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रविवार, 24 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 29 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 15

परमेश्वर के वचन के प्रति अनुचित व्यवहार – 10

 

    परमेश्वर के वचन से विभिन्न उदाहरणों के द्वारा हम परमेश्वर के वचन के पालन में लोगों द्वारा की जाने वाली विभिन्न गलतियों में से कुछ देखते आ रहे हैं। मुख्य बल इस बात पर रहा है कि परमेश्वर चाहता है कि उसके लोग उसके पूर्णतः आज्ञाकारी रहें। इस का अर्थ न केवल परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को करना है, बल्कि उसे उसी विधि से करना भी है, जो परमेश्वर ने उसे करने के लिए निर्धारित की है। परमेश्वर के कार्य को करने के लिए परमेश्वर द्वारा दी गई विधि के स्थान पर मनुष्यों द्वारा बनाई किसी विधि को कभी भी बिलकुल भी लागू नहीं किया जा सकता है। इस बारे में हमने अभी तक जो देखा और सीखा है संक्षिप्त रूप में आज उसको दोहराएँगे, और फिर अगले लेख में निष्कर्ष को देखेंगे।


संक्षेप में ये बातें हैं:

·        परमेश्वर का वचन बाइबल, प्रभु यीशु मसीह का एक स्वरूप है। प्रभु यीशु का एक स्वरूप होने के नाते, यह उतना ही संपूर्ण और सिद्ध है जितना प्रभु यीशु हैं; और इसीलिए इसके साथ कोई छेड़-छाड़, उसमें कुछ जोड़ना या उसमें से कुछ घटना, आदि बिलकुल नहीं किए जा सकते हैं। इस लिखित वचन के साथ ऐसा कुछ भी करना एक तरह से प्रभु परमेश्वर के साथ करना है, और इसीलिए यह करने के बहुत गंभीर दुष्परिणाम हैं; ऐसा करना परमेश्वर द्वारा वर्जित किया गया है (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)।

·        शैतान का प्रयास रहता है कि मनुष्य के अन्दर किसी न किसी रीति से परमेश्वर तथा उसके वचन के प्रति सन्देह उत्पन्न करे, परमेश्वर के वचन पर भरोसा नहीं रखे, और मनुष्य परमेश्वर के विमुख हो जाए। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने कई युक्तियाँ बना रखी हैं, और व्यक्ति के अनुसार उपयुक्त युक्ति के उपयोग के द्वारा उसे बहका कर गिराने का प्रयास करता है। परमेश्वर का वचन बाइबल ही शैतान के द्वारा उसकी इन युक्तियों के सफल प्रयोग करने के मार्ग में सबसे कारगर और प्रभावी हथियार है। इसीलिए शैतान की एक मुख्य युक्ति है मनुष्य के मन में परमेश्वर और उसके वचन के प्रति सन्देह उत्पन्न करना। जैसे ही विश्वासी परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता करने की बजाए अपनी सोच-समझ पर भरोसा रख कर कार्य करता है, वह शैतान के फन्दे में फँस जाता है और पाप में गिर जाता है।

·        बाइबल दिखाती है कि परमेश्वर के धार्मिक लोगों के द्वारा भी अपनी बुद्धि और समझ पर परमेश्वर की आज्ञाकारिता से बढ़कर भरोसा करना, कितना गलत और हानिकारक हो सकता है। इन उदाहरणों में हम देखते हैं कि परमेश्वर के धार्मिक लोगों के द्वारा अपने ही विचार और समझ पर भरोसा रखने के कारण, वास्तव में वह कहा और किया गया जो परमेश्वर के विरुद्ध और उसे नापसंद था, जब कि उन्हें यही लग रहा था कि वे परमेश्वर का कार्य कर रहे हैं, उसका आदर कर रहे हैं। ये उदाहरण बाइबल का एक बहुत कम जाना और समझा गया तथ्य प्रकट करते हैं, ऐसा तथ्य जिसका एहसास बहुत कम मसीहियों को होता है, कि न केवल परमेश्वर के विरुद्ध कही गई बातें, लेकिन ऐसी बातें भी जो परमेश्वर के पक्ष में तो कही जाती हैं, किन्तु परमेश्वर के सत्य और तथ्यों के अनुरूप न होने के कारण, वे भी परमेश्वर को कतई स्वीकार्य नहीं होती हैं।

