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कलीसिया को समझना – 8 – रूपक – 6
किसी वस्तु का योग्य रीति से उपयोग कर पाने के लिए, व्यक्ति को उसके बारे में, उसकी उपयोगिता के बारे में, और उसे उपयोग करते समय उसकी कोई हानि न हो इसलिए उसके प्रति रखी जाने वाली सावधानियों के बारे में जानना होता है। यह तब और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब व्यक्ति को उस वस्तु का भण्डारी बनाया गया हो, और उसे उस वस्तु के उपयोग का लेखा भी देना हो। जैसा कि पिछले लेखों में हम देख चुके हैं, परमेश्वर ने प्रत्येक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को कम से कम चार बातें दी हैं, ताकि वह अपने मसीही जीवन और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का सही निर्वाह कर सके; और हर विश्वासी उन बातों का भण्डारी है, उन के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है । ये चार बातें हैं – परमेश्वर का वचन, परमेश्वर पवित्र आत्मा, परमेश्वर की कलीसिया और उसकी सन्तानों की सहभागिता, और परमेश्वर पवित्र आत्मा का कोई न कोई वरदान। अभी तक हम परमेश्वर के वचन और परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में देख चुके हैं, और वर्तमान में परमेश्वर की कलीसिया तथा उसकी सन्तानों की सहभागिता के भण्डारी होने के बारे में, बाइबल में कलीसिया के लिए उपयोग किये गए रूपकों से सीख रहे हैं। हम बाइबल में दिए गए सात रूपकों में से पहले पाँच रूपकों को पिछले लेखों में देख चुके हैं। आज हम इस सूची के छठे रूपक, कलीसिया के प्रभु की दुल्हन होने के संबंध में देखेंगे।
(6) प्रभु की दुल्हन
परमेश्वर के वचन बाइबल में कलीसिया को प्रभु यीशु की दुल्हन भी कहा गया है। पति-पत्नी का संबंध सभी सांसारिक संबंधों में से सब से अंतरंग संबंध है। सृष्टि के आरंभ के समय से ही, परमेश्वर ने इस संबंध की अन्य हर संबंध के ऊपर प्राथमिकता को और दोनों की परस्पर घनिष्ठता को हव्वा की रचना करने के साथ ही बता दिया था, “इस कारण पुरुष अपने माता पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा और वे एक तन बने रहेंगे” (उत्पत्ति 2:24)। परमेश्वर के वचन बाइबल के पुराने नियम खंड में, मूसा में होकर परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था में, याजकों को अन्य सभी इस्राएलियों से विशिष्ट स्तर दिया गया, और उन्हें परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी तथा शुद्ध और पवित्र बने रहने के लिए कहा गया। साथ ही उन्हें किसी वेश्या, या भ्रष्ट स्त्री को अथवा किसी तलाक-शुदा, या त्यागी हुई से विवाह करने के लिए मना किया गया (लैव्यव्यवस्था 21:6-8)। जैसे आज प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर और अपनी कलीसिया के मध्य कार्य कर रहा है, उस समय याजक परमेश्वर और मनुष्यों के मध्य, परमेश्वर का वह दूत था (मलाकी 2:7), जो परमेश्वर के लोगों तक परमेश्वर का वचन पहुँचाता था, और उनकी ओर से लोगों की प्रार्थनाएं एवं बलिदान परमेश्वर को अर्पित करता था। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह को, उसकी सेवकाई के आधार पर, अपने विश्वासियों के लिए नए नियम में “महायाजक” भी कहा गया है (इब्रानियों 3:1; 5:5; 9:11)। तात्पर्य यह कि पुराने नियम के याजक एक प्रकार से प्रभु यीशु मसीह का प्रतिरूप थे। यदि व्यवस्था के अंतर्गत याजकों को भ्रष्ट, या वेश्या, या त्यागी हुई स्त्री से विवाह करने के अनुमति होती, तो यह सांकेतिक रीति से प्रभु की कलीसिया, उसकी दुल्हन में ऐसे व्यवहार या चरित्र को स्वीकृति प्रदान करना हो जाता, जो फिर आज की कलीसिया के शुद्ध और पवित्र होने से पूर्णतः असंगत एवं अस्वीकार्य हो जाता।
इस रूपक से संबंधित बाइबल के कुछ वचनों पर ध्यान कीजिए:
“क्योंकि मैं तुम्हारे विषय में ईश्वरीय धुन लगाए रहता हूं, इसलिये कि मैं ने एक ही पुरुष से तुम्हारी बात लगाई है, कि तुम्हें पवित्र कुंवारी के समान मसीह को सौंप दूं” (2 कुरिन्थियों 11:2)।
“हे पतियों, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम कर के अपने आप को उसके लिये दे दिया। कि उसको वचन के द्वारा जल के स्नान से शुद्ध कर के पवित्र बनाए। और उसे एक ऐसी तेजस्वी कलीसिया बना कर अपने पास खड़ी करे, जिस में न कलंक, न झुर्री, न कोई ऐसी वस्तु हो, वरन पवित्र और निर्दोष हो” (इफिसियों 5:25-27)।
