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आराधना के लिए परिवर्तित (5)
हम मसीही विश्वासी के उस प्रकार के आराधक में परिवर्तित होने के, जैसा परमेश्वर चाहता है कि वह हो, अर्थात जो आत्मा और सच्चाई से प्रभु की आराधना करता हो, के कदमों को देखते आ रहे हैं। हम इसका अध्ययन 2 इतिहास 29 अध्याय से कर रहे हैं, जहाँ पर यह प्रक्रिया दी गई है। हम यह देख चुके हैं कि इस प्रक्रिया के चार कदम हैं, जिनमें से तीन को हम अभी तक देख चुके हैं। ये तीन कदम हैं, यह दृढ़ निश्चय करना कि वह परमेश्वर का आज्ञाकारी और पूर्णतः प्रतिबद्ध अनुयायी बनेगा, और फिर इस निर्णय को व्यवहारिक रीति से अपने जीवन में प्रदर्शित करे। दूसरा कदम है पवित्र आत्मा के मंदिर, अपने हृदय को खोल कर स्वच्छ करना जिससे वह पवित्र आत्मा के निवास के लिए उपयुक्त हो; उसके द्वार की मरम्मत करना; अर्थात अपने हृदय में अन्दर आने वाली और बाहर जाने वाली बातों को नियंत्रित रखना; पवित्र आत्मा के कहे को सुनने और उसका पालन करने के लिए संवेदनशील होना। तीसरा कदम है यह एहसास बनाए रखना कि क्योंकि परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी को अपना याजक घोषित किया हुआ है, इसलिए उसके अनुसार कार्यकारी होना; अर्थात परमेश्वर के वचन को सीखना और जानना; पवित्र आत्मा के मंदिर, अपने हृदय की स्वच्छता को बनाए रखना, और मंदिर की वस्तुओं को उनके स्थान पर व्यवस्थित एवं उपयोगी रखना; और परमेश्वर के प्रतिनिधि के समान कार्य करना। मसीही विश्वासी के व्यवहारिक मसीही जीवन में इसका अर्थ है बाइबल की बातों से भली-भांति अवगत होना और उनको सीखना, एक शुद्ध और समर्पित हृदय को बनाए रखना, आत्मिक महत्व की बातों, जैसे कि बाइबल अध्ययन, परमेश्वर के साथ संगति करना, परमेश्वर के लोगों के साथ संगति बनाए रखना, आदि की प्राथमिकता एवं उनके उचित स्थान को अपने जीवन में फिर से स्थापित करना, उसका निर्वाह करना, और परमेश्वर जो भी बातें अपने वचन या हमारे अनुभवों के द्वारा हमें सिखाता है, उन्हें औरों के साथ बांटने के लिए तैयार रहना, अर्थात, प्रेरितों 2:42 के अनुसार चलना। एक बार जब ये पहले तीन कदम मसीही विश्वासी के जीवन में पूरे हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें न तो अधूरा छोड़ा जा सकता है, और न ही मात्र औपचारिकता के समान, केवल दिखने भर के लिए निभाया जा सकता है, केवल तब ही वास्तविक आराधना का आरंभ हो सकता है, और आज से हम इसी के बारे में देखना आरंभ करेंगे।
4. 2 इतिहास 29:20-36 – आराधना करने का आरंभ: जिस स्थान पर यह पूरी प्रक्रिया दी गई है, अर्थात 2 इतिहास 29 अध्याय में, वहाँ पर हम स्पष्ट देखते हैं कि जब तक परमेश्वर के मंदिर को खोल कर, उसकी मरम्मत और सफाई नहीं की गई, उसे शुद्ध और पवित्र नहीं किया गया, जब तक याजकों और लेवियों को तथा मंदिर की वस्तुओं को भी शुद्ध और पवित्र कर के उनके स्थानों पर बहाल और उपयोग होने की स्थिति में नहीं किया गया, तब तक आराधना, अर्थात भेंटों और बलिदानों का चढ़ाना आरंभ नहीं हुआ। जब तक ये सारी बातें उचित रीति से पूरी नहीं की गईं, तब तक पूरे वृतांत में कहीं पर भी कैसी भी आराधना का, न व्यक्तिगत और न ही सामूहिक का, कोई भी उल्लेख है। हो सकता है कि कुछ लोग अपने घरों में या किसी आराधनालय में एक रीति अथवा परमेश्वर के प्रति श्रद्धा के अनुसार किसी प्रकार की कोई आराधना कर रहे होंगे, किन्तु उसका कोई उल्लेख नहीं है, अर्थात उसका कोई महत्व यहाँ पर नहीं है। लेकिन परमेश्वर जो आराधना चाहता है, जिस आराधना के द्वारा आराधक के जीवन में आशीष और लाभ आते हैं, जो आराधना औरों के सामने परमेश्वर की महिमा करती है और लोगों को परमेश्वर की ओर आकर्षित करती है, वैसी आराधना का आरंभ केवल तब ही हो सका जब ये पहले तीन कदम ठीक से पूरे कर लिए गए।
