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प्रभु की मेज़ - अभिमान, पाप का प्रमाण
हम पहले देख चुके हैं कि कुरिन्थुस की कलीसिया के नाम लिखी इस पत्री में जिस पहली गलती को पौलुस संबोधित करता है, वही यहाँ पर उनके द्वारा प्रभु भोज के गंभीर दुरुपयोग का कारण भी है - कलीसिया में गुट-बाज़ी और विभाजन। यह छोटा और महत्वहीन प्रतीत होने वाला पाप - कलीसिया के कुछ लोगों के अन्दर एक ओहदा और पहचान रखने की लालसा, अर्थात, वह स्तर और स्थान चाहना जो परमेश्वर ने उन्हें प्रदान नहीं किया था, शैतान के द्वारा कलीसिया तथा विश्वासियों के व्यक्तिगत जीवनों में विनाशकारी परिणामों को ले आया। वास्तविकता में, यह पाप वही था जो प्रधान स्वर्गदूत लूसिफर ने स्वर्ग में किया, जिसके कारण उसे निकाल बाहर किया गया और वह शैतान बन गया। मुख्य बात यह है कि कोई भी पाप कभी भी छोटा और महत्वहीन नहीं होता है। प्रत्येक पाप शैतान को दिया गया एक निमंत्रण और उसके लिए खोला गया एक द्वार है कि वह आए और उस पाप को करने वाले व्यक्ति तथा उसमें उसके संगियों के जीवनों में आकर अपने विनाश को कार्यान्वित करे। पवित्र आत्मा के द्वारा पौलुस उन्हें 1 कुरिन्थियों 11:23 और आगे के पदों में उनके द्वारा प्रभु भोज के दुरुपयोग तथा इस बात के दुष्प्रभावों को सुधारने के बारे में बताता और सिखाता है। संक्षेप में, पौलुस उनके सामने प्रभु यीशु द्वारा प्रभु भोज को स्थापित करने को दोहराता है, और अनुचित रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेने के दुष्परिणामों को बताता है। किन्तु पद 23 में पौलुस द्वारा कहा गया आरंभिक वाक्य विचार तथा मनन करने के योग्य है, क्योंकि यह हमारे सामने पाप के एक और दुष्परिणाम को उजागर करता है - अभिमान और हृदय की कठोरता।
पौलुस, पद 23 में उन बहकाए गए और गलत मार्ग पर डाल दिए गए विश्वासियों को सुधारने का संबोधन “क्योंकि यह बात मुझे प्रभु से पहुंची, और मैं ने तुम्हें भी पहुंचा दी...” कहने के द्वारा करता है; जिसका तात्पर्य है कि अब वह जो कहने तथा सिखाने जा रहा है वे उसके अपने विचार और समाधान नहीं हैं, परंतु जो प्रभु ने उसे दिया और उन्हें बताने के लिए कहा है। पौलुस, एक प्रेमी और धीरजवंत पिता के समान, अपने आत्मिक बच्चों की सहायता करने और उन्हें शैतान के हाथों, जहाँ उन्होंने अपने आप को फंसा लिया है, से छुड़ाने के प्रयास में लगा हुआ है। किन्तु कुरिन्थियों के विश्वासियों में से कुछ लोग उसकी अनदेखी करने, उसके परामर्श की अवहेलना करने, और उसे उसका स्थान, जो उनके मध्य उसे मिलना चाहिए था नहीं देने में लगे हुए हैं। पौलुस ने कुरिन्थुस में डेढ़ साल रहकर परिश्रम किया था, उन्हें परमेश्वर का वचन सिखाया था (प्रेरितों 18:1, 11), और उनसे उसका गहरा लगाव भी हो गया था; इसकी तुलना में पौलुस ने थिस्सलुनीकिया में केवल “तीन सबत” ही प्रचार किया (प्रेरितों 17:1-2)। किन्तु जब हम 1 थिस्सलुनीकियों 1 अध्याय को पढ़ते हैं, तो कुरिन्थुस की मण्डली की तुलना में उनके गुणों और उनकी सराहना को बहुत उच्च पाते हैं।
पौलुस द्वारा कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी गई दोनों पत्रियों में, वह उन्हें बारंबार याद दिलाता और समझाने का प्रयास करता है, परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए प्रभु के प्रेरित होने के ओहदे को, और उसके आत्मिक अधिकार के बारे में - जिसे उसने उन पर कभी भी नहीं थोपा। परंतु जितना समय पौलुस ने उनके मध्य बिताया था, उनके प्रति जो लगाव उसे हो गया था, और उन लोगों को उसे जानने और समझने का जो अवसर मिला था, उसके कारण पौलुस को यह सब कहने और करने की कोई आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी, उन्हें स्वतः ही सत्य को समझ लेना चाहिए था। पौलुस इस पत्री का आरंभ उन्हें अपने प्रभु की ओर से प्रेरित नियुक्त किए जाने की बात के साथ करता है (1 कुरिन्थियों 1:1)। वह 1 कुरिन्थियों 4:1-5 में संकेत करता है कि कुछ बात थी जिसके विषय कुरिन्थुस के विश्वासी उसकी कोई गलती कह रहे थे और उसके विरुद्ध विचार बना रहे थे; और 4:1-2 से लगता है कि यह बात पौलुस की सेवकाई और उसके प्रभु का भण्डारी होने से संबंधित थी। फिर पौलुस उन्हें 1 कुरिन्थियों 4:15-21 में उनका आत्मिक पिता होने के अधिकार से उन्हें डाँट लगाता है, और 4:18 में उनमें से कुछ के अंदर पनप रहे घमण्ड का उल्लेख करता है। पौलुस 1 कुरिन्थियों 9:1-2 में फिर से अपने प्रेरित होने और आत्मिक अधिकार रखने को दोहराता है; यहाँ 9:1-18 से प्रतीत होता है कि उस पर अपने स्थान और अधिकार का प्रयोग उन पर निर्भर होकर जीवन जीने, उनके संसाधनों को अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करने का दोष लगाया जा रहा था। वह उनके इस दोषारोपण का घोर विरोध करता है, और उन्हें स्पष्ट करता है कि उनका उसके बारे में यह सोचना निराधार और गलत है, और फिर वह 9 