“इस कारण मनुष्य माता पिता को छोड़कर अपनी पत्नी से मिला रहेगा, और वे दोनों एक तन होंगे। यह भेद तो बड़ा है; पर मैं मसीह और कलीसिया के विषय में कहता हूं। पर तुम में से हर एक अपनी पत्नी से अपने समान प्रेम रखे, और पत्नी भी अपने पति का भय माने” (इफिसियों 5:31-33)।
प्रभु यीशु और कलीसिया के संबंध को पति-पत्नी के संबंध के समान बताया गया है (इफिसियों 5:31-33)। प्रकट एवं स्पष्ट है कि 2 कुरिन्थियों 11:2 की बात, ऊपर कही गई याजकों के विवाह और प्रभु यीशु के महायाजक होने के साथ पूर्णतः मेल खाती है, उसकी पूरक है। न याजक भ्रष्ट हो सकता था, और न ही उसकी दुल्हन; न प्रभु यीशु में कोई अशुद्धता या अपवित्रता है, और न ही उसकी दुल्हन, उसकी कलीसिया में हो सकती है। किन्तु प्रभु की वर्तमान दुल्हन हम शारीरिक और पाप से दूषित लोगों के पाप और संसार से निकाले जाने के द्वारा बनी है। इसीलिए प्रभु आज स्वयं ही उसे अपने वचन के द्वारा शुद्ध, पवित्र, निष्कलंक, निर्दोष, बेझुर्री, और तेजस्वी बना रहा है, जिससे कि प्रभु की दुल्हन प्रभु के साथ खड़ी हो सके (इफिसियों 5:26-27)। इसीलिए विश्वासियों से कहा गया है कि वे अपने आप को एक पूर्णतः नई सृष्टि समझें, पुरानी सभी बातें बीत गई हैं; और वे प्रभु को पूर्णतः समर्पित होकर, उन्हें छुड़ाने वाले के लिए ही अपने जीवन जीएँ (2 कुरिन्थियों 5:15, 17)।
एक बार फिर, कलीसिया का यह रूपक, और बताए गए उसके गुण इस बात को प्रकट कर देते हैं कि वास्तविक कलीसिया वही है जो प्रभु यीशु ने बनाई है, और जिसे वह स्वयं ही शुद्ध और पवित्र कर रहा है। अन्य कोई भी ‘कलीसिया’ सांसारिक रीतियों और शब्दों के दुरुपयोग द्वारा ‘प्रभु की कलीसिया’ कहकर संबोधित तो की जा सकती है, किन्तु जिस कलीसिया में प्रभु द्वारा की जा रही शुद्धि, वचन का स्नान, पवित्रता में और प्रभु के प्रति समर्पण एवं उसकी निकटता में निरन्तर बढ़ते चले जाना, नहीं देखा जाता है, प्रकट है कि प्रभु उसे अपने साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं कर रहा है; अर्थात वह प्रभु यीशु द्वारा स्थापित, उसके द्वारा बुलाए और चुने हुए लोगों से बनी उसकी कलीसिया नहीं है।
प्रभु यीशु की कलीसिया से संबंधित यह रूपक, कलीसिया के लिए प्रभु परमेश्वर की ओर से प्रदान की गई एक अति-महान और अभूतपूर्व आशीष को भी हमारे सामने लाता है। ध्यान कीजिए, मसीही विश्वास (ईसाई या मसीही धर्म नहीं, वरन विश्वास) के अतिरिक्त संसार के अन्य सभी मत, धर्म, धारणाएं, आदि मनुष्यों से कहते हैं कि उन्हें पहले अपने ही प्रयासों से शुद्ध और पवित्र होना पड़ेगा, और तब ही वे उस मत, धर्म, धारणाओं को मानने और पालन करने वालों के इष्ट-देव के पास आ सकते हैं, उसे प्रसन्न कर सकते हैं; और लोग इसके लिए न जाने कितने प्रकार के प्रयास और कार्य करते रहते हैं, किन्तु उस वांछित एवं स्थाई शुद्धता और पवित्रता को प्राप्त नहीं करने पाते हैं। किन्तु इसके विपरीत, केवल मसीही विश्वास (न कि धर्म) ही समस्त मानव जाति को यह आश्वासन और प्रतिज्ञा देता है कि जो भी प्रभु यीशु के पास आएगा, वह चाहे जैसा भी है, उसने चाहे कैसा भी जीवन जिया हो, प्रभु यीशु उसे उसकी उसी दशा में ग्रहण करके फिर स्वयं ही उसे शुद्ध और पवित्र करेगा, अपने साथ खड़े होने योग्य बनाएगा - जो उसके लोग बन जाते हैं, अर्थात उसे समर्पित हो जाते हैं, उनका उद्धार भी वह स्वयं ही करता है, उसके नाम का यही अभिप्राय है (मत्ती 1:21), और फिर स्वयं ही उन्हें शुद्ध, पवित्र, निष्कलंक, निर्दोष, बेझुर्री, और तेजस्वी बनाता है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो अपने आप को जाँच कर देखिए कि आप परमेश्वर के वचन से कितना प्रेम करते हैं? आप बाइबल को अपने जीवन में क्या स्थान और महत्व देते हैं? आप कितना समय बाइबल के पढ़ने और अध्ययन करने में लगाते हैं? क्योंकि प्रभु यीशु द्वारा उससे प्रेम करने वालों की यही एकमात्र पहचान, एकमात्र चिह्न दिया गया है (यूहन्ना 14:21, 23)। साथ ही, अपने आत्मिक स्तर को परखने के लिए अपनी क्रमिक आत्मिक बढ़ोतरी को देखिए, कि पिछले समय की तुलना में, आज आप मसीह यीशु की निकटता में, उसके साथ घनिष्ठता में, कितने बढ़े हैं; और बढ़ते