भ्रामक शिक्षाओं के
स्वरूप - सुसमाचार संबंधित गलत शिक्षाएं (1) - परिचय
हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि
बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता
से भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं (इफिसियों 4:14)। इन भ्रामक
शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक,
और ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं
(2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग,
और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक,
रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ
तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु
साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं।
जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2
कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि
कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे,
जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले;
जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार
जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”,
इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः
तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई
को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है,
कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने,
जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने
के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।
पिछले लेखों
में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, पहले तो प्रभु
यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखा; फिर
उसके बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई
और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखा है, जो संक्षिप्त में निम्नलिखित थीं:
- किसी
को भी पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए कोई विशेष प्रयास या प्रार्थना करने
की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि परमेश्वर के वचन के अनुसार, प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या
उद्धार पाते ही, तुरंत उसके
उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके
अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है,
उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; इसलिए पवित्र आत्मा
प्राप्त करने के लिए अलग से प्रयास करने की शिक्षा गलत है।
- और
इसी को पवित्र आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी
कहते हैं। वचन
स्पष्ट है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या
अतिरिक्त अनुभव नहीं है, वरन उद्धार के साथ ही सच्चे
मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है।
· प्रेरितों 2 अध्याय में जो अन्य भाषाएं बोली गईं, वे पृथ्वी ही
की भाषाएं और उनकी बोलियाँ थीं; कोई अलौकिक भाषा नहीं।
· उन लोगों के द्वारा “अन्य-भाषाओं” को अलौकिक भाषाएं बताना, और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के द्वारा इससे संबंधित कई और गलत
शिक्षाओं को सिखाने के बारे में भी हम देख चुके हैं कि यह भी एक ऐसी गलत शिक्षा है
जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है।
- हमने
यह भी देखा था कि वचन में इस शिक्षा का भी कोई आधार या समर्थन नहीं है कि “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं।
- हमने
यह भी देखा था कि उन लोगों के सभी दावों के विपरीत,
- न तो प्रेरितों 2:3-11
में प्रभु के शिष्यों द्वारा अन्य-भाषाओं में बोलना कोई
“सुनने” का आश्चर्यकर्म था,
- न ही अन्य भाषाएं प्रार्थना करने की गुप्त भाषाएँ हैं,
- और न ही ये पृथ्वी के अन्य स्थानों की भाषाएं किसी को भी यूं ही दे दी जाती हैं, जब तक कि व्यक्ति की उस स्थान
पर सेवकाई न हो, जहाँ की भाषा बोलने की सामर्थ्य उसे
प्रदान की गई है।
- “अन्य-भाषाएं” बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त
करने का प्रमाण है, के भी झूठ होने और परमेश्वर के वचन
के दुरुपयोग पर आधारित होने को हमने देखा है।
- व्यक्ति “अन्य-भाषा” बोलने के द्वारा सीधे परमेश्वर से बात करता है, इसके तथा कुछ संबंधित और बहुत महत्वपूर्ण बातों के बारे में हम देख
चुके हैं कि उनका यह दावा भी वचन की कसौटी पर बिलकुल गलत है, अस्वीकार्य है।
सुसमाचार से संबंधित
गलत शिक्षाएं
आज हम 2 कुरिन्थियों 11:4
में गलत शिक्षाओं के तीसरे विषय, सुसमाचार से संबंधित गलत शिक्षाओं
पर विचार आरंभ करेंगे। हम पहले इस विषय का परिचय लेंगे, फिर
