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मत्ती 16:28 में मृत्यु का स्वाद चखना का क्या अर्थ है?
प्रश्न: मत्ती 16:28 में प्रभु यीशु द्वारा कही गई बात "जो यहाँ खड़े हैं, उनमें से कुछ ऐसे हैं कि वे जब तक मनुष्य के पुत्र को उसके राज्य में आते हुए ना देख लेंगे, तब तक मृत्यु का स्वाद नहीं चखेंगे" को हम कैसे समझ सकते हैं?
उत्तर:
प्रभु के राज्य, या स्वर्ग के राज्य से संबंधित प्रश्न में प्रभु के द्वारा कही बात को समझने के लिए कुछ अन्य पदों को भी ध्यान में रखकर चलना पड़ेगा। हमारी सामान्यतः यही स्वाभाविक धारणा होती है कि जैसे ही वाक्यांश “स्वर्ग का राज्य” या “परमेश्वर का राज्य” सामने आए, तो हम उसे भविष्य में, इस जगत के अंत तथा न्याय के साथ स्थापित होने वाले परमेश्वर के राज्य के रूप में देखें और समझें। इसमें कुछ गलत नहीं है, यह समझना ठीक तो है, किन्तु यहाँ पर प्रभु द्वारा कही गई बात की यही एकमात्र समझ भी नहीं है; क्योंकि यदि यही अर्थ लिया जाए तो यह इसे प्रभु यीशु के दूसरे आगमन के साथ जोड़ देता है, जिसकी तिथि अनिश्चित है, और आज लगभग 2000 वर्षों से जिसकी प्रतीक्षा चल रही है। इसीलिए मत्ती 16:28 की यह बात अव्यावहारिक और स्वीकार करने में कठिन प्रतीत होती है। साथ ही यदि मत्ती 21:31 में प्रभु यीशु द्वारा अपने विरोधियों और आलोचकों से कहे गई बात को देखें, जहाँ लिखा है “...यीशु ने उन से कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि महसूल लेने वाले और वेश्या तुम से पहिले परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करते हैं।” यहाँ पर हम देखते हैं कि प्रभु यीशु यहाँ परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में महसूल लेने वालों और वेश्याओं के प्रवेश के लिए निरंतर ज़ारी वर्तमान काल (Present Continuous Tense) का प्रयोग कर रहा है, न कि भविष्य काल (Future Tense) – ‘वे प्रवेश करेंगे’ का, अथवा अनिश्चितता का – ‘वे कर सकते हैं’, का। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस समय प्रभु यीशु यह बात कह रहे थी, उस समय भी यह कार्य – लोगों का परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होना ज़ारी था, हो रहा था; इसलिए परमेश्वर/स्वर्ग के राज्य में प्रवेश होने को केवल भविष्य की बात समझना ही एकमात्र तात्पर्य नहीं है।
प्रभु द्वारा मत्ती 16:28 में कही गई इस बात को समझने के लिए, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के समय में प्रभु द्वारा कही गई कुछ बातों को देखिए:
“यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। प्रभु ने अपनी सेवकाई का आरंभ पश्चाताप करने के आह्वान के साथ किया क्योंकि “परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है” – प्रभु के शब्दों पर ध्यान कीजिए, वह राज्य दूर भविष्य में नहीं है, वरन निकट है – आ ही गया है; राज्य निकट आने वाला है नहीं कहा, वरन निकट आ गया है कहा।
प्रभु स्वयं लूका 11:20 में कहता है, "परन्तु यदि मैं परमेश्वर की सामर्थ से दुष्टात्माओं को निकालता हूं, तो परमेश्वर का राज्य तुम्हारे पास आ पहुंचा"; अर्थात प्रभु यीशु की उपस्थिति और कार्य परमेश्वर के राज्य के विद्यमान होने के को दिखाते हैं। इसके कुछ समय पश्चात, “जब फरीसियों ने उस से पूछा, कि परमेश्वर का राज्य कब आएगा? तो उसने उन को उत्तर दिया, कि परमेश्वर का राज्य प्रगट रूप से नहीं आता। और लोग यह न कहेंगे, कि देखो, यहां है, या वहां है, क्योंकि देखो, परमेश्वर का राज्य तुम्हारे बीच में है” (लूका 17:20-21)। सेवकाई का आरम्भ करते हुए प्रभु कहता है कि परमेश्वर का राज्य निकट है; सेवकाई के दौरान, प्रभु, परमेश्वर के वचन के ज्ञानी फरीसियों को सिखाता है कि परमेश्वर का राज्य किसी वस्तु या घटना के समान प्रगट होने के द्वारा नहीं आता है, वरन वह तो अभी उनके मध्य में ही है, अर्थात उस समय प्रभु की उनके मध्य उपस्थिति में है, यदि वे प्रभु पर विश्वास कर लेते, प्रभु को स्वीकार कर लेते, तो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर जाते।
