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शुक्रवार, 30 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 42c – Women’s Ministry / स्त्रियों की सेवकाई

बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?

भाग 3 – स्त्रियों की सेवकाई

    ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने महिलाओं को कोई सेवकाई नहीं दी है, या उन्हें वचन की समझ नहीं है, या वे वचन के बारे में प्रचार नहीं कर सकती हैं – ये सारी बातें प्रभु ने उन्हें भी दी हैं, भरपूरी से दी हैं, और उनका भी वचन की इस सेवकाई में बहुत बड़ा योगदान है। किन्तु प्रभु ने उनके लिए यह सेवकाई का स्थल कलीसिया नहीं वरन घर-परिवार ठहराया है। उनके अपने घरों (2 तीमुथियुस 1:5), बच्चों में, सन्डे-स्कूल में, अन्य महिलाओं के मध्य में (तीतुस 2:3-5), आदि स्थानों में उनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान और सेवकाई है जो कोई पुरुष कभी नहीं कर सकता है। बच्चों को जिस कोमलता और धैर्य के साथ सिखाना और समझाना पड़ता है, उनकी सहनी पड़ती है, उन्हें प्रोत्साहित करना और उनकी समझ के अनुसार उन से व्यवहार करना पड़ता है, वह सामान्यतः पुरुषों के बस की बात नहीं है। बच्चों को ममता, लाड़ और प्यार के साथ, उनके बचपन से ही वचन और विश्वास के लिए जो नींव स्त्रियाँ दे सकती हैं वह कोई पुरुष अपनी समझ, बुद्धि, और ज्ञान के साथ कभी नहीं दे सकता है।


    इस बात के दो उत्तम उदाहरण वचन में हैं, एक पुराने और दूसरा नए नियम में। पुराने नियम का उदाहरण मूसा का है, जिसे शिशु अवस्था से ही फिरौन की पुत्री ने अपना लिया था, किन्तु उसकी देखभाल के लिए उसकी अपनी माँ ही नियुक्त कर दी गई (निर्गमन 2:5-10)। परिणाम क्या हुआ यह निर्गमन 2:11 में ही देखिए, तथा साथ ही प्रेरितों 7:23 और इब्रानियों 11:24-26 को भी देखिए – जब मूसा जवान हुआ, तो उसने मिस्रियों को नहीं वरन इब्रियों को ही अपने भाई-बन्धु समझा, और उनके कष्टों से उन्हें छुड़ाने की ठान ली। यदि उसकी माँ ने उसके वास्तविक लोगों और परमेश्वर के बारे में उसे न बताया और सिखाया होता, तो शिशु अवस्था से ही राजमहल में पलने और बढ़ने वाला मूसा क्योंकर इब्रियों को अपने भाई-बन्धु मानता और उन्हें उनके कष्ट से छुड़ाने की इच्छा रखता? दूसरा उदाहरण नए नियम में तीमुथियुस का है, जिसका हवाला ऊपर दिया गया है। यद्यपि तीमुथियुस का पिता यूनानी था (प्रेरितों 16:1) किन्तु फिर भी, जैसा 2 तीमुथियुस 1:5 से प्रकट है, उसका युवावस्था में ही निष्कपट विश्वास रखना, उसकी माँ और नानी के प्रभाव से था। इन दोनों उदाहरणों में हम बच्चों के जीवन पर स्त्रियों के दूरगामी प्रभाव को स्पष्ट देखते हैं, जो कोई पुरुष द्वारा कर पाना यदि असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है।


