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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 21
पिछले लेख में हमने मसीही होने के बाइबल में दिए गए अर्थ को देखा था, कि इसका अर्थ होता है मसीह यीशु का शिष्य; जो कि सामान्यतः माने और समझे जाने वाले अर्थ, वह व्यक्ति जो ईसाई या मसीही धर्म को मानता है उसकी मान्यताओं का निर्वाह करता है, से बिलकुल भिन्न है। हमने यह भी देखा है कि मसीही विश्वास, अर्थात नया-जन्म प्राप्त करने के द्वारा प्रभु यीशु का अनुयायी बनना, और ईसाई या मसीही धर्म एक ही बात नहीं हैं। ईसाई या मसीही धर्म मनुष्यों द्वारा गढ़ा गया है; प्रभु यीशु मसीह ने कभी इसे आरम्भ नहीं किया, और न ही कभी इसके बारे में कोई प्रचार किया अथवा शिक्षा दी; और यह पूर्णतः मनुष्यों द्वारा बनाए गए डिनॉमिनेशनों की रीतियों, परम्पराओं, त्यौहारों, और रिवाज़ों का निर्वाह करने के बारे में है। ईसाई या मसीही धर्म में डिनॉमिनेशनों की रीतियों, परम्पराओं, त्यौहारों, और रिवाज़ों का निर्वाह करना तथा मानवीय अधिकारियों की इच्छा और निर्देशों का हर हाल में पालन करना, बाइबल के लेख, शिक्षाओं, और प्रभु यीशु तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता से बढ़कर आवश्यक और अनिवार्य होता है; डिनॉमिनेशनों और उनके अधिकारियों के नियम पहले आते हैं, बाइबल की बातें बाद में, और उन नियमों के अनुसार उन्हें तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने के द्वारा आती हैं। हमने प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई महान आज्ञा (मत्ती 28:19-20) से भी देखा था कि प्रभु ने अपने सभी शिष्यों, बाइबल के अनुसार मसीहियों, को क्या ज़िम्मेदारियाँ दी हैं। बिना इस आधारभूत भिन्नता, अर्थात, साँसारिक दृष्टिकोण से ईसाई या मसीही होने की तुलना में बाइबल के अनुसार मसीही विश्वासी होने के बारे सीखे, और इसे समझे बिना सुसमाचार में विश्वास करना क्या होता है, यह समझ पाना संभव नहीं है।
हमने कुछ पहले के लेखों में यह देखा था कि प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में, यहूदियों को यह प्रत्याशा थी कि प्रतिज्ञा किये हुए मसीहा, छुड़ाने वाले मसीह के प्रकट होने का समय पूरा हो गया है, और वह किसी भी समय आ सकता है (लूका 3:15)। लेकिन उनकी आशा थी कि वे रोमी शासन से छुड़ाए जाएँगे, और इस्राएल राज्य पर शासन फिर से उन्हें सौंप दिया जाएगा (लूका 19:11; 24:21; प्रेरितों 1:6)। इसलिए, जब प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई परमेश्वर का राज्य निकट होने के कारण पश्चाताप करने के आह्वान के साथ आरम्भ की (मरकुस 1:15), तो लोगों ने यही समझा कि प्रभु उन्हें रोमी अधीनता से छुड़ाने, और इस्राएल – परमेश्वर के लोगों के शासन को उनके हाथों में कर देने की बात कर रहा है; और उनके लिए यही अच्छा समाचार या सुसमाचार था। प्रभु यीशु के समस्त प्रचार और शिक्षाओं के बावजूद, लोगों को यह एहसास नहीं हुआ कि वह लोगों के पाप की बन्धुआई से छुड़ाए जाने की बात कर रहा था, जिससे कि वे परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकें, जो कि केवल नया-जन्म पा लेने के द्वारा ही संभव है (यूहन्ना 3:3, 5)। पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा से भरे जाने और उसकी सामर्थ्य पाने के बाद ही प्रभु के शिष्य यह समझ सके और फिर इसका प्रचार कर सके कि पापों से पश्चाताप करना और सुसमाचार में विश्वास करना आवश्यक है (प्रेरितों 2:37-38), अर्थात सुसमाचार में विश्वास की अनिवार्यता। तब ही, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और मार्गदर्शन द्वारा, सुसमाचार का वास्तविक अर्थ शिष्यों को समझ में आया।
इससे पहले कि हम सुसमाचार को तथा उस में विश्वास करने को समझें, इस विषय से थोड़ा सा हटकर, इस से सम्बन्धित एक अन्य विषय पर कुछ विचार कर लेना आवश्यक है ताकि मसीही, अर्थात प्रभु यीशु का शिष्य होने और सुसमाचार पर विश्वास करने से सम्बन्धित कुछ अन्य बहुत प्रचलित किन्तु गलत धारणाओं को पहचान लें, और सही बात को समझ लें। बाइबल की शिक्षाओं में से एक शिक्षा की सामान्यतः की जाने वाली गलत व्याख्या और प्रचार के बिलकुल विपरीत, पवित्र आत्मा को प्राप्त करना और पवित्र आत्मा का बपतिस्मा कोई भिन्न कार्य या पृथक अनुभव नहीं हैं; ये व्यक्ति के नया-जन्म पाने के पल ही में, साथ ही उसके लिए पूरे हो जाते हैं। प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, जिस पल से वह अपने पापों से पश्चाताप करता है, प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता ग्रहण करता है, और अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर के उसकी और उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीने का निर्णय लेता है, वह उसी पल से परमेश्वर की सँतान हो जाता है (यूहन्ना 1:12-13), अर्थात परमेश्वर के परिवार का एक अंग हो जाता है। साथ ही, उसी पल से वह पवित्र आत्मा का मंदिर भी बन जाता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19)। उसके विश्वास करने और उद्धार पाने के पल से ही पवित्र आत्मा उसमें आकर स्थाई रीति से निवास करने लग जाता है (प्रेरितों 19:2; गलतियों 3:2; 4:6; इफिसियों 1:13-14)। क्योंकि विश्वासी के द्वारा प्रभु का जन होने का दावा करना और यीशु को प्रभु कह पाना, केवल पवित्र आत्मा के द्वारा ही संभव है (रोमियों 8:9; 1 कुरिन्थियों 12:3), इसलिए उद्धार पाने के पल से ही उसमें पवित्र आत्मा को विद्यमान होना ही है; इसके अतिरिक्त यह संभव नहीं है। बाइबल की बिलकुल स्पष्ट शिक्षा है कि पवित्र आत्मा किसी के द्वारा किया गए कर्मों से उसे नहीं मिलता है, बल्कि परमेश्वर द्वारा भेंट या उपहार के समान दिया जाता है (प्रेरितों 2:33, 38-39; 5:32; 2 कुरिन्थियों 1:21-22; 5:5; गलतियों 4:6), और उन्हें दिया जाता है जो विश्वास में आ जाते हैं (गलतियों 3:2, 5, 14), अर्थात प्रभु यीशु के शिष्य बन जाते हैं। प्रभु यीशु के आरम्भिक विश्वासियों को पवित्र आत्मा मिलने को ही स्वयं प्रभु ने पवित्र आत्मा से बपतिस्मा कहा था (प्रेरितों 1:5)। और बाद में, पतरस की सेवकाई के द्वारा जिन लोगों ने नया-जन्म पाया, उनके उद्धार पाते ही साथ ही पवित्र आत्मा को प्राप्त करने को भी पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना कहा गया (प्रेरितों 11:15-17)। पौलुस ने इसे 1 कुरिन्थियों 12:13 में, विश्वास में आने के द्वारा देह, अर्थात कलीसिया का एक भाग होने के सन्दर्भ में, भूत काल में ‘बपतिस्मा लिया’ कहा, न कि भविष्य की किसी प्रत्याशा के समान उल्लेख किया, और न ही इसे कोई ऐसी भावी संभावना बताया जिसे प्राप्त करने के लिए लालसा रखनी चाहिए और प्रयास करना चाहिए। इसलिए, प्रभु और उसके प्रेरितों द्वारा दी गई इसकी व्याख्या या समझ से हटकर, इसे कोई भिन्न व्याख्या अथवा समझ देना, जान-बूझकर परमेश्वर के वचन को काटना है, उस पर अपनी ही समझ और व्याख्या को थोपना है, औरों को गलत शिक्षाओं में बहकाना है।
अगले लेख में हम देखेंगे कि वर्तमान में हमारे लिए सुसमाचार का क्या अर्थ है, और फिर उसके बाद हम सुसमाचार में विश्वास करने के अर्थ के बारे में सीखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 21
In the previous article we had seen the Biblical meaning of being a Christian, that it is to be a disciple of Christ; which is quite unlike the commonly believed and accepted meaning associated with those who profess to be the followers of the Christian religion and fulfils its requirements. We have also seen that the Christian Faith, being Born-Again to become a follower of the Lord Jesus, and the Christian religion are not the same. Christan religion being man-made; it has not been given, preached, or taught by the Lord Jesus at any time, and is all about following and fulfilling man-made denominational rites, rituals, festivals, and observances. In the Christian religion following of denominational rules, regulations, festivals, and observances, and the implementation of the will and directives of human leadership takes over-ruling precedence over Biblical text, teachings, and obedience to the Lord Jesus and His Word; the rules and regulations of the denominations and their officials come first, and only after them come the things written in the Bible, and that too only after they have been suitably contorted and deformed to conform with the denominational rules and regulations. We also saw from the Lord’s Great Commission to His disciples (Matthew 28:19-20), the responsibilities He has given to all His disciples, His followers, the Biblical Christians. Without learning about and understanding this fundamental difference between the actual Biblical meaning, in stark contrast to the worldly meaning of being a Christian, it is not possible to understand what it actually means to believe in the gospel.