मरकुस 12:28-34 को देखिए; शास्त्री प्रभु को परमेश्वर की आज्ञाओं के विषय फँसाना चाहते हैं; उस वार्तालाप के अंत में प्रभु उस प्रश्न करने वाले शास्त्री से कहता है, जिसने प्रभु के उत्तरों को बिना कोई अन्य प्रश्न उठाए स्वीकार कर लिया था, “जब यीशु ने देखा कि उसने समझ से उत्तर दिया, तो उस से कहा; तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं: और किसी को फिर उस से कुछ पूछने का साहस न हुआ” (मरकुस 12:34)। अर्थात, प्रभु उस शास्त्री से कह रहा था कि परमेश्वर की आज्ञाओं की सही समझ को स्वीकार करने के कारण तू परमेश्वर के राज्य से दूर नहीं है, अब अपने इस किताबी ज्ञान को व्यावहारिक भी बना ले, इसे अपने जीवन में लागू कर ले, परमेश्वर की आज्ञाओं को मान ले, और तू परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर लेगा।
उपरोक्त बातों से हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर का राज्य या स्वर्ग का राज्य, प्रभु यीशु जिसकी बात करता और सिखाता था, वह प्रभु को स्वीकार करना, उसकी आज्ञाकारिता में हो जाना, उसे समर्पित हो जाना है, जो कि यूहन्ना 1:12-13 के भी अनुरूप है – प्रभु पर लाए गए विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान बनना, उसके राज्य में उसके साथ रहने के हकदार हो जाना।
प्रभु यीशु ने अपने पकड़वाए जाने से कुछ ही पहले अपने शिष्यों से यूहन्ना 14:18-20 में यह भी कहा: “मैं तुम्हें अनाथ न छोडूंगा, मैं तुम्हारे पास आता हूं। और थोड़ी देर रह गई है कि फिर संसार मुझे न देखेगा, परन्तु तुम मुझे देखोगे, इसलिये कि मैं जीवित हूं, तुम भी जीवित रहोगे। उस दिन तुम जानोगे, कि मैं अपने पिता में हूं, और तुम मुझ में, और मैं तुम में।” अर्थात अदृश्य रूप में प्रभु अपने शिष्यों के साथ अपने बलिदान और पुनरुत्थान के बाद से ही सदा बना रहने का वायदा करता है, और तब से लेकर आज तक बना हुआ भी है।
प्रभु यीशु के क्रूस पर दिए गए बलिदान, और उसके मृतकों में से पुनरुत्थान के साथ ही समस्त मानव जाति के लिए उद्धार का, स्वर्ग में प्रवेश का, मार्ग खुल गया और उपलब्ध हो गया, और वे प्रभु में लाए गए विश्वास और पापों से पश्चाताप के द्वारा उसमें प्रवेश पा सकते थे; स्वर्ग का राज्य या परमेश्वर का राज्य अब उन्हें उपलब्ध था।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए, जब आप मत्ती 16:19 में प्रभु द्वारा पतरस से कही बात को तथा इस पद से पूर्व के पदों में कलीसिया अर्थात मसीही विश्वासियों के समूह के बनाए जाने की बात के सन्दर्भ में देखते हैं, तो प्रभु द्वारा पतरस से कही गई बात को इस प्रकार समझा जा सकता है: “मैं तुझे स्वर्ग के राज्य में लोगों को प्रवेश करवाने की कुंजियाँ, यानि कि उद्धार का सुसमाचार, दूँगा, और जो वह सुसमाचार ग्रहण कर लेगा, अर्थात वह कुंजी ले लेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार खुल जाएगा; जो वह कुंजी, वह सुसमाचार अस्वीकार करेगा, उसके लिए स्वर्ग में प्रवेश का द्वार बंद रह जाएगा” – और हम देखते हैं कि प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस द्वारा पहली बार इस कुंजी के प्रयोग के द्वारा, पतरस द्वारा पहला सुसमाचार प्रचार किए जाने के परिणामस्वरूप तीन हज़ार लोगों ने पश्चाताप किया प्रभु को ग्रहण किया, प्रभु यीशु के शिष्य बन गए (प्रेरितों 2:41) और पतरस द्वारा उन्हें दी गई उस सुसमाचार की कुंजी के उनके स्वीकार कर लेने से उनके लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश का द्वार खुल गया।
यही सन्दर्भ मत्ती 16:28 पर भी लागू होता है। प्रभु यीशु ने जिस समय यह बात कही थी, उस समय वहां उपस्थित लोगों में से बहुतेरे लोग पतरस के इस पहले प्रचार किए जाने, और कलीसिया की स्थापना होने के समय तक जीवित रहे होंगे, और संभव है उन में से अनेकों प्रेरितों 2 अध्याय की इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी भी रहे होंगे। उन्होंने मृत्यु का स्वाद चखने के पहले ही स्थापित होते देख लिया; परमेश्वर के पुत्र, प्रभु यीशु के राज्य के आगमन को, लोगों द्वारा प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास के द्वारा प्रभु को उन लोगों के जीवनों में प्रवेश करते और उनके जीवनों को परिवर्तित करते हुए देख लिया। और साथ ही, जैसा प्रभु यीशु ने शिष्यों से प्रतिज्ञा की, वह अपने चेलों के साथ तब भी था और आज भी है। इस प्रकार मत्ती 16:28 की सभी बातें पतरस के पहले प्रचार के समय बनी पहली कलीसिया में पूरी हो जाती हैं। इसकी पूर्ति के लिए केवल प्रभु यीशु के दूसरे आगमन को ही लेने की आवश्यकता नहीं है – जो इसे स्वीकार करने में आने वाली कठिनाई का कारण होता है।
