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बुधवार, 20 जुलाई 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 1


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परिचय

परमेश्वर के वचन बाइबल के नए नियम खण्ड की प्रभु यीशु की जीवनी और कार्यों के वर्णन वाली पहली चार सुसमाचारों की पुस्तकों के बाद, पाँचवीं पुस्तक का नाम है “प्रेरितों के काम”। प्रेरितों के काम मसीही विश्वासियों की प्रथम मण्डली, और उस प्रारंभिक मसीही मण्डली के लोगों के साथ घटित घटनाओं एवं संसार में सुसमाचार प्रचार और प्रसार के उनके कार्यों का लेख है। इस पुस्तक का आरंभ प्रभु यीशु मसीह के मृतकों में से पुनरुत्थान के बाद, उनके द्वारा अपने शिष्यों के साथ बिताए गए समय के उल्लेख से होता है। अपने पुनरुत्थान के बाद, प्रभु यीशु चालीस दिन तक अपने शिष्यों के साथ रहा, उन्हें सिखाता रहा, वचन और विश्वास में दृढ़ करता रहा, उनकी आने वाली सेवकाई के लिए उन्हें तैयार करता रहा “और उसने दु:ख उठाने के बाद बहुत से पड़े प्रमाणों से अपने आप को उन्हें जीवित दिखाया, और चालीस दिन तक वह उन्हें दिखाई देता रहा: और परमेश्वर के राज्य की बातें करता रहा” (प्रेरितों 1:3)। अपने बलिदान से पहले साढ़े तीन वर्ष तक प्रभु यीशु अपने शिष्यों को साथ लिए चलता रहा, उसने उन्हें विभिन्न परिस्थितियों से होकर निकलने दिया, बहुत सी शिक्षाएं दीं। उन्हें प्रचार और आश्चर्यकर्म करने के अधिकार भी दिए और जब प्रभु ने शिष्यों को इस कार्य के लिए भेजा (मत्ती 10 अध्याय), तो उन्होंने यह सब किया भी (मरकुस 6:12-13; लूका 10:20)। 


हम इन बातों से यह अभिप्राय ले सकते हैं कि प्रभु के स्वर्गारोहण के समय के आने तक, अब शिष्य शिक्षा और अनुभव के साथ मसीही सेवकाई के लिए जाने के लिए प्रशिक्षित और तैयार थे। किन्तु फिर भी प्रभु यीशु ने स्वर्ग पर जाने से पहले उन्हें एक निर्देश और दिया “और उन से मिलकर उन्हें आज्ञा दी, कि यरूशलेम को न छोड़ो, परन्तु पिता की उस प्रतिज्ञा के पूरे होने की बाट जोहते रहो, जिस की चर्चा तुम मुझ से सुन चुके हो” (प्रेरितों 1:4); “परन्तु जब पवित्र आत्मा तुम पर आएगा तब तुम सामर्थ्य पाओगे; और यरूशलेम और सारे यहूदिया और सामरिया में, और पृथ्वी की छोर तक मेरे गवाह होगे” (प्रेरितों 1:8)। यह प्रभु की ओर से दिया गया कोई नया निर्देश नहीं था; अपने पकड़वाए जाने से पहले प्रभु यीशु ने शिष्यों से यह प्रतिज्ञा की थी, कि उन के बाद शिष्यों के साथ परमेश्वर पवित्र आत्मा सहायक बनकर रहेगा (यूहन्ना 14 और 16 अध्याय); और यहाँ पर प्रभु इसी प्रतिज्ञा को दोहरा रहा था। 