अध्याय के अंत में उन्हें समझाता है कि वह प्रभु का एक अनुशासित सेवक है, और उसे जो करना चाहिए तथा, जो नहीं करना चाहिए, उससे वह भली-भांति अवगत है (9:24-27)। फिर अध्याय 11 के आरंभ में वह उन्हें याद दिलाता है कि उसका आदर्श, जिसका वह अनुसरण करता था, प्रभु यीशु है, और उन्हें भी उसके समान ऐसा ही करना चाहिए (11:1-2), जिससे एक बार फिर यह संकेत मिलता है कि कुरिन्थुस की कलीसिया के कुछ लोग उससे और उसकी शिक्षाओं से प्रसन्न नहीं थे, और यही सोचते थे कि वह अपनी ओर से कहता और करता रहता था। अब यहाँ, 11:23 में आकर, वह फिर से यह आवश्यक समझता है कि उन्हें बता दे कि जो कुछ भी वह उन्हें कह और सिखा रहा था, वह उसके अपने विचार नहीं थे, परन्तु उनके लिए प्रभु द्वारा दिया गया संदेश था।
कुरिन्थुस की मण्डली के कुछ लोगों के उसके प्रति रखे गए इस व्यवहार और रवैये की तुलना में, पौलुस चाहे परमेश्वर के वचन और सिद्धांतों को लेकर खरा और स्पष्टवादी था, किन्तु उनके प्रति दीन बना रहा, समझ-बूझ रखे रहा, उसके प्रति उनकी गलतफहमियों और गलत धारणाओं के प्रति धैर्य रखने वाला बना रहा, जिससे कि वह उन्हें उनकी गलतियों से और शैतान के हाथों से, जहाँ उन्होंने अपने आप को फंसा दिया था, निकाल सके, उन्हें बचा सके। उनमें जो कुछ भी गलत था, केवल उसके बारे ही में नहीं, किन्तु उनके आत्मिक जीवनों में और प्रभु यीशु की कलीसिया होने के नाते, उसके कारण उसने कभी उनके परमेश्वर के नया जन्म पाई हुई संतान होने, मसीही विश्वासी होने पर कोई प्रश्न नहीं उठाया; वरन उन्हें सदा ही उद्धार पाए हुए और परमेश्वर के परिवार के लोग होने को स्मरण दिलाकर उनसे रखी गई अपेक्षाओं को याद दिलाता रहा, इस ज़िम्मेदारी के नाते उन्हें कैसा व्यवहार और जीवन जीना है बताता रहा। यह तुलनात्मक रवैया हमारे सामने एक ठोस प्रकट तथ्य को लेकर आता है, कि पाप के कारण अभिमान, गलतफहमियाँ, गलत धारणाएं, और हृदयों की कठोरता आती है; किन्तु परमेश्वर की भक्ति का जीवन दीनता, धैर्य, सहनशीलता, और समझ-बूझ से काम करने वाला होता है, खरे और स्पष्टवादी होने के बावजूद भी। प्रभु की मेज़ में भाग लेने वालों के लिए इस बात का प्रकट तात्पर्य है कि यदि किसी मसीही के जीवन में अभिमान, असहनशीलता, पीठ-पीछे चुगली और बुराई करना, किसी विश्वासी को नीचा दिखाने या अपमानित करने की भावना, दूसरों पर दोषारोपण करने की प्रवृत्ति, और हृदय की कठोरता है, आदि हैं, तो फिर उसके जीवन में कोई पाप छिपा हुआ है, जिसका अभी तक उसने प्रभु के साथ समाधान नहीं किया है। और क्योंकि वह पाप झपटा मारकर गिरा देने के अवसर की प्रतीक्षा कर रहा है, इसलिए इससे पहले कि वह कोई विनाश जीवन में लाए, इससे पहले कि वह प्रभु द्वारा दी गई आशीषों को बर्बाद करे, पहले उसे प्रभु के सामने लाकर उसका निवारण कर लें और तब योग्य रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लें।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 13-15
मत्ती 5:1-26
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The Lord’s Table - Arrogance, an Evidence of Sin
We have earlier seen that the first error that Paul takes up and addresses in this letter to the Corinthians, is the same that he points out as the root cause of their grave mishandling of the Lord’s Table - factionalism and divisions in the Church. The seemingly small and insignificant sin - the desire of some members of the Corinthian Church to have approval and recognition in the congregation, i.e., have a status and position, not accorded to them by the Lord in His Church, allowed Satan to bring in very disastrous consequences in the Church as well as the personal life of the Believers. Actually, this sin was the same that Lucifer as the Archangel committed in heaven, for which he was cast out, and became Satan. The fact of the matter is that no sin is small or insignificant; every sin is an invitation extended to Satan along with an opening provided to him to come in and wreak havoc in the life of the person committing the sin and those joining him in it. Through the Holy Spirit, Paul shows them from 1 Corinthians 11:23 onwards how to rectify the error of their mishandling the Holy Communion and its consequences. Essentially, Paul recounts to them the Lord’s setting up of the Holy Communion and its purpose, and tells them about the consequences of unworthily participating in the Lord’s Table. But Paul’s opening sentence in verse 23 is worthy of consideration and pondering over, since it brings to our attention another consequence of sin - arrogance and hardening of hearts.