यह एक बार फिर से इस तथ्य की पुष्टि है कि परमेश्वर के वचन को समझने में त्रुटियों से बचने के लिए प्रभु के वचन को सदा ही उसके सन्दर्भ में तथा अन्य संबंधित पदों और शिक्षाओं के साथ ही देखना और समझाना चाहिए।
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Understanding "Tasting Death" Stated by Lord in Matthew 16:28
Question: How do we understand the Lord Jesus' statement in Matthew 16:28 "Assuredly, I say to you, there are some standing here who shall not taste death till they see the Son of Man coming in His kingdom"?
Answer:
To understand the statement of the Lord Jesus related to the Lord's Kingdom, or the Kingdom of Heaven, we need to keep in mind some other statements as well. It is a general tendency that as soon as we come across the phrase "Kingdom of Heaven" or "Kingdom of God", we start thinking of and understanding it as referring to the future Kingdom of God that will be established at the end of the world and after its final judgement. There is nothing wrong with this, it is okay to think along these lines, but here this is not the only understanding of what the Lord has said. Because if this seen as the only possible explanation, then this joins it to the second coming of the Lord, which is an event of an uncertain date, and people have been waiting for it for nearly 2000 years. Therefore, the understanding the Lord’s statement of Matthew 16:28 in that context seems impractical, and difficult to accept, leading to the confusion related to the acceptance of this statement of the Lord. But if we look at Matthew 21:31, where the Lord Jesus while responding to His opponents and critics says, “… Jesus said to them, "Assuredly, I say to you that tax collectors and harlots enter the kingdom of God before you.” We see here that the Lord Jesus is referring to the entry of tax-collectors and harlots into the Kingdom of Heaven/God in the present continuous tense, and not the future tense (‘they will enter’), nor of any uncertainty (‘will be able to enter’). The evident implication is that at the very time when the Lord Jesus was saying this, the entry into the Kingdom of Heaven/God was happening, it was underway. Therefore, to understand that the only interpretation of the statement ‘entry into the Kingdom of Heaven/God’ was to see it as a future event would not be a factual interpretation, or the only applicable meaning.
To understand this statement of the Lord given in Matthew 16:28, consider some things the Lord Jesus had said regarding the Kingdom of God or the Kingdom of heaven, during His time of Ministry on earth:
“Now after John was put in prison, Jesus came to Galilee, preaching the gospel of the kingdom and saying, 'The time is fulfilled, and the kingdom of God is at hand. Repent, and believe in the gospel'" (Mark1:14-15). The Lord began His ministry with the call to repentance, since “Kingdom of God is at hand” – pay attention to the words of the Lord, the kingdom is not in the distant future, but is at hand – it’s time has come; He did not say that the kingdom is going to come, rather, that the time is fulfilled and it is at hand.