·        यह एक बहुत ही सामान्य बात है, और अधिकांश लोग इसके बारे में सोचते भी नहीं हैं; वे यही मान कर चलते हैं कि परमेश्वर के वचन में जिस बात का उल्लेख हुआ है, यदि वे उसे कर रहे हैं, तो फिर जिस किसी तरह से भी वह किया जा रहा हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह तब भी परमेश्वर की आज्ञाकारिता में किया गया कार्य ही है, और इसलिए परमेश्वर को उससे प्रसन्न होना चाहिए और उसे स्वीकार करके उसके लिए उन्हें आशीष देनी चाहिए। इसलिए, वे परमेश्वर के वचन में लिखी हुई परमेश्वर के कार्य और उसकी आराधना तथा उपासना से संबंधित बातों को बहुत हलके में लेते हैं, और उनके बारे में मन-माने ढंग से बोलते और उपयोग करते हैं; जैसे कि प्रभु यीशु के क्रूस को, प्रभु यीशु के लहू को, प्रभु-भोज में सम्मिलित होने को, बपतिस्मा लेने को, परमेश्वर को आराधना चढ़ाने उसकी उपासना करने को, इत्यादि। लोग इन सभी और वचन की ऐसी ही अन्य बातों को, चाहे श्रद्धा और भक्ति के भाव साथ, वैसे बोलते और पालन करते हैं जैसा उन्हें सही या, सहज लगता है; किन्तु वह उस प्रकार से नहीं होता जैसा कि परमेश्वर के वचन में उनके बारे में लिखा और करने के लिए कहा गया है। वास्तव में ऐसा करना परमेश्वर की आज्ञा का, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन है और 1 यूहन्ना 3:4 में दी गई परिभाषा के अनुसार ये पाप हैं।

·        यद्यपि मूसा इस्राएलियों को छुड़ाने के लिए परमेश्वर द्वारा चुना और निर्धारित किया हुआ था, लेकिन मूसा अपनी इच्छा और तरीके से इस कार्य को नहीं कर सका, बल्कि ऐसा करने के प्रयास में जान के जोखिम में आ गया। इस कार्य को करने में मूसा तब ही सफल हुआ जब उसने इसे परमेश्वर के समय के अनुसार, परमेश्वर की विधि से, और परमेश्वर के मार्गदर्शन तथा सामर्थ्य में हो कर किया। और ठीक यही बात हम सभी पर भी लागू होती है।

·        जंगल की यात्रा के दौरान इस्राएलियों के द्वारा परमेश्वर के लिए तम्बू बनाया जाना बहुत प्रबल रीति से हमारे सामने इस तथ्य को रखता है कि न तो मनुष्य की कल्पनाएँ, न उसके तरीके, और परमेश्वर के निकट या सम्मुख आने तथा उसकी आराधना करने के लिए न ही मनुष्य की अपनी गढ़ी हुई बातें परमेश्वर को प्रसन्न कर सकती हैं, उसे स्वीकार्य हो सकती हैं। परमेश्वर केवल, जैसा उसके वचन में लिखा और कहा गया है, अपनी बातों और निर्देशों के सटीक पालन किए जाने के द्वारा, उसके कहे के अनुसार ही उसकी उपासना और आराधना किए जाने के द्वारा ही प्रसन्न होता है, और किसी तरीके से नहीं। और शैतान यही प्रयास करता रहता है कि हम किसी न किसी तरह से परमेश्वर के वचन की बातों की अनदेखी कर दें, उन में अपनी इच्छा और समझ के अनुसार कुछ बदलाव कर दें, उनमें कुछ जोड़ या घटा दें; अर्थात परमेश्वर के वचन को परमेश्वर का वचन न रहने दें वरन वह बस ऊपरी रीति से परमेश्वर का वचन लगे, परन्तु उसे वास्तव में मनुष्य का वचन बना लें।

·        राजा शाऊल के जीवन के उदाहरण से हम देखते हैं कि, शाऊल के पास परमेश्वर का वचन आया, किन्तु उसने उस वचन को अपनी ही समझ और परिस्थिति के अनुसार लिया, न कि उसके प्रति एक प्रतिबद्धता और सही रवैया दिखाया। शाऊल ने परमेश्वर के वचन को अपने जीवन में उसका उचित महत्व नहीं दिया, और उसे कीमत चुकानी पड़ी। एक बार फिर से परमेश्वर के वचन का सन्देश हमारे सामने स्पष्ट है, न केवल परमेश्वर के कहे को करना है, वरन जैसा परमेश्वर ने बताया है उसे वैसे ही करना है, तब ही वह परमेश्वर की आज्ञाकारिता माना जाएगा। जो परमेश्वर की बातों को अपनी ही धारणा के अनुसार लेते हैं, और अपनी ही इच्छा के अनुसार काम करते हैं, और फिर यह अपेक्षा रखते हैं कि परमेश्वर उनके प्रयासों को स्वीकार करेगा और उन प्रयासों के लिए उन्हें आशीष देगा, उन्हें अपनी इस ढिठाई और अनाज्ञाकारिता के लिए परमेश्वर के न्याय को झेलना ही पड़ेगा।

