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शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - पश्चाताप द्वारा जोड़े जाना

प्रभु यीशु की कलीसिया में जुड़ना - पश्चाताप को समझना  

हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर की अनन्तकालीन आशीषों और स्वर्गीय जीवन का संभागी होने का एकमात्र मार्ग है प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया का अंग, उसका सदस्य होना। प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया का अंग होने, उसमें जुड़ने की प्रक्रिया, कोई रहस्यमय या गुप्त बात नहीं है जो केवल कुछ विशिष्ट लोगों पर ही प्रकट की गई है, या जिसे हर किसी पर प्रकट नहीं किया जाता है। न ही यह किसी व्यक्ति अथवा संस्था या डिनॉमिनेशन आदि के द्वारा अपने लिए स्वतः ही निर्धारित कर लेने वाली कोई बात है। जिस प्रकार से परमेश्वर अपनी कलीसिया की हर बात के संबंध में बिलकुल निश्चित और सटीक है, हर बात को स्वयं निर्धारित करता है, उन बातों में किसी प्रकार के परिवर्तन या छेड़-छाड़ को स्वीकार नहीं करता है, उसी प्रकार से उसकी कलीसिया में सम्मिलित होने की भी परमेश्वर द्वारा एक निर्धारित प्रक्रिया है, जिसे उसने अपने वचन में सभी के लिए प्रकट कर दिया है। प्रभु की प्रथम कलीसिया की स्थापना के वृतांत, प्रेरितों 2 अध्याय में यह स्पष्ट वर्णित है। जिस रीति से वह प्रथम कलीसिया स्थापित हुई, और प्रभु द्वारा उसमें लोग जोड़े गए; उसी प्रकार से तब से लेकर आज तक भी, संसार के हर स्थान से, प्रभु यीशु के द्वारा उसकी कलीसिया के साथ लोग जोड़े जाते रहे हैं, और प्रभु के दूसरे आगमन तथा कलीसिया के उठाए जाने तक लोगों को कलीसिया में जोड़ते जाने के लिए उसी प्रक्रिया का निर्वाह होता रहेगा। 

पिछले लेख में हमने प्रेरितों 2 अध्याय से देखा था कि कोई अपने आप से प्रभु की कलीसिया में नहीं जुड़ सकता है, वरन प्रभु ही अपने लोगों को अपनी कलीसिया में जोड़ता है (प्रेरितों 2:47)। न तो जोड़े जाने वाले लोगों की भक्ति की, उनके द्वारा उनके धर्म के निर्वाह की, और न ही उन लोगों के परिवार या वंशावली की कलीसिया के साथ प्रभु की कलीसिया में जोड़े जाने में कोई भूमिका है। इस प्रक्रिया के दो पक्ष हैं - पहला प्रभु यीशु मसीह में पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार को लोगों तक पहुँचाने वाले, जन सामान्य को प्रभु के इस सुसमाचार के बारे में बताने वाले; और दूसरे वे लोग जो इस सुसमाचार को सुनकर, इसके प्रति स्वीकृति की, सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं। जो सच्चे मन से यह सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं, प्रभु की कलीसिया में जुड़ते हैं, उनके जीवनों में होने वाली सात बातें प्रेरितों 2:38-42 में लिखी गई हैं। इस प्रक्रिया का आरंभ पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से दिए गए सुसमाचार द्वारा लोगों के मनों कोछेदने”, या उन्हें उनके पापों के प्रति कायल करने और फिर उन कायल होने वालों में उनके पापों के समाधान की आवश्यकता के बोध के साथ होता है (2:37)। जो पवित्र आत्मा द्वारा सुसमाचार से पापों के लिए कायल किए जाते हैं, और पापों के समाधान के लिए कोई अपना अथवा किसी प्रकार का मानवीय या संस्थागत समाधान ढूँढने के स्थान पर परमेश्वर के समाधान के खोजी होते हैं, और उस समाधान को स्वीकार करते हैं, उसका पालन करते हैं, प्रभु की कलीसिया में उनके जुड़ने का कार्य पश्चाताप के साथ आरंभ होता है (2:38) 

प्रभु की कलीसिया के साथ किसी भी व्यक्ति के जुड़ने का आरंभ उस व्यक्ति द्वारा अपने पापों के लिए पश्चाताप करने के साथ होता है। इस विषय पर हम कुछ विस्तार से 7 जनवरी के लेख में देख चुके हैं। आज हम इस अति-महत्वपूर्ण शब्दपश्चातापयामन-फिराओको और उसके अभिप्राय को समझने का प्रयास करते हैं। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवादपश्चातापयामन-फिराओकिया गया है, उसका शब्दार्थ होता है पहले से बिलकुल भिन्न, उससे उलट सोच-विचार, मान्यताएं, और धारणाएं रखना। अर्थात, जिस बात के लिए पश्चाताप किया जाए, या जिसके विषय मन फिराया जाए, वह वास्तविक तब ही होगा जब व्यक्ति उन बातों के विषय अपना सोच-विचार-व्यवहार पूर्णतः बदल कर भिन्न कर ले, ऐसा कर ले जो पहले वाले के विपरीत हो। इसीलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वास में आने वाले व्यक्ति के लिए लिखवाया है, “सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17)। प्रकट है, बाइबल की परिभाषा के अनुसार किया गयापश्चातापयामन-फिरावएक औपचारिकता, मुँह से कुछ शब्दों का दोहरा देना, और फिर वापस उसी पहले वाली सोच-विचार-व्यवहार की स्थिति में लौट जाना नहीं है। यदि व्यक्ति द्वारा किया गया यहपश्चातापयामन-फिराववास्तविक होगा, तो उस व्यक्ति में दिखने वाली दो बातों के द्वारा प्रकट एवं प्रमाणित हो जाएगा:

