मसीही विश्वास - गणित का समीकरण?
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कल हमने मसीही विश्वास के स्थान पर मसीही धर्म या ईसाई धर्म के मानने वालों तथा उस धर्म की बातों को पूरा करने वालों में विद्यमान एक धारणा के बारे में देखा था - परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए गणित के एक समीकरण के समान धारणा रखना। इस “समीकरण” वाली धारणा रखने वाले लोग यह विचार रखते हैं कि यदि कोई प्रभाव जीवन में कुछ गुण लाता है, तो फिर किसी के जीवन में उन गुणों का होना इस बात का प्रमाण है कि वे उस प्रभाव के कारण ही हैं। जबकि यह सत्य नहीं है। इसे यदि एक बहुत सहज और सामान्य उदाहरण से समझें, दूध एक सफेद तरल पदार्थ है; किन्तु हम भली-भांति जानते हैं कि हर सफेद तरल पदार्थ न तो दूध होता है और न दूध के समान प्रयोग किया जा सकता है; और साथ ही यह भी जानते हैं कि दूध के समान दिखने वाले “नकली दूध” भी बाजार में मिल जाते हैं, किन्तु वे हानिकारक होते हैं, दूध के समान पौष्टिक भोजन वस्तु नहीं। ऐसा नहीं है कि मसीही या ईसाई धर्म में आस्था रखने वाले परमेश्वर से प्रेम नहीं करते, या प्रभु परमेश्वर के विरुद्ध हैं; वास्तविकता तो यही है कि वे भी अपनी ही रीति और विधि के अंतर्गत प्रभु परमेश्वर को चाहते हैं, उसे पूरा आदर और जीवन में उच्च स्थान देना चाहते हैं, किन्तु उनका यह प्रयास परमेश्वर के वचन से संगत नहीं है, इसलिए अपूर्ण और निष्फल है। इन लोगों के लिए पौलुस प्रेरित द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में भक्त इस्राएलियों के लिए लिखी गई बात पूरी होती है, “हे भाइयो, मेरे मन की अभिलाषा और उन के लिये परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है, कि वे उद्धार पाएं। क्योंकि मैं उन की गवाही देता हूं, कि उन को परमेश्वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं। क्योंकि वे परमेश्वर की धामिर्कता से अनजान हो कर, और अपनी धामिर्कता स्थापन करने का यत्न कर के, परमेश्वर की धामिर्कता के आधीन न हुए” (रोमियों 10:1-3)।
अपनी इसी धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की
धार्मिकता की धारणा के अंतर्गत, वे यही मानते हैं कि कुछ विधि-विधान पूरे कर देने, कुछ त्यौहारों, विशेष दिनों, और
रस्मों को निभा लेने, और मसीही विश्वासियों के समान कुछ
बातों का पालन कर लेने से वे भी मसीही विश्वासी ही हो जाते हैं। पतरस प्रेरित ने
पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के बाद जब यरूशलेम में एकत्रित भक्त यहूदियों
के सामने पहला सुसमाचार प्रचार किया (प्रेरितों 2 अध्याय) तो
उन यहूदियों में से लगभग 3000 ने प्रभु यीशु मसीह को अपना
उद्धारकर्ता ग्रहण किया और प्रभु के शिष्यों के समूह में सम्मिलित हो गए (पद 41)। यही प्रथम कलीसिया, या चर्च अथवा मण्डली का आरंभ
था। इससे अगला पद (पद 42) बताता है कि इस प्रथम मण्डली के
लोग चार बातों में ‘लौलीन रहते थे’, “और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने [परमेश्वर के वचन के अध्ययन और शिक्षा], और संगति
रखने [विश्वासी लोगों के साथ एकत्रित होते रहने ] में
और रोटी तोड़ने [प्रभु भोज में भाग लेते रहने] में
और प्रार्थना करने [साथ मिलकर परमेश्वर से संगति
और निवेदन करने] में लौलीन रहे।” अब इन्हीं
चार बातों का पालन मसीही या ईसाई धर्म के लोग भी करते हैं, किन्तु
न तो वे इनमें लौलीन रहते हैं, और न ही उस प्रकार से करते
हैं जिस प्रकार से वचन में सिखाया और दिखाया गया है, वरन
धर्म का पालन करने वाले अधिकांश लोगों के लिए ये चारों बातें कुछ निर्धारित दिनों
में एक रस्म के समान निभाने के लिए हैं, जिनका निर्वाह करके वे मानते हैं कि
उन्होंने भी मसीही विश्वासियों के समान वचन की शिक्षा को पूरा कर लिया है, इसलिए वे भी मसीही विश्वासियों से भिन्न नहीं हैं। किन्तु वो इस आधारभूत
तथ्य की अनदेखी कर बैठते हैं कि मसीही विश्वासी पहले स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने
पापों से पश्चाताप करता है, प्रभु यीशु से उनके लिए क्षमा
माँगता है, अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करके उनका शिष्य
बनता है, और फिर प्रभु की अगुवाई में, प्रभु
के सिखाए, वह इन बातों में ‘लौलीन’
रहता है, इनका पालन करके इनके दर्शनों में बढ़ता और मसीही
जीवन में परिपक्व होता जाता है।
इन बातों के पालन से
संबंधित परमेश्वर के वचन बाइबल की कुछ शिक्षाओं को हम अगले लेख में आगे देखेंगे।
किन्तु यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं
किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी
रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और
उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को
सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा
माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता
में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको
स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है,
और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना
और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं
आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को
अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही,
गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन
जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे
पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता
हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके
वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को,
अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- यशायाह
26-27
- फिलिप्पियों 2