Paul, in verse 23, begins his correcting the deceived and misled Believers by saying “For I received from the Lord that which I also delivered to you…”, implying that what he is now going to say and teach are not his own thoughts and solution, but what the Lord has told him and asked him to tell them. Paul, like a loving and considerate father, continues to try to help and deliver his spiritual children from the trap of Satan, into which they had fallen; but some amongst the Corinthian Believers continue to ignore him, disregard his advice, and not accord him the place and honor he ought to have had amongst them. Paul had stayed and labored in Corinth for one and a half years (Acts 18:1, 11), teaching them the Word of God and had become attached to them; in contrast he had stayed in Thessalonica for only “three Sabbaths” (Acts 17:1-2). But 1 Thessalonians chapter 1, presents a stark contrast of the qualities and commendations given to the Thessalonian Church in comparison to what we see about the Corinthian Church.
In both the letters written by Paul to the Corinthians, he repeatedly tries to remind and convince them of the status the Lord has given him as the Lord’s Apostle, and, of his spiritual authority - which he has refrained from asserting over them. Whereas for the amount of time Paul had spent amongst them, for the attachment he had developed for them, and since they had the opportunity to personally get to know him over this time-period, this should have been something totally unnecessary. Paul begins this letter by telling them of his apostleship from the Lord Jesus (1 Corinthians 1:1). In 1 Corinthians 4:1-5, he indicates some issue for which the Corinthians were wrongly and unfavorably judging him, and it seems from 4:1-2 that it was related to Paul’s ministry and being a steward of the Lord. Paul then in 1 Corinthians 4:15-21, admonishes them as their spiritual father, while pointing out the arrogance of some in 4:18. In 1 Corinthians 9:1-2, Paul again states his apostleship and spiritual authority; here 9:1-18 seem to indicate that he was being accused of using this status and authority, to live off them, to use their resources for his personal benefit. But he vehemently defends himself and clarifies that their thinking about him in this manner is unfounded and false, and ends chapter 9 by pointing out to them that he was a disciplined servant of the Lord, being well aware of what he ought to do and what not to do (9:24-27). Then again, at the beginning of chapter 11, he reminds them that his role model, the one he emulates, is the Lord Jesus, and they too should do the same (11:1-2), which again hints that some in the Corinthian Church were not happy with him nor agreeing with his teachings, thinking that he was doing it on his own. Now, in 11:23 he again feels it necessary to point out to them that what he was teaching and telling them was not from his own side, but was the Lord’s message to them.
In contrast to the attitude that some in the Corinthian Church had developed towards him, Paul though forthright for the Word of God and doctrines, remains humble, understanding, and willing to put up with their misunderstandings and misconceptions about him, so that he may deliver them from their errors and Satan’s hand into which they had placed themselves. Despite all that was wrong with them, not just about him, but in their spiritual lives and as the Church of the Lord Jesus, he never ever questions their being the Born-Again children of God, being the Christian Believers; rather always keeps reminding them of their being saved and being the family of God, teaches them what was expected of them and how they ought to conduct themselves. This contrast places before us the stark fact that sin brings arrogance, misunderstandings, misconceptions, and hardening of hearts; but godly living brings humility, forbearance, and a tolerant, understanding attitude, even while being forthright and committed to the Word of God. The evident implication for the participants in the Lord’s Table is that if, in the life of a Christian Believer, there is any arrogance, intolerance, back-biting, desire to bring down or humiliate a Believer, casting aspersions on others, a hardening of heart, etc. then there is sin that has not yet been settled in that person’s life, and is lurking to pounce. Instead of letting it simmer inside and wreak havoc at some opportune moment, first bring it to the Lord and settle it before it destroys the blessings of the Lord, and then participate in the Holy Communion in a worthy manner.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 13-15
Matthew 5:1-26
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