देखेंगे कि सुसमाचार क्या है; क्योंकि जब तक किसी भी बात के
“असली” या “वास्तविकता”
की जानकारी और पहचान नहीं होगी, तब तक उसके
“नकली” या “अवास्तविक”
को जानना और पहचानना कठिन होगा। और फिर देखेंगे कि कैसे शैतान उसे
बिगाड़ता है, भ्रष्ट करता है, अप्रभावी
करता है, और फिर वचन से सही और गलत सुसमाचार को पहचानने और
उनमें भिन्नता करने की बातों को देखेंगे।
सुसमाचार का परिचय
जैसा कि शब्द “सुसमाचार” से ही प्रकट है, इसका शब्दार्थ है भला समाचार या
अच्छी खबर, जो
मूल यूनानी भाषा में प्रयोग किए गए शब्द के अनुरूप ही है; अर्थात
यह एक भला या अच्छा समाचार है, जानकारी है। तात्पर्य यह कि
सुसमाचार लोगों के पास किसी बात के बारे में अच्छा समाचार पहुंचाता है। उन तक
पहुंचाए गए उस समाचार या जानकारी को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना, प्रत्येक सुनने वाले का अपना निर्णय है। इससे प्रश्न उठता है कि यह
जानकारी या समाचार किस बात के विषय है और इसे भला क्यों कहते हैं? परमेश्वर के वचन बाइबल में “सुसमाचार” शब्द का किया गया प्रथम प्रयोग इसके विषय हमें बताता है: “और यीशु सारे गलील में फिरता हुआ उन की सभाओं में उपदेश करता और राज्य का
सुसमाचार प्रचार करता, और लोगों की हर प्रकार की बीमारी और दुर्बलता
को दूर करता रहा” (मत्ती 4:23)। यह
बात प्रभु यीशु द्वारा उनकी पृथ्वी की सेवकाई आरंभ करने के समय कही गई है; अर्थात
प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई का आरंभ उपदेश करने,
राज्य के सुसमाचार का लोगों की सभाओं में प्रचार करने, तथा लोगों को बीमारियों और दुर्बलताओं से चंगा करने के साथ किया। यहाँ पर प्रभु की इस बात में ध्यान देने योग्य दो महत्वपूर्ण बातें
हैं -
(1) पहली बात, इस पद के अनुसार प्रभु यीशु ने तीन कार्य
किए - उपदेश दिया, सुसमाचार
का प्रचार किया, और लोगों को उनकी बीमारियों और दुर्बलताओं
से चंगा किया। अर्थात, सुसमाचार में, और
उपदेश देने में तथा लोगों को बीमारियों से चंगा करने में अन्तर है; तीनों एक ही नहीं हैं; प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई के
आरंभ से ही इन तीनों अलग-अलग कार्यों को किया। आज यह गलत धारणा लोगों में फैली हुई
है कि इन तीनों में से किसी एक का किया जाना, शेष दोनों को
भी किए जाने के बराबर है; जो सही नहीं है। हम पहले भी देख
चुके हैं कि इफिसियों 4:11 के अनुसार कलीसिया के कार्यों के
लिए उपदेश देना प्रभु द्वारा स्थापित की गई एक पृथक सेवकाई है, और सुसमाचार प्रचार करना एक भिन्न सेवकाई है। साथ ही, 1 कुरिन्थियों 12:9 के अनुसार चंगा करना परमेश्वर
पवित्र आत्मा का एक वरदान है, जो अन्य वरदानों के समान
पवित्र आत्मा के द्वारा, उसकी इच्छा के अनुसार, किसी किसी को दिया जाता है, सभी को एक ही वरदान नहीं
दिए जाते हैं। क्योंकि ये तीनों, उपदेश देना, सुसमाचार प्रचार करना, और चंगा करना अलग-अलग सेवाकाइयाँ
हैं, इसलिए इनमें से किसी एक पर अत्यधिक ज़ोर देना, और शेष की अनदेखी करना उचित नहीं है।
प्रभु यीशु ने
जब अपने शिष्यों को उनकी पहली प्रचार सेवकाई के लिए भेजा था, तब भी उन से इन तीनों कार्यों को करने के लिए कहा था: “फिर उसने अपने बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें
अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया, कि उन्हें निकालें और सब
प्रकार की बीमारियों और सब प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें।” “और चलते चलते प्रचार कर कहो कि स्वर्ग का
राज्य निकट आ गया है। बीमारों को चंगा करो: मरे हुओं को जिलाओ: कोढिय़ों को शुद्ध
करो: दुष्टात्माओं को निकालो: तुम ने सेंतमेंत पाया है, सेंतमेंत
दो” (मत्ती 10:1,7-8)। और अपनी
अंतिम महान आज्ञा में भी इन तीनों कार्यों को करने के लिए ही कहा, “इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता
और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने
तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं।” (मत्ती 28:19-20); “और
उसने उन से कहा, तुम सारे जगत में जा कर सारी सृष्टि के
लोगों को सुसमाचार प्रचार करो। जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार
होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा। और
विश्वास करने वालों में ये चिन्ह होंगे कि वे मेरे नाम से दुष्टात्माओं को
निकालेंगे। नई नई भाषा बोलेंगे, सांपों को उठा लेंगे,
और यदि वे नाशक वस्तु भी पी जाएं तौभी उन की कुछ हानि न होगी,
वे बीमारों पर हाथ रखेंगे, और वे
चंगे हो जाएंगे” (मरकुस 16:15-18)। और फिर प्रेरितों के कार्य में भी, जो पहली
कलीसिया के आरंभ और कार्यों का इतिहास है, हम प्रभु के
शिष्यों और प्रेरितों को यही तीनों कार्य करते हुए देखते हैं।