    इसी प्रकार से अन्य महिलाओं के मध्य में वचन की सेवकाई करना भी पुरुषों के लिए कठिन है, और उचित भी नहीं है। स्त्रियाँ एक-दूसरे से जिस प्रकार अपने मन की बातें, परिस्थितियाँ, और समस्याएँ कह लेती हैं, समझ सकती हैं, और समाधान निकाल सकती हैं, वह पुरुष नहीं कर सकते हैं। इसीलिए तीतुस 2:3-5 में स्त्रियों को ही अन्य स्त्रियों को व्यक्तिगत परिस्थितियों में वचन सिखाने के लिए कहा गया है। साथ ही पुरुषों के लिए स्त्रियों के साथ संपर्क में रहना कई प्रकार के आरोपों और अनुचित परिस्थितियों की संभावनाओं को उत्पन्न कर सकता है, तथा शैतान को उनकी मसीही गवाही खराब करने के अवसर प्रदान कर सकता है। इसलिए परमेश्वर ने जो सेवकाई स्त्रियों के लिए निर्धारित की है, उसे पुरुष चाह कर भी कभी नहीं कर सकते हैं; वह केवल स्त्रियों के लिए ही संभव है। ये बहुत महत्वपूर्ण सेवाकाइयाँ हैं जो किसी भी परिवार की स्थिरता, पारिवारिक विश्वास की दशा, और बच्चों के भावी जीवन की दिशा को प्रभावित करती हैं। यह स्पष्ट दिखाता है कि न परमेश्वर और न परमेश्वर का वचन स्त्रियों को सेवकाई से वंचित करता है, और न ही उन्हें सेवकाई के लिए पुरुषों से निम्न दर्जे का समझता है।


    अगले लेख में हम देखेंगे कि परमेश्वर ने अपने वचन में स्त्रियों द्वारा कलीसियाओं में पुलपिट का प्रयोग करने के लिए क्या लिखवाया है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


- क्रमशः 
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According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?

Part 3 – Women’s Ministry

 

    It is not that God has not given any ministry to the women, or that they do not have an understanding of the Word, or that they are unable to preach from the Word – God has given all of these gifts to them also, given them abundantly, and they too have a very major role to fulfil in this ministry. But the Lord has assigned the home and family as their place of ministry, not the Church. In their own houses (2 Timothy 1:5), amongst children, for the Sunday School ministry, amongst other women (Titus 2:3-5), they have a very important ministry which no man can ever carry out. The tenderness required to handle, teach, and explain to children, the patience that has to be exercised with children, the way they have to be encouraged, and the manner in which they have to handled according to their age, is generally not possible for men to do. The foundation of the Word and Faith that women can provide to children, by dealing with them with maternal feelings, love and care, no man can ever give no matter how intellectual, wise, and knowledgeable he may be.


    There are two very good examples of this in the Scriptures, one in the Old Testament, and the other in the New Testament. The Old Testament example is of Moses, who from his infancy was adopted by the daughter of the Pharaoh, but he was brought up under the care of his own mother (Exodus 2:5-10). You can see the result in Exodus 2:11, and also see Acts 7:23, Hebrews 11:24-26 – when Moses came to be of age, he considered not the Egyptians, but the Hebrews as his people, and decided to deliver them from their oppression. If his mother had not taught him about his actual people and about God, then because of his upbringing since his infancy in the palace of the Pharaoh, would Moses ever had considered the Hebrews to be his people, and thought of delivering them from their oppression? The second example, from the New Testament, is of Timothy, whose reference has been given above. Although Timothy’s father was a Greek (Acts 16:1), yet as is apparent from 2 Timothy 1:5, his having a genuine faith even in his youth, was because of the influence of his mother and maternal grand-mother. From both these examples we see the long-term effects of women in the lives of children, something which if not impossible, then very difficult for men to achieve.


    Similarly, to minister amongst other women is also not only very difficult but also inappropriate for men to do. The way women can share their hearts, circumstances, and problems with each other, understand and work out solutions to these situations, cannot be done by men. That is why in Titus 2:3-5, women have been asked to share and teach other women at a personal level. Moreover, for men to remain in close contact with women can provide the occasion for many kinds of allegations and inappropriate circumstances, and give Satan the opportunity to spoil their Christian witness. These are all very important ministries, that affect the stability of any family, the state of Faith of the family, and future direction the life of children will take. This very clearly shows that neither God, nor His Word has deprived women from having an important role in ministry, and neither is their ministry in any way inferior to that of men.


    In the next article we will see what God has got written in His Word about the women using the pulpit in the Churches.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


- To Be Continued 
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