यह एक बार फिर से दिखाता है कि मसीही विश्वासी के लिए अपने विश्वास के अनुसार जीवन जीना, अपने विश्वास को व्यवहारिक रीति से प्रदर्शित करना, जो समर्पण और निर्णय उसने प्रभु को उद्धारकर्ता ग्रहण करते समय किया था उसके प्रति खरा और प्रतिबद्ध रहना कितना महत्वपूर्ण है। यदि हम इसमें चूक करते हैं, संसार के साथ समझौते का जीवन जीते हैं, परमेश्वर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का निर्वाह नहीं करते हैं, तो हानि हमारी ही होती है, परमेश्वर की नहीं। अय्यूब की पुस्तक में, हमारे इस अध्ययन से संबंधित एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है, “क्या पुरुष से ईश्वर को लाभ पहुंच सकता है? जो बुद्धिमान है, वह अपने ही लाभ का कारण होता है। क्या तेरे धमीं होने से सर्वशक्तिमान सुख पा सकता है? तेरी चाल की खराई से क्या उसे कुछ लाभ हो सकता है?” (अय्यूब 22:2-3)। व्यवस्थाविवरण की पुस्तक मूसा द्वारा इस्राएल के मिस्र के दासत्व और उत्पीड़न से छुटकारे, परमेश्वर द्वारा इस्राएलियों को व्यवस्था दिए जाने और वाचा किए हुए देश की ओर उनकी यात्रा के दौरान उन्हें सिखाने और निर्देश देने के बातों का संक्षिप्त विवरण है। इस पुस्तक का वृतांत यह स्पष्ट दिखाता है कि परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने से हमेशा ही परेशानियाँ आई हैं; और आज्ञाकारिता के कारण वे हमेशा आशीषित और सुरक्षित रहे हैं। स्वयं परमेश्वर ने इस बात को कहा है, “भला होता कि उनका मन सदैव ऐसा ही बना रहे, कि वे मेरा भय मानते हुए मेरी सब आज्ञाओं पर चलते रहें, जिस से उनकी और उनके वंश की सदैव भलाई होती रहे!” (व्यवस्थाविवरण 5:29)।
वैसे आराधक जैसे परमेश्वर ढूँढ़ रहा है, अर्थात जो उसके ‘प्रोसक्यूनियोटीस’ हों, वे जो उसके समक्ष ‘प्रोस्क्यूनियोस’ करते हैं [इन यूनानी भाषा के शब्दों की समझ के लिए मार्च 11 के लेख - आराधना की अनिवार्यता (2) को देखिए], बनने के लिए विश्वासी को पूर्णतः समर्पित, प्रतिबद्ध, और परमेश्वर तथा उसके वचन का आज्ञाकारी होना अनिवार्य है। केवल तब ही व्यक्ति आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना कर सकता है, और भौतिक तथा आत्मिक आशीषों दोनों प्रकार की अद्भुत और विलक्षण आशीषों का भागीदार बन सकता है। आने वाले लेखों में हम इस चौथे कदम को पूरा करने के चार चरणों को देखेंगे, जिनके द्वारा पहले तीन क़दमों को पूरा करने वाले परमेश्वर की सच्ची आराधना करना आरंभ करने पाते हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
न्यायियों 13-15
लूका 6:27-49
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Being Transformed To Worship (5)
We have been looking at the steps of transformation of a Believer into a worshipper of God, i.e., one who worships the Lord in spirit and in truth - in the manner God wants His worship. We have been studying this from 2 Chronicles chapter 29, where this process is given. We have seen that this is a four-step process, and we have seen the first three steps of this process so far. These steps are, making a firm decision to be an obedient and fully committed follower of the Lord God, and then demonstrate it practically in life. The second step is to open and cleanse our hearts, the Temple of the Holy Spirit, making it worthy of the residing of the Holy Spirit; to repair its ‘door’, i.e., regulate what goes in and comes out of our hearts; become sensitive to the promptings of the Holy Spirit, and live by them, i.e., live according to the Spirit. The third step is to realize that God has declared that every Born-Again Christian Believer is His Priest, and to start functioning accordingly; i.e., learn and know God’s Word, maintain the cleanliness of his heart, the Temple, and restore the things to their place and function, and be God’s spokesman. In the Believer’s practical Christian life this translates into learning and becoming well-versed in the Bible, maintain a clean committed heart, restore things like prayer, Bible study, spending time with God, fellowshipping with God’s people, i.e., Acts 2:42 to their priority and proper place in life, and be willing to share whatever insights and instructions God gives with others. Once these three steps are completed, since they can neither be by-passed, nor done perfunctorily, only then can true worship begin, about which we will start looking at from today.
