Click Here for the English Translation
1 तीमुथियुस 2:15, बच्चे जनने से उद्धार पाने को समझना - भाग (1)
प्रश्न: 1 तीमुथियुस 2:15 में जो लिखा है कि स्त्री बच्चे जनने से उद्धार पाएगी; इस वचन का सही अर्थ क्या है?
उत्तर:
इस पद की बात ने बहुत से लोगों को असमंजस में रखा हुआ है, और बाइबल की अनेकों व्याख्याओं तथा टिप्पणियों में इसके विभिन्न उत्तर हैं, इसे कई प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया गया है। प्रार्थनाओं के द्वारा परमेश्वर ने जो मुझे अपने वचन तथा अपने कुछ सेवकों की व्याख्याओं के माध्यम से समझ प्रदान की है, उसे आपके सामने रख रहा हूँ; आशा है यह उत्तर आपको स्वीकार्य होगा। इसे समझने के लिए पहले कुछ अन्य संबंधित बातों को देखना और समझना होगा, तभी, सभी के तालमेल के साथ इसे ठीक से समझा जा सकेगा।
पहली बात, बच्चा जनने के द्वारा ‘उद्धार’ वह आत्मिक उद्धार नहीं है जो रोमियों 10:9-13 में तथा परमेश्वर के वचन में अन्य स्थानों लिखा है। यह सामान्य जानकारी है कि प्रत्येक बच्चा जनने वाली स्त्री आत्मिक उद्धार पाई हुई नहीं होती है; और प्रत्येक आत्मिक उद्धार पाई हुई स्त्री ने बच्चा भी जना हो, यह भी अनिवार्य नहीं है। हिन्दी में ‘उद्धार’ और अंग्रजी में अधिकांश अनुवादों में ‘saved’ के प्रयोग के कारण ही इस पद का यह असमंजस और समझने में कठिनाई है। मूल यूनानी भाषा में जो शब्द यहाँ पर प्रयोग किया गया है वह है “सोद्जो” जिसका सामान्यतः अर्थ होता है ‘बचना’ या ‘उद्धार’; किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल में केवल यही इस शब्द का अर्थ नहीं है। परमेश्वर के वचन में इसके अन्य अर्थ और प्रयोग भी किए गए हैं, उदाहरण के लिए:
· मत्ती 9:21, लूका 8:50 और प्रेरितों 4:9 में इसी शब्द का अनुवाद और प्रयोग ठीक या बहाल होना या चंगा होने के अभिप्राय से किया गया है।
· मत्ती 27:40 में इसे सुरक्षा या विकट परिस्थिति से छुड़ा लेने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।
· मरकुस 5:23 में इसे चंगाई मिलने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।
· 2 तिमुथियुस 4:18 में इसे सुरक्षित रखे जाने के अभिप्राय से अनुवाद और प्रयोग किया गया है।
(उपरोक्त उदाहरण हिन्दी अनुवाद में उतने स्पष्ट नहीं हैं जितने अंग्रजी में; इसलिए यदि आप इन्हें किसी अंग्रेज़ी अनुवाद – जैसे कि KJV या NKJV आदि के साथ देखें तो अधिक अच्छे से समझ में आएगा।)
कहने का अर्थ यह है कि जिस “उद्धार” की यहाँ पर, 1 तीमुथियुस 2:15, में बात की गई है, वह आत्मिक उद्धार नहीं, वरन किसी अन्य स्थिति से बचाया जाना, या सुरक्षित किया जाना, या उससे निकालकर बहाल करना, या उभारना है। इसलिए अब यह देखना होगा कि यह क्या स्थिति है जिसके बारे में यहाँ बात की जा रही है। इसे दो बातों से देखा तथा समझा जा सकता है – एक, उत्पत्ति में स्त्री के सृजे जाने के समय से आरंभ करके, परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्त्रियों की भूमिका के सन्दर्भ में होकर; तथा, दूसरे, इस पद के तात्कालिक सन्दर्भ के साथ।
पहले, उनके रचे जाने के समय के विवरण और उससे संबंधित बातों को देखकर, परमेश्वर द्वारा स्त्रियों के लिए निर्धारित भूमिका को समझते हैं। आदम के लिए स्त्री की आवश्यकता का पहला उल्लेख उत्पत्ति 2:18 में आया है, और वहाँ पर परमेश्वर ने कहा, “ … मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊंगा जो उस से मेल खाए।” परमेश्वर का उद्देश्य स्पष्ट है – स्त्री को परमेश्वर द्वारा आदम के समान बनाई गई, उससे मेल खाने वाली, उसकी सहायक होना था। यहाँ, हमारी चर्चा के लिए महत्वपूर्ण बात है कि स्त्री की रचना से भी पहले, जब परमेश्वर ने उसके बारे में विचार किया, तभी से उसकी भूमिका आदम का “सहायक” होने की थी, न कि आदम पर प्रभुता या वर्चस्व रखने वाली होने की। जो व्यक्ति सहायक नियुक्त होता है, वह निर्णायक अथवा नियंत्रण करने वाला नहीं होता है, वरन जिसकी सहायता के लिए उसे रखा जाता है, उसकी अधीनता और आज्ञाकारिता में होकर कार्य करता है। सहायक का अधिकारी हो जाना या अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने वाला हो जाना, उसके लिए निर्धारित कार्य और भूमिका के विरुद्ध जाना है, अनाज्ञाकारी होना है।
