व्यक्ति ने प्रभु से यह कहा कि वह न केवल प्रभु द्वारा कही जा रही छः आज्ञाओं का पालन करता आया है, वरन उन पहली चार आज्ञाओं का भी पालन करता आया है, जिनका उल्लेख प्रभु ने नहीं किया है। संकेत प्रकट है कि उस व्यक्ति के जीवन में इन पहली चार आज्ञाओं का पालन था ही नहीं। फिर इस वार्तालाप के अंत की ओर जब प्रभु उससे अपनी सारी संपत्ति बेचकर कंगालों में वितरित करने और प्रभु के पीछे हो लेने को कहता है, तब वह व्यक्ति यह नहीं कर सका (मत्ती 19:21-22)। अर्थात, वह न तो परमेश्वर से अपने सारे तन-मन-धन से प्रेम करता था और न ही मनुष्यों से प्रेम करता था। मनुष्यों से संबंधों को सिखाने वाली आज्ञाओं के पालन के बावजूद, उस व्यक्ति में मनुष्यों के प्रति सच्चा प्रेम नहीं था। लेकिन उसके जीवन में सांसारिक लाभ और संपत्ति का लालच अवश्य था। जो दिखाता है कि वह संपूर्ण व्यवस्था का, सच्चे मन से, सही मनसा के साथ, पालन नहीं कर रहा था। इसी से प्रकट हो जाता है कि उसका “बचपन से आज्ञाओं को मानते चले आने” का दावा कितना खोखला था, एक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं था।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Harmful Effects of Formal Observation of the Law – 1
In the previous articles we have seen that although the observance of customs and traditions, or the celebration of festivals, or the offering of gifts and sacrifices were a part of God's Law given to the Israelites through Moses, but their mere ritualistic, formal observance actually is not actually observing the Law. As the Lord Jesus has said, observing the Law is the coming into and continuing in the right relationship with God and men, in the manner instructed by God. To be in, and to remain in the right relationship with God means to love Him with all your body, soul, and spirit, and your possessions as well; and to be completely committed to Him, to be obedient to Him. When man’s relationship with God is right, it will also manifest in building and maintaining the right relationship with fellow human beings. This is what fulfilling the Law actually means. Obviously, there is no place for any kind of formal observances in this. Formal observances can only occur if the Law is assumed to be the observance of customs and traditions, or the celebration of a festival, or the offering of gifts and sacrifices. In that case, these things are carried out according to the prescribed procedure at the appointed time, regardless of the individual’s faith or belief in them, qualitatively or quantitatively. We have also seen and understood that whether it were the people of the Old Testament or of the New Testament, whoever came into a proper relationship with God in His prescribed manner, also became acceptable to Him, and they all entered life, just as God had assured that they would. That is to say that by fulfilling the Law people did get the entry into life, as is stated in God’s Word.
But if instead of accepting and obeying the Law, i.e., God's instructions to come into and maintain the right relationship with God and humans, in its right form, if one only observes it through perfunctorily fulfilling customs and traditions, or celebrating festivals, or by offering gifts and sacrifices, and does not maintain a right attitude even with that, then it leads to restlessness and a lack of peace in his life. We see this illustrated through three examples from the New Testament in God's Word, the Bible; of these three, we will look at one example today, and the other two in the next article.
Two things are clear from the Lord's conversation with the Rich Young Ruler who had come to the Lord seeking eternal life (Matthew 19:16-22). Firstly, although, according to his self-assessment and his own standards, he had been following the Law since his childhood, yet he still felt a serious lack of something in his life. His question to the Lord, and also his response to the Lord’s answer, show that he well knew within himself that his "keeping the Law" had not made him acceptable to God; he was still far from eternal life. Secondly, it is evident from the instructions given to him by the Lord that his "keeping the Law" was neither complete, nor done with the right attitude. Take note, the commandments that the Lord Jesus speaks of to him in Matthew 19:18-19, they are all a part of the Ten Commandments. But there is no mention here of the first four commandments, which are about man's relationship with God. Moreover, even he did not bother to inform the Lord that not only had he been following the six commandments that were stated by the Lord, but had also followed those first four commandments that the Lord had not mentioned. A clear indication that there was no observance of these first four commandments in that person's life. Then, towards the end of this conversation, when the Lord asks him to sell all his possessions, distribute his wealth to the poor, and follow the Lord, the man could not do it (Matthew 19:21-22). In other words, he neither loved God with all his body, mind and possessions, nor did he love men enough to care for them. Though he claimed to have obeyed the commandments that taught about relationships with fellow humans, the man did not have true concern for his fellow humans. But a compelling desire for worldly gains and wealth was definitely there in his life. All these things show that, he was neither following the whole Law, nor whatever part he was following, was with sincerity, and the right attitude. This exposes the hollowness his claim of "keeping the commandments from childhood"; and makes it evident that his claim was nothing more than living to fulfil a formality.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.