  1. रोमियों 12:2 “और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहोसच्चापश्चातापयामन-फिरावकरने के बाद, फिर उस व्यक्ति में संसार के सदृश्य रहने, सोचने, व्यवहार करने आदि बातों के निर्वाह की प्रवृत्ति नहीं रहेगी। उसका चाल-चलन बदल जाएगा, और निरंतर बदलता चला जाएगा। अब वह हर बात में परमेश्वर की इच्छा जानने और मानने वाला हो जाएगा, और इसी पथ पर अग्रसर बना रहेगा। यह एक आजीवन चलती रहने वाली प्रक्रिया है - परमेश्वर पवित्र आत्मा व्यक्ति को उसके पापों के विषय कायल करता रहता है, और व्यक्ति विनम्र एवं आज्ञाकारी होकर न पापों के लिए पश्चाताप के साथ अपने मसीही जीवन एवं चाल-चलन को सुधारता रहता है। इस प्रक्रिया का प्रभाव होता है कि व्यक्ति अंश-अंश करके प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप में ढलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18; रोमियों 8:29)। सच्चे पश्चाताप का यह प्रथम प्रत्यक्ष एवं सर्व-विदित प्रभाव है, जिसके लिए किसी को दावा करने की आवश्यकता ही नहीं है; उसका बदला हुआ जीवन स्वयं ही उसके अंदर आए परिवर्तन को बताता है। 
  2. 2 कुरिन्थियों 7:10 “क्योंकि परमेश्वर-भक्ति का शोक ऐसा पश्चाताप उत्पन्न करता है जिस का परिणाम उद्धार है और फिर उस से पछताना नहीं पड़ता: परन्तु संसारी शोक मृत्यु उत्पन्न करता हैवास्तविक पश्चाताप या मन-फिराव, व्यक्ति के मन में परमेश्वर के सम्मुख उसके पापमय व्यवहार के लिए एक गहरा और गंभीर शोक भी उत्पन्न करता है। यह केवल दिखावे का या औपचारिकता का शोक नहीं है, इस शोक में परमेश्वर भक्ति भी सम्मिलित रहती है। अर्थात, सच्चा पश्चाताप व्यक्ति को संसार के लगाव से निकालकर संसार के प्रति अलगाव और परमेश्वर के प्रति लगाव की ओर ले जाता है। यह एक बड़ी स्वाभाविक बात है कि जिसने संसार और सांसारिकता की बातों के लिए सच्चा पश्चाताप किया है, अर्थात उस सोच-विचार-व्यवहार को वास्तव में छोड़ दिया है, उससे पलट गया है, वह उसी  सोच-विचार-व्यवहार में लिप्त कैसे रहेगा? अगर वह अभी भी लिप्त है, तो उसने उस सोच-विचार-व्यवहार के लिए वास्तविक पश्चाताप किया ही नहीं है। यही वह बनावटी या सांसारिक शोक है जिसके लिए इस पद में लिखा है कि वह मृत्यु उत्पन्न करता है; क्योंकि व्यक्ति शब्दों की औपचारिकता के निर्वाह के द्वारा यही सोचता रहता है कि उसनेवैधानिक”, या परंपरागत आवश्यकता को पूरा कर लिया है, और अब उसकी दशा ठीक और स्वीकार्य है, जबकि ऐसा होता नहीं है। अन्ततः जब तक उसे अपने उस औपचारिक पश्चाताप की वास्तविकता एवं व्यर्थता समझ में आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और व्यक्ति अनन्त विनाश में चला जाता है।

प्रभु यीशु की कलीसिया के साथ जुड़ना सच्चे पश्चाताप के साथ आरंभ होता है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण पश्चाताप करने वाले उस व्यक्ति के जीवन में आया पूर्ण परिवर्तन, पश्चातापी जीवन, तथा अंश-अंश करके प्रभु यीशु के स्वरूप में ढलते चले जाना और पापमय जीवन एवं व्यवहार के लिए शोक में तथा ईश्वरीय भक्ति में बढ़ते चले जाना होता है। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु यीशु की कलीसिया में अपने सम्मिलित होने को भली-भांति सुनिश्चित कर लीजिए। अपने जीवन को जाँच-परख कर देख लीजिए कि आप में उपरोक्त सच्चे पश्चाताप या मन-फिराव के गुण और प्रमाण विद्यमान हैं कि नहीं? यदि लेशमात्र भी संदेह हो, तो अभी समय और अवसर रहते स्थिति को ठीक कर लीजिए। कहीं थोड़ी सी लापरवाही, बात को गंभीरता से न लेना, अनन्तकाल की पीड़ा न बन जाए। 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 1-3     
  • मत्ती 14:1-21