In the earlier articles, we have seen that during the time of the earthly ministry of the Lord Jesus, the Jews had an expectation that the time of the arrival of the promised Messiah, Christ the deliverer had been fulfilled, and they were living in anticipation of his arrival at any time (Luke 3:15). But they were expecting to be delivered from the Roman rule, and the rule over Israel being reverted back into their hands (Luke 19:11; 24:21; Acts 1:6). So, when the Lord Jesus began His ministry with the call to repent since the Kingdom of God was at hand (Mark 1:15), the people thought that the Lord was talking about delivering them from Roman rule, and handing over the Kingdom of Israel – Kingdom of God’s people, back into their hands; and to them that was what the good news, the gospel was. It did not strike them at all, despite all the preaching and teaching done by the Lord Jesus, that He was talking about people being delivered from the bondage of sin and thereby become acceptable to enter the heavenly Kingdom of God, which can only be through being Born-Again (John 3:3, 5). It was after the followers of the Lord Jesus had been filled and empowered by the Holy Spirit on the day of Pentecost, that the disciples of the Lord understood and preached the necessity of repentance and believing in the Lord Jesus for remission of sins (Acts 2:37-38), i.e., the imperativeness of believing in the gospel. That is when the true meaning of the gospel became apparent to the disciples of the Lord, under the guidance and power of the Holy Spirit.
Before we move ahead with understanding the gospel and about believing in it, a quick digression to a related topic is essential to avoid and/or clear up some other very common misconceptions related to the being a Christian, i.e., a disciple of the Lord Jesus, and believing in the gospel. Quite contrary to the very prevalent and commonly taught misinterpretation of the Bible, receiving and being baptized by the Holy Spirit are not any separate experiences or phenomenon; they happen at the moment a person is Born-Again. Every Born-Again Christian Believer, from the moment he repents of his sins, accepts the Lord Jesus as His personal Savior, and submits his life to the Lord to live in obedience to Him and His Word, becomes a child of God (John 1:12-13), i.e., a part of the family of God. At the same moment he also becomes the Temple of the Holy Spirit (1 Corinthians 3:16; 6:19). The Holy Spirit comes to permanently reside in him from the moment of his believing and being saved (Acts 19:2; Galatians 3:2; 4:6; Ephesians 1:13-14). Since it is only through the Holy Spirit that the Believer can claim to belong to the Lord and call Jesus as Lord (Romans 8:9; 1 Corinthians 12:3), therefore, the Holy Spirit has to be in him since the moment of his salvation; it cannot be otherwise. The clear teaching of the Bible is that the Holy Spirit is not received through any works done by anyone, but is given by God as a gift (Acts 2:33, 38-39; 5:32; 2 Corinthians 1:21-22; 5:5; Galatians 4:6), and given by Him only to those who come into faith (Galatians 3:2, 5, 14), i.e., to the disciples of the Lord Jesus. This receiving of the Holy Spirit by the initial disciples of the Lord on the day of Pentecost was referred to by the Lord Jesus as being baptized by the Holy Spirit (Acts 1:5). And later, when those who are Born-Again through the ministry of Peter received the Holy Spirit at the moment of their salvation, it has again been called the “Baptism of the Holy Spirit” (Acts 11:15-17) in the Bible. Paul has referred to it in the past tense as ‘baptized’ in 1 Corinthians 12:13, in context of being made a part of the body, the Church, by coming into faith; instead of it being mentioned as a future anticipation, or something one should desire and strive for. To interpret this in a manner different from what the Lord Jesus and His Apostles have done, is to deliberately contradict God’s Word and impose one’s own understanding and interpretation on God’s Word to mislead others into errors.
In the next article we will see what the term gospel means for us today, and then we will see about the meaning of believing in the gospel.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.