मसीही विश्वास या ईसाई धर्म?
पिछले लेखों
में हमने देखा है कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, प्रभु
यीशु का अनुयायी होना किसी धर्म का पालन करना नहीं है, वरन
स्वेच्छा और सच्चे एवं पूर्णतः समर्पित मन से प्रभु यीशु मसीह का आज्ञाकारी शिष्य
बनना स्वीकार करना है, और फिर उन का अनुसरण करते हुए जैसा वे
कहें और सिखाएं, वैसा जीवन जीना है। हमने प्रेरितों 9:2;
19:9, 23; 22:4, 24:14, 22 से देखा था कि प्रभु यीशु मसीह के आरंभिक
अनुयायी किसी विशेष नाम से नहीं जाने जाते थे, वरन लोगों द्वारा
उन्हें “पंथ” या “मत” के लोग कहा जाता था, न कि किसी धर्म
के मानने वाले। फिर प्रेरितों 11:26 से हमने देखा था कि प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों को
पहली बार अंताकिया में “मसीही” कहा गया;
और वहाँ से यह नाम उनके साथ जुड़ गया। कहने का तात्पर्य यह है कि
परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार मसीही विश्वासी होना प्रभु यीशु मसीह का शिष्य
होना है, और एक विशिष्ट जीवन शैली के अनुसार जीना है;
न कि किसी धर्म और उसके रीति रिवाजों और नियमों का पालन करना। साथ
ही इस तथ्य में यह भी निहित है कि कोई भी किसी का शिष्य बनकर कभी जन्म नहीं लेता
है; हर कोई स्वेच्छा से, अपनी समझ-बूझ
के अनुसार अपना व्यक्तिगत निर्णय लेने से ही किसी का शिष्य बनता है। इसी प्रकार,
संसार की सामान्य धारणा के विपरीत, किसी भी
परिवार विशेष में जन्म ले लेने से कोई मसीही नहीं हो जाता है। वरन हर किसी को अपने
पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु द्वारा कलवरी के क्रूस
पर समस्त संसार के सभी लोगों के पापों के लिए दिए गए बलिदान, और उनके मृतकों में से पुनरुत्थान को स्वीकार करते हुए, प्रभु यीशु से अपने पापों की क्षमा माँगकर, उसे अपना
उद्धारकर्ता और प्रभु स्वीकार करना होता है, अपना जीवन
स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से उसे समर्पित करना होता है। इसे ही उद्धार या नया जन्म
पाना कहते हैं - नश्वर सांसारिक जीवन से अविनाशी आत्मिक जीवन में परमेश्वर की
संतान बनकर जन्म लेना (यूहन्ना 1:12-13); और इसके बिना कोई
परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना तो दूर, उसे देख भी नहीं
सकता है (यूहन्ना 3:3, 5, 7)। मसीही विश्वासी होना कोई धर्म
परिवर्तन करना नहीं है, वरन यह व्यक्ति के मन का परमेश्वर की
ओर परिवर्तन है।
प्रेरितों 2 अध्याय में प्रभु यीशु
के शिष्य, पतरस के द्वारा परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य
और अगुवाई में यरूशलेम में परमेश्वर की व्यवस्था के अनुसार पर्व और बलिदानों के
निर्वाह के लिए संसार भर से एकत्रित हुए “भक्त यहूदियों”
(प्रेरितों 2:5) के मध्य किया गया वह प्रचार
दर्ज है जिसके फल स्वरूप प्रभु यीशु के अनुयायियों की पहली मण्डली ने जन्म लिया।
इस पूरे प्रचार में हम कहीं भी किसी धर्म परिवर्तन की बात नहीं देखते हैं - किसी
से नहीं कहा गया कि वह अपना यहूदी या कोई अन्य धर्म छोड़कर ईसाई धर्म में आ जाए।
वरन सभी से मन फिराव अर्थात पापों से पश्चाताप करने के लिए कहा गया। पतरस ने
उन्हें परमेश्वर को स्वीकार्य होने, उसकी दृष्टि में
“धर्मी” ठहरने के लिए अपने जीवनों सात व्यावहारिक
बातों का समावेश करने के लिए कहा। प्रेरितों 2:38-42 में जिस
क्रम में ये बातें दी गईं, उसी क्रम का पालन करते हुए,
ये सात बातें हैं: (i) मन-फिराव अर्थात पापों
से पश्चाताप करना, (ii) प्रभु यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा
लेना, (पद 38); (iii) अपने आप को
“टेढ़ी जाति” अर्थात भ्रष्ट और पतित संसार से पृथक
रखना, (पद 40); (iv) प्रेरितों से
शिक्षा पाना, अर्थात परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना,
