व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 19
व्यवस्था की क्षमताएँ और अक्षमताएँ (भाग 2)
रोमियों 7:5 में हमें व्यवस्था की दूसरी सीमा देखने को मिलती है, “क्योंकि जब हम शारीरिक थे, तो पापों की अभिलाषाएं जो व्यवस्था के द्वारा थीं, मृत्यु का फल उत्पन्न करने के लिये हमारे अंगों में काम करती थीं” (रोमियों 7:5)। व्यवस्था मनुष्य में पाप करने की अभिलाषाएं उत्पन्न करती है; यह कैसी विडंबना की बात है कि वही जो पाप के कारण दी गई, उसी के द्वारा पाप करने की भावना उत्पन्न होती है! ध्यान कीजिए, व्यवस्था पाप नहीं करवाती है, पाप से संबंधित बातों के लिए अभिलाषा जागृत तो करती है, लेकिन यह नहीं लिखा है कि पाप के लिए विवश करती है। अर्थात, उन अभिलाषाओं के जागृत होने पर भी, मनुष्य के पास अवसर होता है कि उस अभिलाषा को दबा दे, उससे मुँह फेर ले, उस स्थान से भाग जाए (1 तीमुथियुस 6:11; 2 तीमुथियुस 2:22)। क्योंकि अभिलाषा अपने आप में पाप नहीं है, लेकिन पाप में गिरने की दहलीज़ है - दहलीज़ लांघी, तो पाप में गिरे (याकूब 1:14-15)। जैसे ही कोई अनुचित अभिलाषा की चिंगारी मन में उत्पन्न होती है, शैतान तुरंत ही उसे हवा देकर विनाशक लपटों में परिवर्तित करने के प्रयास करने लगता है। उन अभिलाषाओं से संबंधित अनुचित व्यवहार की ओर उकसाता है। और यदि व्यक्ति परमेश्वर के वचन और आज्ञाओं को स्मरण करते हुए सचेत होकर पीछे न हटे, उसकी बातों का प्रतिरोध न करे, तो शैतान उसे पाप करने के लिए उकसा कर, उससे पाप करवा देता है।
यही आदम और हव्वा के द्वारा किए गए संसार के पहले पाप के साथ हुआ। परमेश्वर ने उन्हें एक आज्ञा की ‘व्यवस्था’ दी थी - अन्य सभी पेड़ों के फलों को खा लेना किन्तु भले और बुरे के ज्ञान के वृक्ष के फल को मत खाना (उत्पत्ति 2:16-17)। इस एक आज्ञा की ‘व्यवस्था’ ने हव्वा के मन में अभिलाषा उत्पन्न की, और वह उस वर्जित पेड़ तथा उसके फल के निकट, उन्हें निहारती हुई पाई गई। शैतान को अनुचित अभिलाषा की चिंगारी दिखी, और उसने हव्वा के मन में और भी अधिक उत्तम प्राप्त करने का लालच, और साथ ही में उसने परमेश्वर द्वारा उन दोनों से कुछ अच्छा बचाए रखने का संदेह भी डाल दिया (उत्पत्ति 3:4-5)। इस समय भी यदि हव्वा स्वयं उसी के द्वारा शैतान से कही गई परमेश्वर की आज्ञा पर ध्यान कर लेती और उस आज्ञा के निर्वाह के प्रति दृढ़ होकर वहाँ से हट जाती, या आदम को बुलाकर उसके साथ बात कर लेती, तो पाप में नहीं पड़ती। किन्तु उसने परमेश्वर की व्यवस्था, उसकी आज्ञा का नहीं, अपितु, अपनी भावनाओं, अपनी अभिलाषाओं, और अपने शरीर की बातों का पालन किया भी और आदम से भी करवाया भी (उत्पत्ति 3:6); और पाप को मनुष्य जाति में प्रवेश मिल गया।
आज भी यह बहुत आम देखने में आता है कि यदि किसी स्थान पर लिखा होगा “घास पर चलना मना है” तो वहीं से ही लोग घास पर चलना आरंभ करेंगे। यदि लिखा होगा “फूल तोड़ना मन है” तो फूल तोड़ने का प्रयास अवश्य करेंगे। यदि लिखा होगा “थूकना मना है” या “गंदगी न फैलाएं” तो वहीं पर थूकेंगे, उसी स्थान पर कूड़ा डालेंगे और गंदगी फैलाएंगे। अर्थात व्यवस्था या नियमों का किसी प्रकार से उल्लंघन करने पर विचार करने, उस अभिलाषा को मन में पालने की मनुष्य की प्रवृत्ति का दुरुपयोग करके, शैतान मनुष्य से उल्लंघन करवा ही देता है। किन्तु यदि व्यक्ति नियम की बात का पालन कर ले, उससे संबंधित अनुचित अभिलाषा को मन में आने ही नहीं दे, या फिर तुरंत उस अनुचित अभिलाषा को दबा कर, उस स्थान या स्थिति से हट जाए, तो फिर शैतान के पास उस अभिलाषा की चिंगारी को पाप की विनाशक लपट बनाने के लिए अवसर ही नहीं रहता है; मनुष्य पाप से बच जाता है।
अगले लेख में हम रोमियों 7 अध्याय पर विचार ज़ारी रखते हुए व्यवस्था की सीमाओं और बातों के बारे में आगे देखेंगे। किन्तु अभी के लिए, यह अवसर है कि हम, विशेषकर वे जो अपने आप को मसीही विश्वासी कहते या समझते हैं, अपने जीवनों में गहराई और बारीकी से जाँच कर देखें और अपनी वास्तविक स्थित को पहचानें। हम देखें कि किन बातों में हम परमेश्वर की दृष्टि में अनुचित अभिलाषाओं में पड़कर, पाप करने की प्रवृत्ति में पड़े हुए हैं। अपनी इन अनुचित अभिलाषाओं के कारण कहाँ-कहाँ हमने शैतान को अपने जीवनों में अवसर दिया हुआ है, और पहचानें कि उसने कैसे हमें ही हमारी हानि के लिए प्रयोग किया है, हम से पाप करवाए हैं। और जैसा पिछले लेख में देखा है, उन पापों के लिए किसी ‘व्यवस्था’ या विधि-विधानों का पालन करने में पड़ने की बजाए, 1 यूहन्ना 1:9 के अनुसार पश्चाताप करके परमेश्वर से उनके लिए क्षमा माँग लें; परमेश्वर के साथ अपने संबंधों को बहाल कर लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Why The Law Cannot Save Us – 19
Law’s Capabilities & Incapabilities (Part 2)