हम मसीही विश्वासियों के लिए यह बहुत ध्यान देने और विचार करने योग्य बात है कि स्वयं प्रभु यीशु के साथ रहकर, उससे सीखकर, यह सारा प्रशिक्षण और अनुभव प्राप्त करने के बाद भी, प्रभु यीशु ने शिष्यों को सेवकाई पर निकलने से तब तक रुके रहने के लिए कहा, जब तक कि उन्हें परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, तथा उनका साथ नहीं मिल जाता है। मसीही सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका का यह एक महान और अति महत्वपूर्ण अनुमोदन है; मसीही सेवकाई उनकी सहायता, उनके मार्गदर्शन के बिना नहीं हो पाने के आधारभूत सत्य की पुष्टि है। 


आज बहुत से लोग केवल प्रशिक्षण और किसी बाइबल कॉलेज अथवा सेमनरी से डिग्री प्राप्त कर लेने, या कोई कोर्स कर लेने के द्वारा समझते हैं कि वे अब मसीही सेवकाई के लिए तैयार हैं। और उन्हें लगता है कि वे अपने प्रशिक्षण, शिक्षा, अनुभव, के द्वारा और उनके चर्च या डिनॉमिनेशन में बनाई गई योजनाओं और निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार कार्य करने से तथा उन लोगों से उपलब्ध सहायता एवं साथ के द्वारा मसीही सेवकाई को कर सकते हैं। अवश्य ही वे कुछ प्रचार का कार्य कर सकते हैं, लोगों को अपना ज्ञान दिखा सकते हैं, और ‘मसीही सेवकाई’ के नाम पर कुछ ‘समाज-सेवा’ या कुछ शिक्षा, चिकित्सा, भलाई के कार्य आदि कर सकते हैं। किन्तु यह सब प्रभु के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, और सुसमाचार के प्रभावी प्रचार और प्रसार के लिए अंततः निरर्थक तथा अप्रभावी ही ठहरता है। हो सकता है कि समाज और लोगों से इसके लिए बहुत सराहना मिले, कुछ पुरस्कार भी मिलें, किन्तु जो प्रभु की ओर से नहीं है, वह प्रभु को स्वीकार्य भी नहीं है, और उसके लिए फलवंत भी नहीं है (मत्ती 7:21-23; मत्ती 15:8, 9, 14)। 


प्रेरितों के काम पुस्तक का यह आरंभिक अध्याय और यहाँ दिए गए प्रभु यीशु के निर्देश दिखाते हैं कि वास्तविक और प्रभावी मसीही सेवकाई, बिना परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य, सहायता, और मार्गदर्शन के संभव नहीं है। आते दिनों में हम मसीही सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की इसी भूमिका के विषय परमेश्वर के वचन में दी गई शिक्षाओं को देखेंगे, और उनसे सीखेंगे के हम प्रभु के लिए कैसे उपयोगी तथा कार्यकारी हो सकते हैं। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आप को अपने उद्धारकर्ता प्रभु के लिए कार्यकारी एवं उपयोगी भी अवश्य ही होना है। और आप यह प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण और आज्ञाकारिता के द्वारा ही कर सकते हैं, जिसमें परमेश्वर पवित्र आत्मा आपका मार्गदर्शक, सहायक, और सामर्थ्य प्रदान करने वाला रहेगा। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • भजन 26-28 

  • प्रेरितों 22


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English Translation


Introduction


The New Testament section of the Bible begins with the life, teachings, and works of the Lord Jesus Christ, given in the first four books, also known as the Gospel accounts; this is followed by the fifth book called “The Acts of the Apostles” or “Acts”. This book of Acts is the account of the initial Assembly of the Christian Believers, the Born-Again disciples of the Lord Jesus, their works, their experiences in their ministry, and of the preaching and spread of the Gospel message of salvation by faith in the Lord Jesus by the initial Christian Believers. This book begins with the mention of events following the resurrection of the Lord Jesus from the dead and of His time spent with His disciples till His ascension to heaven. After His resurrection, the Lord Jesus remained with His disciples for forty days, kept on teaching them, establishing them in His Words and in their Faith in Him, preparing them for their coming ministry of preaching the Gospel of salvation to the ends of the earth, “to whom He also presented Himself alive after His suffering by many infallible proofs, being seen by them during forty days and speaking of the things pertaining to the kingdom of God” (Acts 1:3). Before His sacrifice on the Cross, for about three and a half years, the Lord Jesus went around in Israel, from place to place with His disciples, taught them many things, and also allowed the disciples to pass through different circumstances, and experience many situations – all a part of their training for the ministry the Lord was preparing them for. He also gave them the authority and power to preach the gospel and do miraculous works, and when the disciples went out at the behest of the Lord (Matthew chapter 10), then they did all of this (Mark 6:12-13; Luke 10:20).