इसका यह कदापि तात्पर्य नहीं है कि स्त्री को आदम से गौण और उसकी “दासी” होने के लिए बनाया गया था – बिना स्त्री के आदम अधूरा था, स्त्री को उसका पूरक, उसकी सहायता करने वाला होना था (1 कुरिन्थियों 11:11)। दोनों, आदम और हव्वा के लिए परमेश्वर ने कार्य और भूमिकाएँ निर्धारित की थीं; उन्हें एक-दूसरे के साथ मिलकर, परस्पर सहयोग के साथ उन दायित्वों का निर्वाह करना था। बड़े या छोटे होने या एक-दूसरे पर प्रभुता रखने की भावना अथवा होड़ तो तब थी ही नहीं। यह भिन्नता, होड़, और एक का दूसरे से ऊँचा होने का प्रयास करने की भावना का प्रचलन उस पाप के कारण आया जो उन दोनों ने किया (उत्पत्ति 3:16); यह भिन्नता और प्रवृत्ति परमेश्वर की आरंभिक योजना का भाग नहीं थी।
इसे इस प्रकार समझिए, किसी बड़ी कंपनी और कारखाने में एक मालिक होता है, और उसके नीचे अलग-अलग जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए अलग-अलग विभागों के अलग-अलग डायरेक्टर होते हैं – कोई आर्थिक मामले संभालता है, कोई कर्मचारियों की नियुक्ति और उनसे संबंधित समस्याओं को देखता है, कोई कच्चे माल की आपूर्ति का दायित्व निभाता है, तो कोई तैयार माल को बाहर बेचने और मुनाफा कमाने के कार्य को पूरा करता है, आदि। सभी “डायरेक्टर” हैं, सभी उसी एक मालिक के लिए कार्य कर रहे हैं, सभी के मिल-जुल कर कार्य करने से ही कंपनी और कारखाना तरक्की कर सकते हैं; कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सभी एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं। किन्तु जैसे ही कोई एक भी “डायरेक्टर” किसी दूसरे के विभाग में दखलंदाजी करने लगता है, अपने आप को औरों से बड़ा या अधिक महत्वपूर्ण जताने के प्रयास करने लगता है, वह सभी के लिए परेशानी उत्पन्न करता है और अन्ततः न केवल अपना, वरन औरों का था कंपनी एवं कारखाने का, और उसके मालिक का भी नुकसान कर डालता है। इसी प्रकार, परमेश्वर की मूल योजना में, संसार में पाप के प्रवेश से पहले, आदम और हव्वा के अपने-अपने कार्य और भूमिकाएँ थीं, जो परस्पर एक दूसरे की पूरक थीं, जिन्हें एक दूसरे के सहयोग से निभाया जाना था; उन्हें बड़ा-छोटा होने के लिए नहीं, साथ मिलकर काम करने के लिए रखा गया था – प्राथमिक भूमिका पहले सृजे गए आदम की थी, और हव्वा को उसका सहायक होना था, उसे आदम के साथ मिलकर परिवार बनाना था, और उस परिवार की देखभाल और परवरिश करनी थी। उनके इस साथ मिलकर कार्य करने से वे समस्त पृथ्वी और उसकी सभी प्राणियों को वश में रखने वाले बन सकते थे (उत्पत्ति 1:27-28)। अदन की वाटिका में कार्य करने, उसकी रक्षा करने, और उसके फलों में से लेकर खाने, तथा किस फल को नहीं खाना है, इसका निर्णय रखने का दायित्व परमेश्वर ने, हव्वा की सृष्टि से भी पहले, आदम को दिया था (उत्पत्ति 2:15-17), जिसे फिर हव्वा की सृष्टि के पश्चात उसके साथ बाँटा नहीं गया; यह आदम का दायित्व था, हव्वा का नहीं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
अगला लेख: इस पद को उसके सन्दर्भ तथा स्त्री की भूमिका के साथ समझना
कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें
*************************************************************************************
Understanding Being Saved in Childbearing, 1 Timothy 2:15 - Part (1)
Question: What does it mean that women will be saved in childbearing, as written in 1 Timothy 2:15?