·        दाऊद, जो परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था, ने भी परमेश्वर की उन बातों को मानने की बजाए, अपनी इच्छा और समझ के अनुसार कार्य किया। दाऊद परमेश्वर के लिए बहुत उत्साही थी, उसे आदर देना चाहता था, उसके प्रति अपने प्रेम और श्रद्धा को व्यक्त करना चाहता था। वह जो परमेश्वर के लिए करना चाहता था, यद्यपि वह सही था, लेकिन पहली बार उसने जैसे इस कार्य को किया वह परमेश्वर के वचन तथा उसके द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार नहीं था। इसलिए वह परमेश्वर की दृष्टि में किसी भी रीति से अनाज्ञाकारिता से कम नहीं था। और इसीलिए उस कार्य के इतने दुखदायी परिणाम हुए, यहाँ तक कि परमेश्वर की आज्ञाकारिता की बजाए परमेश्वर के एक भक्त मानवीय अगुवे, राजा दाऊद, की आज्ञाकारिता में होकर कार्य करने की कीमत उज्जा को परमेश्वर के प्रकोप को सहने और अपने प्राण देने से चुकानी पड़ी। केवल जब परमेश्वर के वचन को उसका उचित स्थान और महत्व प्रदान किया गया, जब कार्य को सही रीति से किया गया – परमेश्वर द्वारा पहले से ही उसके विषय दिए गए निर्देशों के अनुसार, तब ही परमेश्वर ने उसे स्वीकार किया, उस पर आशीष दी, और उसके लिए अपने लोगों की सहायता की। शिक्षा स्पष्ट है, किसी भी मनुष्य को, चाहे वह दाऊद के समान आत्मिक स्तर रखने वाला ही क्यों न हो, परमेश्वर के वचन के साथ अनुचित व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं है; परमेश्वर को आदर देने या उसके प्रति प्रेम और श्रद्धा की अभिव्यक्ति के लिए भी नहीं; कोई भी परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग कर के उसके दुष्परिणामों से बच नहीं सकता है, चाहे वह दुरुपयोग किसी भी मनुष्य की इच्छानुसार क्यों न किया गया हो।

·        परमेश्वर किसी मनुष्य का पक्ष नहीं करता है “परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता” (गलातियों 2:6)। जब तक उज्जिय्याह परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य रहा, परमेश्वर ने उसे आशीषित किया और बढ़ाया। लेकिन जब उसने परमेश्वर के वचन का उल्लंघन किया, और उसे दी जा रही चेतावनियों को नहीं माना, तब परमेश्वर को उसके विरुद्ध कार्य करना पड़ा। क्योंकि वह पहले भक्त और आज्ञाकारी रहा था, इसलिए परमेश्वर ने उसके द्वारा वचन की अवहेलना करने को नज़रन्दाज़ नहीं किया। परमेश्वर के निर्देशों की अनदेखी करने, और अपनी ही सोच तथा बात पर अड़े रहने के परिणाम उसके लिए बहुत हानिकारक हुए; उसने जीवन भर के लिए सब कुछ गँवा दिया, उन्हें फिर कभी वापस प्राप्त नहीं करने पाया।

 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Improper Behavior Towards God’s Word – 10

Summary

   

    Through various examples from God’s Word, we have been seeing and learning about some of the errors that people can make regarding following God’s Word in their lives. The main emphasis has been that God wants complete obedience to His Word from His people. This not only means doing the God given work, but also doing it in the manner God has asked for it to be done. There should not be any substitution of God given way with a humanly devised way, to carry out what God wants done. Today we will summarize what we have seen and learnt, and in the next article draw the conclusions from it.


The summary points are:

·        The Word of God, the Bible, is a form of the Lord Jesus.  Being a form of the Lord Jesus, it is just as complete and perfect as the Lord Jesus is; and therefore, it cannot be tampered with, altered, added to, or taken away from. Doing any of these to the written Word is tantamount to doing it to the Lord God, and therefore, has serious deleterious consequences; has been forbidden by God (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19).