From these things we can infer that by the time it was time for the Lord Jesus to ascend to heaven, the disciples, through the teachings from the Lord and their experiences, were trained and ready to go out for the ministry intended for them by the Lord. But still, before His ascension, the Lord Jesus gave them a command before His ascension, “And being assembled together with them, He commanded them not to depart from Jerusalem, but to wait for the Promise of the Father, "which," He said, "you have heard from Me” (Acts 1:4); “But you shall receive power when the Holy Spirit has come upon you; and you shall be witnesses to Me in Jerusalem, and in all Judea and Samaria, and to the end of the earth” (Acts 1:8). This was not something new said to them by the Lord; before He was caught for crucifixion, during His last conversation with them, the Lord had promised the disciples, that after His departure, God the Holy Spirit will come and stay with them as their helper (John chapters 14 and 16); and here in Acts, the Lord was only repeating this promise, reminding them of it.


This is something of great importance, something that we Christian Believers need to seriously ponder over and think much about, that although taught and trained by the Lord Jesus Himself, having received all the teachings and experiences with the Lord Jesus, yet, the Lord Jesus asked those disciples to wait till they received the power and presence of the Holy Spirit with them, and only then to go out for the ministry He had appointed them for. This is a great and very important Biblical confirmation of the role of the Holy Spirit in Christian Ministry; it is an affirmation of the fundamental fact that Christian Ministry cannot be carried out without the  presence, guidance, and power of the Holy Spirit.


Many people think that because of completing a training or a degree - graduate or post-graduate, from a Bible College or a Seminary, they are ready for Christian Ministry. They also think that by virtue of their training, education, experience, and with the help of the plans made, goals set, and helps provided to them by their Church or denomination, they can very well do the Christian Ministry. No doubt, they can do some work and some preaching, can exhibit their knowledge, and in the name of Christian ministry can do some ‘social-work’, or do a few things related to education, health, helping the needy people etc. amongst the community. But eventually, in the long run, all of this turns out to be vain and fruitless for fulfilling the purposes of the Lord, for an effective gospel preaching and propagation ministry. It is quite possible that for their works and efforts they may receive a lot of praise and appreciation from the community and the people, they may also be given awards and recognition by the people of the world, but that which is not done in obedience to and according to the guidance of God, is also never acceptable to Him, nor is it ever fruitful for Him (Matthew 7:21-23; 15:8, 9, 14).


This initial chapter of the book of Acts, and the instructions of the Lord given there show that the true and effective Christian Ministry is not possible without the help, guidance, and power of the Holy Spirit. In the previous articles we have seen that Christian Faith and Christian religion are two entirely different things; the Lord Jesus never propounded any religion; nor did He ask His disciples to do so. We have also seen that Biblically speaking, a Christian is not one who fulfils religious rituals, obligations, and ceremonies, but is one who willingly has become a disciple of the Lord Jesus. Being a Born-Again Christian Believer is by the individual’s decision to repent of his sins, ask for the Lord’s forgiveness for them, to accept the Lord Jesus as his Savior, surrender his life to the Lord and be committed to obediently following Him, for whatever he says, and going wherever He sends. God the Holy Spirit residing in the truly Born-Again Christian disciples guides and teaches them for their ministry, and we will be considering the role of the Holy Spirit in Christian Ministry in this new series now. 


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 26-28 

  • Acts 22