जा रहे हैं या कहीं किसी स्तर पर आ कर अटक गए हैं? क्या आप वचन के स्नान द्वारा धोए जाकर प्रभु यीशु द्वारा शुद्ध और पवित्र होते जा रहे हैं (यूहन्ना 13:8), पुरानी बुराइयों से निकलकर मसीही जीवन की नवीनता में बढ़ते जा रहे हैं कि नहीं? यदि प्रभु आपके जीवन में कार्य नहीं कर रहा है, आपको अपनी समानता में परिवर्तित (2 कुरिन्थियों 3:18) नहीं करता जा रहा है, तो आपको बहुत गंभीरता से अपने ‘मसीही विश्वासी’ होने पर विचार करने, बारीकी से अपने मसीही जीवन का आँकलन करने, और जो भी त्रुटि है, घटी है, उसे सुधारने की आवश्यकता है। इसे व्यर्थ मत समझिए, अभी समय और अवसर रहते यह कर लीजिए, कहीं टालना या इसे अनुचित एवं अनावश्यक समझना आपके लिए बहुत हानिकारक और अनन्तकाल के लिए पीड़ादायक न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Understanding the Church – 8 – Metaphors – 6
To worthily utilize something, one needs to learn about it, know its importance, and the precautions required to see that it does not comes to any harm. This becomes all the more important, if one has been made a steward of that thing, and will have to give an account of how he has put it to use. As we have seen before, every Born-Again Christian Believer has been given at least four things by God, for living his Christian life and fulfilling his God appointed ministry, and he is their steward, accountable to God for them. These things are – God’s Word, God the Holy Spirit, God’s Church and fellowship with God’s children, and some gift of God the Holy Spirit. We have already learnt about the stewardship of God’s Word and God’s Holy Spirit, and are presently learning about being steward of God’s Church and fellowshipping with God’s children, through the metaphors used for the Church in the Bible. From the seven metaphors given in the Bible, we have considered the first five metaphors in the previous articles. Today we will consider the sixth metaphor, being the Bride of Christ.
(6) The Bride of Christ
In the Word of God, the Church has also been called the Bride of the Lord Jesus. The relationship between husband and wife is the most intimate of all human relationships. From the beginning, since the creation of Eve, God has declared this to be primary relationship that supersedes all other relationships and be the most intimate between the husband and wife, “Therefore a man shall leave his father and mother and be joined to his wife, and they shall become one flesh” (Genesis 2:24). In the Old Testament section of the Bible, in the Law given by God through Moses, the Priests were given a very special place amongst all the Israelites, and they were told to remain completely surrendered and committed to God, to always be pure and holy. They were also instructed never to marry any harlot, or defiled, or divorced, i.e., a cast-away woman (Leviticus 21:6-8). As the Lord functions today between God and His Church, at that time it was the priest who served the same function between God and men (Malachi 2:7), serving as God’s messenger for men, and offering the prayers and sacrifices of men before God. That is why, on the basis of His ministry amongst His people, the Lord Jesus has also been called the “High Priest” (Hebrews 3:1; 5:5; 9:11). The implication is that the priests of the Old Testament were a type of, a representation of, the Lord Jesus. If in the Law, the priests had been permitted to marry a harlot, or a defiled, or a divorced woman, then it would symbolically have been a sanction for the Church or Bride of Christ to be of similar character as well. This then would have rendered the instruction for the Church to be pure and holy totally inconsistent and therefore unacceptable.