Answer:
The thing stated in this verse has perplexed many, and many commentaries and explanatory notes have given various answers to clarify this statement. I am giving here what the Lord has given to me through praying about this and through some teachings given by some men of God. I hope the answer would be acceptable to you. To understand it, some other related things need to be seen and understood first; only then, by putting those things together and in a correct perspective can we properly understand that which is stated in this verse.
Firstly, being “saved” in childbearing is not that spiritual salvation which has been stated in Romans 10:9-13 and other places in God’s Word. It is common sense and knowledge that not every woman who has given birth to a child is a “saved” woman; nor is it necessary that every saved woman will always have given birth to a child. The confusion and difficulty related to this verse is because of the word “saved” used here. In the original Greek language, the word that has been translated as “saved” here is ‘sodezo’ which commonly means to be ‘delivered’ or ‘saved’. But this is not the only meaning or sense that has been attributed to this word in God’s Word. For example:
· “made well” i.e., to be healed in Matthew 9:21; Luke 8:50; and Acts 4:9
· “save yourself” i.e., to be delivered out of a predicament or serious situation, in Matthew 27:40
· “healed” i.e., restored to health, in Mark 5:23
· “deliver me” i.e., bring me out and restore me, in 2 Timothy 4:18
In other words, the “saved” written in 1 Timothy 2:15 is not meant to be for spiritual salvation, but is meant to convey being delivered, or brought out of, or made safe from something else, from a particular situation. Therefore now, we need to identify what that particular situation is, that is being alluded to here. This can be done by looking at two related things – firstly, starting with the role of women envisaged and determined by God since the time of their being created in Genesis; and secondly by looking at this verse in its immediate context.
First, let us understand the role of women envisaged and determined by God as made evident in the events related to their creation. The first mention of the need for a woman to be with Adam is given in Genesis 2:18; there God says, “… I will make him a helper comparable to him.” The purpose of God is very clear – the woman was to be one created by God, as comparable to Adam, so as to function as Adam’s helper. Here, in this discussion, it is important to note that even prior to the creation of a woman, when God envisaged about her, since then she was meant to be Adam’s “helper”; and not one who would lord over him or exercise superiority over him. The person appointed as “helper”, is neither supposed to be the “decision maker” nor the one exercising control; rather that person is supposed to work under and be obedient to the one he has been appointed as a helper. For a “helper” to become an independent officer and function as per his own will instead of according to the instructions and will of the person he is meant to help, is to go contrary to his assigned role, and to become disobedient.
Now, this does not in any way mean that the woman was created to be inferior to man and function as his “slave” – Adam was ‘incomplete’ without the woman, the woman was made to make him ‘complete’ and help him (1 Corinthians 11:11). For both, Adam and Eve, God had assigned roles and responsibilities to fulfill; they had to work together, cooperating with each other and fulfill those responsibilities. There was no thought or question of superior or inferior, or of one dominating the other. This differentiation and competition, and one trying to dominate the other came about due to the sin they committed (Genesis 3:16); this differentiation and tendency was not a part of God’s original plan for them.
To understand this, consider an illustration: Every large business company production house has an owner, and under the owner, look after and manage various activities, are various departments and their respective “Directors” – someone to look after the finances, someone to manage the human resources and employees, someone else to look after the procuring of raw materials, someone else to sell the finished products and promote the company, etc. All of these department heads are “Directors”, they are all working for the same owner, and it is only through their collective and collaborative working that the business house will do well, will prosper. None of the “Directors” is ‘bigger’ or ‘smaller’ than the other; they all complement each other. But the moment any one of these "Directors" starts to interfere in the functioning of another department, starts to assert himself as bigger or more important than another, problems start, which will not only cause him harm but will also harm the functioning of the whole business house. Similarly, in His original plan, prior to the entrance of sin into the world, Adam and Eve had their works and responsibilities, and mutually they helped and complemented each other. They were not meant to indulge in being playing 'superior' or 'inferior' but were meant to work and fulfill their responsibilities with each other's cooperation and help - the primary role was of the first created Adam, and Eve was meant to be his "helper"; she was to join with Adam to build a family and home with him; she was to be the 'home-maker' and to nurture the family. Through their working together, they were to subdue the whole earth and have dominion over all other created beings on earth (Genesis 1:27-28). To work in the Garden of Eden and to safe-guard it, to decide which fruit is to be eaten and which is not to be eaten, was the responsibility given to Adam (Genesis 2:15-17), even before the creation of Eve; subsequent to the creation of Eve, Adam's this responsibility was not shared with Eve. This was Adam's responsibility, and not Eve's since the very beginning.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.