4. 2 Chronicles 29:20-36 – Worship begins: In the narrative of 2 Chronicles chapter 29, where this whole process is given, we see that it is only after the Temple of God has been opened, repaired, cleansed, purified, Priests and Levites restored to their place and function, things of the Temple have been cleansed, purified and restored to their place and function, that the account of beginning of worship, i.e., of offering sacrifices and offerings, of singing etc. is given. Till all of this happened, there is no mention of any kind of worship, neither personal nor corporate. Some people may have been worshipping God in their homes or in some synagogues, as a ritual, out of their reverence for God. But the worship that God wants, the worship that brings blessings and benefits for the worshipper, the worship that glorifies God before others and serves to attract people to God could only be done after the preliminary steps were completed.
This again goes to show how important it is for a Christian Believer to live out his faith, to remain true to the commitment he made when accepting the Lord Jesus as his savior. If we falter and compromise in living up to our commitments to God, it is we ourselves who are at loss, and not God. In the book of Job, a question very pertinent to our present study is raised, “Can a man be profitable to God, Though he who is wise may be profitable to himself? Is it any pleasure to the Almighty that you are righteous? Or is it gain to Him that you make your ways blameless?” (Job 22:2-3). The book of Deuteronomy is Moses’s revision and summarization of God’s deliverance of Israel from the bondage and oppression of Egypt, of God giving the Israelites His Law and instructing them while they were in their journey to the Promised Land. The narrative of this book shows how disobedience always leads to problems; and how important, secure, and blessed it is to stay obedient to God, as God Himself has said, “Oh, that they had such a heart in them that they would fear Me and always keep all My commandments, that it might be well with them and with their children forever!” (Deuteronomy 5:29).
To become the kind of worshipper that God is looking for, i.e., those who are His ‘proskunetes’, those who ‘proskuneos’ before Him [see the article of March 11 – The Necessity of Worshipping (2) to understand these Greek terms], being fully submissive, committed, and obedient to Him and His Word is mandatory. Only then can a person worship Him in spirit and truth and be blessed with the marvelous blessings, both temporal as well as eternal, of being a worshipper of God. In the subsequent articles we will see the four stages of this fourth step, through which those who have completed the first three steps, start worshipping God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Judges 13-15
Luke 6:27-49
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