Consider some Bible verses related to this metaphor:
“For I am jealous for you with godly jealousy. For I have betrothed you to one husband, that I may present you as a chaste virgin to Christ” (2 Corinthians 11:2).
“Husbands, love your wives, just as Christ also loved the church and gave Himself for her, that He might sanctify and cleanse her with the washing of water by the word, that He might present her to Himself a glorious church, not having spot or wrinkle or any such thing, but that she should be holy and without blemish” (Ephesians 5:25-27).
“"For this reason, a man shall leave his father and mother and be joined to his wife, and the two shall become one flesh." This is a great mystery, but I speak concerning Christ and the church. Nevertheless, let each one of you in particular so love his own wife as himself, and let the wife see that she respects her husband” (Ephesians 5:31-33).
The relationship between the Lord Jesus and His Church has been stated as the relationship of a husband and wife (Ephesians 5:31-33). It is quite evident that what has been said in 2 Corinthians 11:2 is very consistent with, and also fulfils the Lord Jesus being the High Priest. Neither could the Priest have been defiled, nor could he have a defiled woman as wife. But the present bride of Christ Jesus is made up of us Christian Believers, who, in their flesh, are carnal and defiled, brought out from the sin corrupted world. That is why the Lord Himself is preparing and cleansing His bride through His Word, to make it pure, holy, without spot or blemish, and glorious, so that it will be able to stand with Him (Ephesians 5:26-27). That is why the Believers have been asked to consider themselves as a new creation, all old things having passed away; and live to fully consecrated to the Lord, live their lives for Him, their redeemer (2 Corinthians 5:15, 17).
Once more, this metaphor for the Church of the Lord makes it clear that the actual Church is the one that the Lord Himself has built and is building; the one that the Lord is making pure and holy. Any other ‘church’ may be called ‘the church of Jesus Christ’ on the basis of certain worldly traditions and rituals and by misuse of words for calling it to be so; but if in that ‘church’ the purification and cleansing done by the Lord Jesus through the washing of water by the word, the church’s progressively increasing in holiness and nearness to the Lord, and remaining fully surrendered and committed to the Lord Jesus is not seen, then how can it be ready to stand with the Lord Jesus? Evidently, such a ‘church’ despite all its claims, is not the Church of the Lord Jesus.
This metaphor of the Church of the Lord Jesus Christ also brings before us a great and unforeseen blessing granted by the Lord God to His people. Remember and recall that other than the Christian Faith (not Christian religion but faith), every religion, belief, concept etc. tells the people to somehow first cleanse themselves, to become pure and holy, only then can they approach their deity and please it. Therefore, their followers keep on doing so many different works and efforts for this, but are never able to reach that desired state of purity and holiness, nor maintain whatever they think that they have achieved through their works. In stark contrast, it is only the Christian Faith (not religion) that offers to all of mankind this assurance and promise that whoever comes to the Lord Jesus, whatever he may have been like in the past, the Lord will accept him as he is and will Himself purify him, make him holy, and make him one who will stand by the Lord’s side as a part of His Bride - those who become His people, i.e., surrender themselves to Him, the Lord Himself saves them, for that is what is the meaning of His name (Matthew 1:21), and then makes them pure, holy, without spot or blemish or wrinkle, and glorious.
If you are a Christian Believer, then examine yourself and see how much do you love the Word of God? What place does the Bible have in your life? How much time do you spend reading and studying the Bible? There is only one criterion given by the Lord Jesus of recognizing the love a Believer has for the Lord - the Believer’s love for the Bible (John 14:21, 23); the Believer’s love for the Bible is the measure of his love for the Lord. Another thing for you to evaluate your spiritual state is your progressive spiritual growth, i.e., in comparison to your state sometime back, how much have you grown or increased in your closeness and intimacy with the Lord Jesus; and are you continually progressing in your Christian life and living, or have you become stagnant at some point? Are you daily and regularly being washed by the Word of God; i.e., are your impurities of worldly things and attachments being taken away, and are you being purified and made holy by the Lord Jesus (John 13:8)? If the Lord is not working in your life, if He is not gradually, bit by bit, changing you into His likeness (2 Corinthians 3:18), then you very seriously need to reconsider and evaluate your being a “Christian Believer” (2 Corinthians 13:5), identify all that needs to be rectified, and do that rectification now, while you have the time and opportunity. Do not think it to be a vain exercise, nor ignore or procrastinate doing this; else the consequences can be very harmful and painful for eternity.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.