In Romans 7:5 we see a second limitation of the Law, "For when we were in the flesh, the sinful passions which were aroused by the law were at work in our members to bear fruit to death" (Romans 7: 5). The Law arouses in man desires to sin; how ironic, that the desire to sin arises out of that which is given because of sin! Please understand, the Law does not cause a person to sin, though it arouses the desires for things related to sin, but it is not written that it compels a person to sin. In other words, even after the sinful tendencies get aroused, man still has the opportunity to suppress them, turn away from them, instead of lingering there, to run away from that place and situation (1 Timothy 6:11; 2 Timothy 2:22). Having a desire is not sin in itself, but it certainly is the threshold to falling into sin - if you cross the threshold, you definitely will fall into sin (James 1:14-15). As soon as a spark of an unreasonable desire arises in man’s mind, Satan immediately begins trying to fan it and turn it into destructive flames of sin. Satan incites man into inappropriate behavior related to those desires. And if a person does not consciously back away from the situation, by remembering and recalling God's Word and commandments, does not resist Satan’s words, then Satan by continually inciting or seducing him, causes him to sin.
The same thing happened with the first sin in the world committed by Adam and Eve. God had given them a 'Law' of a single commandment - to eat the fruit of all the other trees but not eat the fruit of the tree of the knowledge of good and evil (Genesis 2:16-17). This 'Law', this one commandment, aroused desires in Eve's heart, and she was found near the forbidden tree and its fruit, admiring them. Satan saw a spark of inappropriate desire, and aroused in Eve the temptation to get something better, and he also created a suspicion that God has held back something good from them (Genesis 3:4–5). Even at this time, if Eve herself had heeded God's command that she recalled to Satan and, deciding to obey that command, had moved away from that place, had broken off conversing with Satan, or called Adam and spoke with him about it, she would not have fallen into sin. But she disobeyed God's Law, His command given to them, by deciding to go by her feelings, her desires, and the things of her flesh, and also got Adam to do the same (Genesis 3:6); consequently, sin found its way into the human race.
Even today it is very common to see that if it is written at some place "It is forbidden to walk on the grass", then from there itself people start to walk on the grass. If it is written “Plucking flowers is not allowed" then they will definitely try to pluck flowers. If it is written “Spitting is prohibited” or “Do not throw garbage”, then they will spit there, throw garbage at the very same place and spread filth. That is to say that, Satan makes man violate the Law, or the rules, and commit sin by provoking the human tendency to violate the laws or the rules in some way; he acts by continuing to stoke the inappropriate desire in the human mind. But if a person is diligent to obey the rules, does not allow the unreasonable desire to stay in his mind, immediately suppresses those unreasonable desires, and moves away from that place or situation, then there remains no opportunity for Satan to fan the spark of those desires and blow them up into destructive flames of sin; and man is saved from committing sin.
In the next article, we'll look further at the limitations and other things related to the Law, through continuing to consider Romans chapter 7. But for now, this is an opportunity for us, especially those of us who call or consider ourselves Christians, to look deeper and more closely into our lives and identify our true standing. Let us examine and find out in what ways we are inclined to sin, by succumbing to desires that are unreasonable and inappropriate in the sight of God. Let us figure out, because of our inappropriate desires, where all have we have given Satan the opportunity to act in our lives, and also recognize how he has used us for our own harm, has made us sin. And, as seen in the previous article, instead of trying to rectify the situation by obeying some 'law' or certain ordinances, for those sins, we should repent according to 1 John 1:9 and ask God for their forgiveness; and thereby store our relationship with God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.