आज की परेशानी यह है कि कुछ लोग केवल
चंगाइयों पर ही इतना ज़ोर देते हैं कि वही उनके प्रचार और सेवकाई का मुख्य विषय बना रहता है। वे चंगाई पाने को लालच के समान
प्रयोग करके लोगों को आकर्षित करने के प्रयास करते हैं, और
इस चंगाई के अतिरिक्त वे लोगों द्वारा पापों से क्षमा और उद्धार पाने, तथा परमेश्वर के वचन की
समझ और उसके जीवनों में व्यवहारिक प्रयोग के बारे में या तो सिखाते ही नहीं है,
या फिर उस पर बहुत कम बल देते हैं। ये लोग इस बात की अनदेखी कर देते
हैं कि शारीरिक चंगाई से कहीं अधिक महत्वपूर्ण आत्मिक चंगाई है, क्योंकि हर चंगाई पाने के बाद भी शरीर ने अन्ततः मर ही जाना है, नाश होना ही है। किन्तु यदि आत्मा की चंगाई नहीं मिली, तो आत्मा नरक में जाएगी, और सारी शारीरिक चंगाई किसी
काम की नहीं रहेगी। इसलिए प्राथमिकता आत्मिक चंगाई की या उद्धार पाने की है,
शारीरिक चंगाई उसके बाद है, और इस क्रम को
बनाए रखना है। इन तीनों सेवकाइयों में वचन की शिक्षा या उपदेश, सुसमाचार प्रचार, और चंगाई में संतुलन और उचित
प्राथमिकता को बनाए रखना है। साथ ही कुछ लोगों ने चंगाई देने को अपनी
प्रसिद्धि का, कमाई करने की साधन बना लिया है; चंगे के दावों के द्वारा वे सांसारिक लाभ और ख्याति पाने के प्रयासों में
रहते हैं।
(2) दूसरी बात, सुसमाचार एक राज्य के बारे में है, किसी व्यक्ति, धारणा, धर्म, रीति-रिवाज़,
या परंपरा के बारे में नहीं है। प्रभु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई का आरंभ
सुसमाचार प्रचार के साथ किया, और अपने उस उदाहरण के द्वारा हमें उस सुसमाचार प्रचार का स्वरूप
प्रदान किया: “उस
समय से यीशु प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, कि मन फिराओ
क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है” (मत्ती 4:17)। यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु द्वारा किए जाने वाले प्रचार या उपदेश का विषय
था “... मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है”;
और यही सुसमाचार का स्वरूप है। और यह इसीलिए सुसमाचार या अच्छी खबर
है क्योंकि यह शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली इस नाशमान पृथ्वी और उसकी सभी नाशमान
बातों से बचाए जाकर, अविनाशी परमेश्वर के अनन्तकालीन राज्य
और उसकी अनन्त आशीषों में प्रवेश प्राप्त करने तथा सदा काल तक उसके साथ रहने के
बारे में है (1 यूहन्ना 2:15-17)।
सुसमाचार इस पृथ्वी पर किसी राज्य, या किसी शारीरिक उपलब्धि,
या भौतिक संपत्ति अथवा संपन्नता के बारे में नहीं है। वह परमेश्वर
के राज्य के बारे में है, जो निकट आ गया है, स्थापित होने वाला है; और जो कोई उसमें प्रवेश चाहता
है, उसके प्रवेश पाने का पहला कदम पापों से पश्चाताप करना
है। किसी भी व्यक्ति द्वारा बिना पापों से पश्चाताप किए सुसमाचार में कोई प्रगति
या स्वीकृति नहीं है।
ध्यान करें कि प्रभु यीशु ने यह
प्रचार यहूदियों, यानि कि परमेश्वर की चुनी हुई प्रजा के लोगों के, जो
पीढ़ियों से परमेश्वर की व्यवस्था, अपने धर्म की रीतियों,
पर्वों, भेंटों, बलिदानों,
आदि का पालन करते थे, मध्य में करना आरंभ
किया। इसी से प्रकट है कि पश्चाताप करना सभी के लिए है, चाहे
वे “प्रभु परमेश्वर के लोग” अर्थात ईसाई
या मसीही ही क्यों न हों, जो चाहे कितनी भी पीढ़ियों से अपने
धर्म की मान्यताओं, परंपराओं, और
रीति-रिवाजों को मानते-मनाते चले आ रहे हों। परमेश्वर के
राज्य में प्रवेश उन्हें केवल पश्चाताप से आरंभ करने के द्वारा ही प्राप्त होगा,
किसी भी अन्य बात के आधार पर नहीं। साथ ही यह भी साधारण और स्पष्ट
बात है कि पश्चाताप हमेशा ही हर व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रीति से अपने ही
पापों के लिए किया जाता है। माता-पिता या पूर्वजों का किया गया पश्चाताप उनकी
संतानों के लिए कार्यकारी नहीं होता है; और न ही परिवार के
किसी सदस्य का उद्धार पाना और परमेश्वर की निकटता में बढ़ना, परिवार
के अन्य सदस्यों को उद्धार प्रदान करता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना
और समझना अति-आवश्यक है कि आप प्रभु परमेश्वर के सुसमाचार से संबंधित किसी
गलत शिक्षाओं में न पड़े हों या पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके
द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें, और
लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि आप इन गलत
शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को
जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के
पालन को अपना लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- गिनती
31-33
- मरकुस 9:1-29