The Lord Himself says in Luke 11:20 "But if I cast out demons with the finger of God, surely the kingdom of God has come upon you"; implying that the presence of the Lord and His working shows that the Kingdom of God is present. Sometime later, "Now when He was asked by the Pharisees when the kingdom of God would come, He answered them and said, "The kingdom of God does not come with observation; nor will they say, 'See here!' or 'See there!' For indeed, the kingdom of God is within you."" (Luke 17:20-21 – the ‘within you’ here can also be translated ‘amongst you’ or ‘in your midst’ – as is done in HCSB, ESV2011, NASB, EBR, LEB, NET, TS2009 translations). At the beginning of His ministry the Lord says that the Kingdom if God is at hand; during the ministry, He teaches the learned Pharisees, the scholars of God's Word, that the Kingdom of God does not come like a thing or an event, but was already present amongst them right at that very moment, implying it was amongst them because of the presence of the Lord amongst them. If they believed in the Lord, if they accepted the Lord, then they would enter the Kingdom of God.
Look at Mark 12:28-34; the Scribes want to trap the Lord regarding the commandments of God; at the end of this conversation the Lord says to that one Scribe who had asked Him the question and then had unquestioningly accepted the Lord's answers as correct, “Now when Jesus saw that he answered wisely, He said to him, "You are not far from the kingdom of God." But after that no one dared question Him” (Mark 12:34). The Lord Jesus was saying to that Scribe that by virtue of having accepted the correct understanding of God's commandments, you are quite near to the Kingdom of God, now take the next step and turn this theoretical knowledge into a practical experience, apply your knowledge in your life practically, obey the commandments of the Lord, and you will enter the Kingdom of God.
From the above we can understand that the Kingdom of God or the Kingdom of heaven, that the Lord Jesus talked and taught about, it was accepting the Lord as Savior, coming into His obedience, becoming submissive to Him, which is in accordance with John 1:12-13 – becoming a child of God by coming into faith in Him, and thereby becoming entitled to be with Him in His Kingdom.
A short while before His being betrayed and caught for crucifixion, the Lord Jesus in John 14:18-20 also said to His disciples: “I will not leave you orphans; I will come to you. "A little while longer and the world will see Me no more, but you will see Me. Because I live, you will live also. At that day you will know that I am in My Father, and you in Me, and I in you.” In other words, the Lord promises His disciples to always be with them after His sacrifice and resurrection. Although unseen, yet since then He always has been with His disciples.
Through the sacrifice of the Lord Jesus on the Cross, and His resurrection from the dead, the way to salvation, to entering heaven got opened and became available for all of mankind, and anyone can now enter through faith in Him and repentance from their sins; i.e. the Kingdom of heaven or the Kingdom of God was now available to everyone.
Keeping these things in mind, when you see what the Lord Jesus said to Peter in Matthew16:19 and in the preceding verses in context of the formation of the Church, i.e. the body of Christian Believers, then that which the Lord Jesus said to Peter can be paraphrased and understood as follows: “I will give to you the keys to get people into heaven, i.e. the way to salvation, and whosoever accepts that key, i.e. the gospel of salvation, the door to enter heaven will open for that person; but the one who rejects that key, i.e. rejects the gospel of salvation, the door to enter heaven will be closed for that person” – and we see in Acts 2 that at the first using the key of the gospel i.e. preaching of the gospel done by Peter, three thousand people repented and accepted the Lord, and became His disciples (Acts 2:41), i.e. by accepting the key of the gospel, the door to enter heaven was opened for them.
The same context also applies to Matthew 16:28. At the time when the Lord Jesus had said this thing, many of those who were then present there would also have been present at the time of Peter's first preaching, and would have been living till the establishing of the first Church, and it is quite possible that many of them would have been witnesses of this incidence of Acts 2. These witnesses then would have seen the arrival of the Kingdom of the Son of God, the Lord Jesus Christ, into the lives of those coming into faith in the Lord Jesus, and these witnesses would have seen the transformation it brought in the lives of those who came to faith in the Lord Jesus – all this before the witnesses themselves got to taste death. Moreover, as the Lord Jesus had promised, He was with His disciples then and is with them even now. In this manner all aspects of Matthew 16:28 are fulfilled in the establishment of the Church through the first preaching of Peter in Acts 2; and there is no necessity to see this in context of the second coming of the Lord – which is the greatest obstacle in accepting this statement, as the only valid fulfilment if this statement.
This again goes to show that to avoid falling into errors in understanding God's Word, it must always be seen and studied in its context and in light of other related verses or passages of the Bible.
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