(v) अन्य मसीही विश्वासियों के साथ संगति रखना, (vi) रोटी तोड़ना अर्थात प्रभु भोज में सम्मिलित होना, (viii) प्रार्थना करते रहना (पद 42)। पद 42 यह भी बताता है कि उस आरंभिक मण्डली के लोग, इन
अंतिम चार बातों में “लौलीन” रहते
थे। दुर्भाग्यवश, मसीही विश्वास के इस मूल और वास्तविक स्वरूप को बिगाड़ कर, उसे मसीही या ईसाई धर्म
बना देने वालों ने, और इस ईसाई धर्म का पालन करने वालों ने इन
सात बातों को एक रस्म पूर्ति की बात, एक औपचारिकता बना दिया
है। और आरंभिक मसीही विश्वासियों की मण्डली के ये गुण अब लोगों के लिए
धर्म-कर्म-रस्म के औपचारिक निर्वाह के बातें बन कर रह गए हैं।
शैतान की इस चाल ने मसीही विश्वास के नाम
पर लोगों को इस औपचारिकता में फंसा कर परमेश्वर के वचन की वास्तविकता से दूर करके, उन्हें मसीही विश्वासी
के स्थान पर मसीही या ईसाई धर्म का - जिसका उल्लेख भी बाइबल में नहीं ही, मानने वाला कर दिया है। उनकी अपनी ही गढ़ी हुई धार्मिकता तथा उनके द्वारा अन्यजाति
रीति-रिवाज़ों, त्यौहारों आदि का मसीह के नाम से मानना,
मनाना, और सिखाना चाहे कितने ही लगन और उत्साह
के साथ क्यों न हो, व्यर्थ है (मत्ती 15:9; यशायाह 1:14; गलातीयों 4:10-11)। ऐसे लोग परमेश्वर के नाम से और अपनी समझ के अनुसार परमेश्वर के लिए कुछ
भी करें, वह सब निरर्थक एवं अनुपयोगी है, प्रभु परमेश्वर को पूर्णतः
अस्वीकार्य है (मत्ती 7:21-23)। मसीही विश्वास का ईसाई धर्म
बना देने की शैतान चाल का एक और व्यापक और दूरगामी दुष्प्रभाव है। अनुपात में,
ईसाई धर्म के विभिन्न रूपों को मानने और मनाने वालों की तुलना में,
सच्चे मसीही विश्वासियों की संख्या बहुत कम है; इसलिए संसार के सामने मसीह यीशु के अनुयायियों के रूप में अधिकांशतः वे ही
लोग आते हैं जिनके जीवनों में न सच्चा पश्चाताप है और न वास्तविक परिवर्तन। वे
अपने आप को मसीही तो कहते हैं, किन्तु उनके जीवन में मसीह की
सच्ची शिष्यता के स्थान पर सांसारिकता और संसार की बातें ही दिखाई देती हैं। उनका यह
पाखण्ड फिर संसार के लोगों के लिए ठोकर का कारण बनता है (रोमियों 2:21-24); इसलिए संसार के लोगों के मध्य मसीही विश्वास के प्रति एक अनुचित और बहुत
गलत गवाही प्रसारित होती रहती है। जिसके कारण संसार के लोग सुसमाचार के सच्चे
प्रचार, महत्व, और पालन पर भी संदेह
करते हैं, उसे अस्वीकार करते हैं, और
मसीह यीशु पर विश्वास करने, उद्धार पाने, तथा शैतान के जंजाल से निकल पाने से वंचित रह जाते हैं।
इसलिए परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं
के आधार पर भली-भांति जाँच-परख कर, प्रभु यीशु द्वारा सिखाए गए सच्चे मसीही विश्वास और
मनुष्यों द्वारा गढ़े गए ईसाई धर्म के मध्य भिन्नता की पहचान करना बहुत आवश्यक है, ताकि
सच्चाई का पालन किया जाए न कि शैतान द्वारा मसीह यीशु के नाम से बनाए और फैले गए भ्रम
का। और समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, धर्म-कर्म-रस्म की व्यर्थ धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की
वास्तविक शिष्यता में आना और उसे निभाना अनिवार्य है। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक
में आँख खुले तब पता लगे कि जिस धर्म का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे
उससे कोई लाभ नहीं हुआ, और अब उस गलती को सुधारने का कोई
अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा।
यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या
परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में
भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की
स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर,
स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर
दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे
मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और
साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल
पढ़ें:
- यशायाह
47-49
- 1 थिस्सलुनीकियों 4