·        Satan somehow wants to make man doubt God and His Word, not believe in God’s Word, and turn away from God. To accomplish this, he has devised various strategies, and uses the appropriate one against a person to beguile him. God’s Word, the Bible is the most potent and effective weapon against his successfully implementing his strategies. Hence, one of his main strategies is to create doubts in man’s heart about God and His Word.  As soon as the Believer trusts his own intellect over and above obedience to God’s Word and acts accordingly, he falls into Satan’s trap and sins.

·        The Bible shows how flawed and disastrous reliance on one’s intellect and reasoning over and above obedience to God can be, even in a godly person’s life. Biblical examples of godly persons show that because of trusting their own thinking and reasoning, they were actually saying and doing things contrary and offensive to God, while thinking they were doing God’s Work, honoring God. This illustrates a very little-known Biblical fact, a fact that is hardly ever realized even by most Christian Believers, that not only things said contrary to God, but even things said in favour of God, but because of not being in accordance with His truth and facts, they are absolutely unacceptable to God.

·        It is a very common practice, and most people do not even think twice about it; they simply assume that so long as they are doing what is mentioned in God’s Word, howsoever they do it, the manner of doing it does not matter. It is still something done in obedience to God, and God should be happy with it, accept it, and bless them for it. So, they very casually take things mentioned in God’s Word and with God’s work and worship, speak about them and use them according to their own fancy, e.g., the Cross of the Lord Jesus, the Blood of Lord Jesus, the Holy Communion, Baptism, Worshipping God, etc. They talk about them and use them in a manner they think is right by their own understanding; though reverentially, but it is actually not in accordance with what God has had written in His Word about them. But, in realty, it is sin as defined in 1 John 3:4, because they are transgressions of God’s law (KJV), or lawlessness (NKJV, NIV, NASB).

·        Though Moses was to be the one through whom God would deliver Israel, but Moses could not do this according to his desire and by his methods, rather, in attempting to do so, jeopardized his life. Moses could only be successful, when he did this task in God’s time, God’s way, and through God’s guidance and strength. And, that is how it is for us as well.

·        The construction of the Tabernacle for God in the wilderness journey very powerfully illustrates that not the imaginations and devices of man, not man’s contrived methods of coming to God and worshipping God, but only doing things, following His instructions, worshipping Him, etc., exactly as specified by God in His Word, is what pleases God, and nothing else. And Satan keeps trying to get us to either disregard God’s instructions given in His Word, or to modify them, add or take away things from them, according to our own fancy; i.e., do not let God’s Word be God’s Word, but though externally appearing to be God’s word, to actually change it into man’s word.

·        From the example of King Saul’s life, we see that Saul received God’s Word, but interpreted and understood it according to his own thinking about the situation, instead of showing a commitment and proper attitude towards it. Saul failed to give God’s Word its due importance in his life, and paid the price. Those who assume things and act on their own, and then expect God to accept their efforts and bless them for those efforts, will have to suffer God’s judgment for their persistently disobedient ways.

·        David, a man after God’s own heart, assumed things. David was zealous for the Lord God, wanted to honor him, express his love and reverence for Him. Though what he wanted to do for God was right, but the way he initially did it was not according to God’s Word, not according to God’s instructions already given beforehand. So, it was nothing short of disobedience in the eyes of God; hence the painful consequences so much so that obedience to the godly human leader, King David, instead of obedience to God, cost Uzza his life. Only when God’s Word was given its due place and importance, when the right thing was done the right way – according to God’s instructions for it, did God accept it, bless it, and He helped His people for it. The lesson is clear, no man, not even someone of the spiritual stature of David has the right to treat God’s Word inappropriately; not even as an expression or attempt to honor God or show love and reverence towards God; no one can misuse God’s Word and get away with it, whoever may be the person in who’s will the misuse was done.

·        God is no respecter of persons, “God shows personal favoritism to no man” (Galatians 2:6). As long as Uzziah was faithful towards God, God blessed and prospered him. But when he transgressed God’s Word, and would not heed to the warnings being given to him, God had to act against him. God did not condone Uzziah’s disregard for God’s Word despite the warnings, just because he had been godly earlier. The consequences of ignoring God’s instructions and persisting with his own line of thinking were very severe; he lost everything, never to regain any of it for the rest of his life.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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